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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-चार

जयप्रकाश नारायण 

दिल्ली किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि

किसान आंदोलन के प्रति केन्द्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें, किसानों के सवाल पर उनका रुख हर समय   उदासीनता या शत्रुता पूर्ण होता है।

जब भी भूमि अधिग्रहण या अपने उत्पादों की लागत या उचित मूल्य और कृषि से संबंधित निवेश की मांग किसान या किसान संगठन उठाते हैं तो आमतौर पर सरकारों का रवैया एक ही तरह का होता है।

अगर हम 21वीं सदी पर ही नजर डालें तो ऐसी दर्जनों जगहें है जहां भी किसान या आदिवासी किसान  भूमि अधिग्रहण के सवाल हों या  कृषि उत्पादों के मूल्यों  और मंडी में बिक्री के सवाल हो, कोई आंदोलन व जुलूस किया तो सरकारों का रुख दमनात्मक रहता  है।

उनकी  परेशानी को समझना  जिंदगी  के दुख-दर्द को समझना सत्ता के लिए संभव नहीं होता है। हर समय और हर तरह की सरकारें बड़े उद्योगपतियों, कंपनियों  के पक्ष में खड़ी दिखतीं हैं ।

आप भाजपा नीति सरकारों को देखें या इसके पहले की जो भी सरकारें थीं, सबमें आपको यह  प्रवृत्ति समान रूप से दिखाई देगी।

लेकिन 2014 के बाद जब भाजपा  सरकारें आयीं, उनका कारपोरेट समर्थन और प्रतिबद्धता निर्लज्ज रूप से  प्रकट हुआ। बिजली प्लांट लगाने, विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने, राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण  आदि पर जब भी किसानों ने  विरोध में आवाज उठायी  या  भूमि के उचित मुआवजे की मांग की, तो सरकारों ने बदले की भावना से काम किया।

उन्हें हर समय विकास विरोधी बताने  की कोशिश की गयी। एक नैरेटिव रचा गया कि किसान भारत के औद्योगिक विकास की जरूरतों को अपने छोटे स्वार्थों के चलते समझने की  कोशिश नहीं कर रहे हैं या उन्हें कोई निहित स्वार्थी ताकतें गुमराह कर रही हैं  ।

सरकारें यह समझने से इंकार कर रही हैं, कि जमीन किसानों, आदिवासियों और कृषिजीवी समाज के लिए महज भूमि का एक टुकड़ा नहीं है । वह उनका जीवन, उनके संस्कृति और उनका सामाजिक ढांचा है, जिस पर वे टिके हुए हैं और एक मुकम्मल समाजिक, आर्थिक संस्कृति सदियों से  पल रही है ।

एक सामाजिक संस्कृति को नष्ट करके कारपोरेट पूंजी के मुनाफे की गारंटी करना आज सरकारों का मूल चरित्र बन गया है। इसलिए, जगह-जगह किसान और सरकारों के बीच में टकराव की घटनाएं दिखती हैं । जो कई जगहों पर सरकारी दमन और बर्बरता का रक्तरंजित इतिहास रच देती है । उस  बर्बर स्मृति  को किसान पीढ़ियों तक अपने अंदर समेटे  रहते हैं।

मंदसौर के अनाज मंडी में कुछ ऐसा ही घटित हुआ। जहां अपना कृषि उत्पाद बेचने आये किसानों को शिवराज सिंह की भाजपा सरकार द्वारा गोली झेलना पड़ा। 6 किसान मारे गये, दर्जनों घायल हुए ।

यहीं से भारत में किसान आंदोलन की एक नयी दिशा निकली। हालांकि, इसके पहले किसानों को पिछले दस वर्षों में अनेकों स्थानों पर गोलियां, लाठियां खानी पड़ी थीं ।

लेकिन मंदसौर की घटना किसान आंदोलन के लिए मील का पत्थर साबित हुई। इस हत्याकांड के विरोध में पूरे भारत में एक आक्रोश फूट पड़ा। जहां भी किसान संगठन थे, उन्होंने मंदसौर के किसानों के साथ एकजुटता दिखायी।

इसी एकजुटता के क्रम में मंदसौर में किसान संगठनों के नेता इकट्ठा हुए, उन्होंने शहीद किसानों को श्रद्धांजलि दी और यह घोषणा की, कि उनके संघर्ष को आगे बढ़ाया जाएगा।

उस संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए किसान संगठनों और उनके नेताओं की एक संयुक्त बैठक बुलाई गयी। जिसमें किसान संघर्ष समन्वय समिति के गठन का फैसला किया गया ।

यह सामूहिक सोच बनी, कि अब सभी किसान संगठन, चाहे जिस इलाके में, जिन भी मांगों को लेकर  आंदोलनरत हैं, सब एक साथ सामूहिक रूप से एक-दूसरे का सहयोग करेंगे और इसे एक अखिल भारतीय स्वरूप देंगे। उसी समय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया गया  ।

थोड़े ही समय में किसान संघर्ष समन्वय समिति के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी और आज करीब साढ़े चार सौ संगठन इस किसान संघर्ष समिति के घटक यानी इस समिति के सदस्य बन गए हैं।

यह किसान संघर्ष समन्वय समिति भारत के विभिन्न इलाकों में अलग-अलग सवालों, मुद्दों और नारों के साथ, अलग-अलग समूहों, अलग-अलग भाषाओं, क्षेत्रों में फैले किसान संगठनों का आपसी समूह  हैं। जो  समन्वय समिति के एक आह्वान पर देश के अनेक इलाकों    और क्षेत्रों में उसकी कॉल को लागू करते हैं।

आगे चलकर किसान संघर्ष समिति ने अपने आंदोलन के एजेंडे को सूत्रबद्ध किया। किसान संघर्ष समन्वय समिति  ने दो सवालों पर राष्ट्रीय अभियान चलाया। पहला, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए। सिफारिश के आधार पर सी प्लस टू के साथ 50% मुनाफा जोड़कर एमएसपी का निर्धारण किया जाए।

दूसरा, एमएसपी को कानूनी गारंटी मिले। इन मुद्दों को लेकर कालांतर में समन्वय समिति ने किसान जागरण  यात्राओं को संचालित किया, जो पूरे भारत को  चार क्षेत्रों में बांट कर संचालित की  गयी।

इसने लगभग भारत  के 70% इलाके को अपने प्रचार अभियान के दायरे में समाहित किया । अंत में अभियान समिति ने दिल्ली में नवंबर 2019 में  दो दिन का संसद के सामने किसानों की पंचायत लगायी, जो बहुत ही कामयाब रही।

इसने किसानों के इन दोनों सवालों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में सफलता हासिल की। इस किसान पंचायत में किसान संगठनों और कार्यकर्ताओं की भारी भागीदारी ने एक नये तरह के उत्साह का सृजन किया।

किसान आन्दोलन और पंजाब 
किसान संघर्ष समन्वय समिति के समानांतर पंजाब में बरसों से किसान यूनियनों का मजबूत आधार और अस्तित्व रहा  है ।

पंजाब आधुनिक कृषि और कृषि में सघन पूंजी निवेश का इलाका है। जहां उत्पादकता का स्तर बहुत उन्नत है। दूसरा, लंबे समय से कृषि उत्पाद के लिए यहाँ  मंडियां उपलब्ध हैं  ।

यह मंडियां बहुत व्यवस्थित और सुचारू रूप से संचालित होती हैं। इनका एक मजबूत नेटवर्क भी है। आप पंजाब में जाइए, अगर किसी कस्बे या शहर का नाम लीजिए, जैसे मानसा तो तुरंत जानकार लोग यह कहेंगे कि मानसा मंडी जाना है।

वहां के शहरों, कस्बों में मंडियों का मजबूत अस्तित्व है। मंडियां कृषि गतिविधियों का  मिलन-स्थल हैं। इसलिए पंजाब में मंडियों के चलते कृषि उत्पादों के बिक्री का   मजबूत ढांचा पहले से मौजूद है ।

पंजाब सघन कृषि उत्पादन का क्षेत्र है, इसलिए वहां कृषि में पूंजी  निवेश एक महंगा काम है। उच्च उत्पादकता के बावजूद  पंजाब की कृषि भी शेष भारत की कृषि की तरह समय-समय पर मंदी, ठहराव और बाजार के अराजकता के चलते  जटिलताओं और  घाटे में फंसती रहती है।

किसान पंजाब में लंबे समय से किसान यूनियनों में संगठित होने के चलते   मजबूत राजनीतिक ताकत भी हैं। वहां करीब-करीब सभी विचारों वाले किसान संगठन मौजूद  हैं।

उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा और टकराव भी होते हैं और एक दूसरे से सकारात्मक सहयोग और प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है । पंजाब में खेती और पंजाबी समाज पर बड़े और संपन्न किसानों की मजबूत पकड़ है।

वहीं, मजदूर और गरीब किसान भी बहुत संगठित और अपने अधिकारों और सामाजिक सम्मान के प्रति सचेत रहते हैं।

वामपंथी किसान संगठनों का  किसान सभाओं और किसान यूनियनों पर अच्छा खासा प्रभाव और जनाधार है।

ये किसान संगठन लगातार पंजाब में सक्रिय रहते हैं और विभिन्न रूप में किसान संगठन अपने आंदोलन और संघर्ष चलाते रहते हैं।

डंकल प्रस्ताव , गेट और विश्व व्यापार संगठन  में भारत के शामिल होने और उसकी शर्तों को भारतीय कृषि पर लागू करने के सवाल पर पंजाब में शेष भारत की तुलना में ज्यादा तीखी बहसें , विरोध-सभाएं और पंचायतें  होती रही हैं।

इन सभी राजनीतिक कारवाईयों‌ के चलते किसान संगठन पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में सम्मानित दृष्टि से देखे जाते हैं ।

सघन पूंजी और उत्पादकता वाला इलाका होने के नाते पंजाब का किसान शेष भारत के किसानों की तुलना में ज्यादा सचेत और संगठित है तथा उसके सोचने-समझने का स्तर भी उन्नत है। सघन पूंजी निवेश वाला इलाका होने के नाते पंजाब के किसानों पर कर्जदारी का बोझ ज्यादा था, इसलिए वहां आत्महत्या का ग्राफ भी बहुत ऊंचा है।

इसके साथ ही पंजाब का अधिकांश किसान सिक्ख धर्मावलंबी है, इसलिए वहां सेवा-सहयोग और समानता की भावना भी बहुत मजबूत है। साथ ही गुरुद्वारों और संगतों का गहरा प्रभाव है।

सामाजिक, आर्थिक विकास के इस मंजिल में पहुंचा हुआ पंजाब अपने अधिकार, खेती-किसानी बचाने के  संघर्ष के लिए भौतिक रूप से पहले से ही तैयार था।

कोविड-19 की महामारी आते ही कारपोरेट नियंत्रित और संचालित और उसके मुनाफा और हितों की रक्षा के लिए प्रतिबध्द मोदी सरकार ज्यों ही कृषि के लिए तीन अध्यादेश लेकर आयी, पंजाब सहित संपूर्ण भारत का किसान आसंन्न संकट को समझ कर तुरंत लामबंद होकर जीवन-मरण के संघर्ष के लिए सड़कों पर उतर आया।

कृषि के लिए लाये गये तीन कृषि अध्यादेश को कोविड-19 के मध्य    सरकार ने संसद की परंपराओं का उल्लंघन करते हुए बहुमत के बल पर पास करा लिया, तो किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 26-27 नवंबर को  दिल्ली में अपने धरने-प्रदर्शन का ऐलान कर दिया।

इस आह्वान का सबसे जोरदार स्वागत पंजाब के किसानों ने किया, जो पहले से ही 32 किसान संगठनों की जत्थेबंदियों का एक संयुक्त मोर्चा बनाकर पंजाब में दो महीने से सड़कों पर बैठे थे।

उन्होंने तुरंत दिल्ली कूच की तैयारी शुरू कर दी। यही वह बिंदु है, जहां से आज दिल्ली को घेरे हुए किसान आठ महीने से ज्यादा समय से बैठे हुए हैं और सरकार के सारे हथकंडे को निष्प्रभावी करते हुए अपना आंदोलन जारी ही नहीं, बल्कि  विस्तारित भी करते जा रहे हैं।

(किसान आन्दोलन की यात्रा और उसके भविष्य पर यह चर्चा अगली कड़ी में भी जारी)

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