जयप्रकाश नारायण
9 अगस्त, भारत छोड़ो आन्दोलन दिवस और किसान आंदोलन की अग्रगति
अगस्त क्रांति दिवस को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा तीनों किसान विरोधी कानून वापस लेने और मोदी सरकार के गद्दी छोड़ने के आवाहन के साथ संपन्न हुआ।
अभी तक जो खबरें आ रही हैं, कि आवाहन का असर जम्मू कश्मीर के श्रीनगर से केरल, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर भारत तक दिखा।
खासकर उत्तर प्रदेश, जहां योगी सरकार किसान आंदोलनकारियों और जनता के जनतांत्रिक अधिकारों की आवाज उठाने वालों के खिलाफ बर्बर हमले चला रही है, वहां कल के आंदोलन ने राज्य के आतंक को लगभग खत्म करने या कमजोर करने में सफलता पायी।
अभी तक किसान मोर्चे की तरफ से जब भी कोई आंदोलन का आवाहन होता था तो योगी पुलिस खासतौर वामपंथी कार्यकर्ताओं और आमतौर पर आंदोलन में भाग लेने वाले सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के नेताओं के घर पर पहुंच जाती थी।
उन्हें घर पर नजरबंद करने या पुलिस थानों में ले जाकर के बैठा कर आतंक फैलाने का प्रयास करती थी।
एक बात बहुत साफ है, कि कृषि कानून सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों को कृषि व्यापार में एकाधिकारी आधिपत्य देने के लिए कानूनन गारंटी देना है।
कानूनों के घातक प्रभाव से भारतीय कृषि और उसके पूरे ढांचे और भूमि संबंधों में भी बदलाव की पूर्ण तैयारी है ।
लार्ड कार्नवालिस द्वारा लाये गये भूमि संबंधी बंदोबस्त से भारतीय कृषि में मालिकाने से संबंधित जो बदलाव मध्यकालीन भारत के भूमि संबंधों में हुआ था, आजादी के बाद भी जमीदारी उन्मूलन, भूमि हदबंदी और गरीबों में भूमि वितरण के सतही प्रयासों के बावजूद भी कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ था।
विगत 8 महीनों से लगातार चल रहे किसान आंदोलन के साथ मोदी सरकार के शत्रुतापूर्ण व्यवहार और टकरावों ने किसानों को सरकार की पक्षधरता और कारपोरेट के प्रति प्रतिबद्धता को समझने में बेहतरीन वातावरण तैयार कर दिया है।
केंद्र सरकार और उसके इशारे पर नाचने वाले गोदी मीडिया के दुष्टता और धूर्ततापूर्ण प्रचार, किसान नेताओं, कार्यकर्ताओं पर फर्जी आपराधिक मुकदमों द्वारा उन्हें डराने की कोशिशें , आंदोलन के खिलाफ षडयंत्र रचने और सांप्रदायिक विभाजन के द्वारा विभिन्न समुदायों में टकराव की कोशिशों के चलते आम किसानों में सरकार के चाल, चरित्र और चलन को समझने और उसके प्रति अपनी धारणा निर्मित करने में बहुत मदद मिली।
केंद्र सरकार की कारपोरेट के मुनाफे के लिए किसी भी हद तक गुजर जाने की प्रतिबद्धता को किसानों और उनके नेताओं ने अनेकों रूपों में देखा।
किसानों ने देखा, कि कुछ मित्र पूंजीपतियों को एयरपोर्ट बेचने, सरकारी प्रतिष्ठानों को औने-पौने दाम में नीलाम करने और खुलेआम केंद्रीय सरकार के सभी प्रतिष्ठानों को बाजार में बेचने के लिए पंजीकृत करने से आम भारतीयों सहित किसान नेताओं में भी यह धारणा गयी कि कृषि क्षेत्र को भी अब उसी दिशा में ले जाने के लिए यह सरकार कटिबद्ध है।
कोविड-19 के काल में जहां औद्योगिक विकास नकारात्मक था, सिर्फ कृषि में ही धनात्मक विकास की प्रवृत्ति दिख रही थी।
इसलिए जब महामारी के इस कठिन काल में केंद्र सरकार अध्यादेश के द्वारा तीन कृषि कानून ले आने की कोशिश की, तो किसान चौकन्ने हो गये। जिस कारण से किसान आंदोलन का आगाज भारतीय समाज और राजनीति में हुआ।
सरकार जैसे-जैसे दमन और अपनी हठधर्मिता का विस्तार करती गयी, वैसे ही वैसे, किसान भी सचेत और एकताबद्ध होते गये।
कोविड-19 महामारी की दूसरी भयावह लहर के बावजूद, जिसमें लाखों भारतीय या तो मारे गए या प्रभावित हुए हैं, किसान अपने आंदोलन के मोर्चे पर डटे रहे।
यही नहीं, उन्होंने अपने सचेतन आंदोलनात्मक गुणों के चलते कोविड-19 महामारी से भी अपने मोर्चे को बचा लिया। जबकि संपूर्ण उत्तर भारत सहित बहुत बड़ा ग्रामीण इलाका दूसरी लहर के चपेट में आ गया था।
अब, जब महामारी की दूसरी लहर रुक गयी है, सरकार की भी कोशिशें किसान आंदोलन को निष्प्रभावी करने और इसे बिखेर देने के लिए तेज हो गयी हैं।
किसान आंदोलन ने भी अपनी, कार्यनीति व रणनीति की दिशा को समय के अनुकूल दुरुस्त करते हुए आंदोलन के विस्तार के लिए नये प्रयास शुरू कर दिये हैं। उसमें उन्हें सफलता भी मिलती दिख रही है।
संसद के मानसून सत्र के दौरान किसान-संसद का आयोजन चल रहा है और उसे वैचारिक और व्यावहारिक समर्थन मिल रहा है।
आंदोलन के अग्रिम श्रृंखला में 9 अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की स्मृति, उर्जा और संघर्ष के इतिहास को जागृत करने का कार्यक्रम लिया गया। जिसके द्वारा आंदोलन में संगठित हो रहे भारतीय समाज को विश्व साम्राज्यवादी पूंजी के साथ भारतीय कारपोरेट घरानों के गठजोड़ को अनावृत्त करने की कोशिश हुई।
भारत के प्राकृतिक संसाधनों और जल, जंगल, जमीन तथा श्रम की अमानवीय लूट के खिलाफ जन चेतना को आंदोलनात्मक दिशा में मोड़ देने की तैयारी है।
इसलिए किसान आंदोलन ने नये नारे और माँग आंदोलन के सामने रखी। 9 अगस्त का नारा तय किया गया, कि कारपोरेट खेती छोड़ो, मोदी सरकार कानून वापस लो या गद्दी छोड़ो। इस आवाहन ने सामान्य ग्रामीण जीवन में भी एक आवेश पैदा किया है और आंदोलन के प्रति एक आकर्षण बढ़ा।
कल 9 अगस्त को संपूर्ण भारत में किसान संगठनों और कार्यकर्ताओं द्वारा चलाये गये आंदोलन के तेवर, तीव्रता और सामाजिक आधार में भी विस्तार साफ-साफ दिखा है।
जो सुनिश्चित कर रहा है, कि किसान आंदोलन में नया आवेग पैदा हुआ है। आंदोलन का प्रभाव किसानों, ग्रामीण मजदूरों, छोटे मझोले किसानों, उनके घरों के बेरोजगार पढ़े-लिखे नौजवानों के दायरे तक विस्तारित हुआ है।
समाज के अन्य हिस्सों में भी आंदोलन के नैतिक, आर्थिक समर्थन को विस्तार मिला है। अपनी खेती-किसानी बचाने के लिए किसानों की एकता बड़ी है और उनका संकल्प मजबूत हुआ है।
उत्तर प्रदेश के विपक्ष के नेताओं में भी किसान आंदोलन के तेवर और लड़ने की जिजीविषा और किसी भी स्थिति में सरकार के दमन के सामने पीछे न हटने की प्रवृत्ति ने आत्मविश्वास बढ़ाया है। वे भी मुखर होने लगे हैं।
अभी तक आत्म-रक्षात्मक दिखती हुई समाजवादी पार्टी एक कदम आगे बढ़कर पेगासस जासूसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग करने लगी है। मोदी को गद्दी छोड़ने और इस खुलासे को देशद्रोह कहने लगी है।
इससे स्पष्ट है, कि उत्तर प्रदेश में भी किसान आंदोलन ने अपनी एक राजनीतिक आंदोलनकारी और व्यापक जन समर्थन वाली स्थिति बना ली है।
अब यहां खड़े होकर हमें इस बात को देखना, समझना होगा कि आज संपूर्ण भारत, खासकर उत्तरी भारत जो मोदी सरकार का सबसे मजबूत केंद्र रहा है, जो भाजपाई हिंदुत्व ब्रांड वाली विचारधारा का ग्राहक और हिंदुत्व की प्रयोगस्थली है, जहां अभी भी धर्म और जाति, आम समाज की चेतना को निर्धारित करने वाला एक बड़ा तत्व है, वहां अगर मुद्दा आधारित, जीवन की समस्या आधारित राजनीतिक विमर्श शुरू हो चुका है, तो निश्चित समझिए कि किसान आंदोलन ने हिंदी हृदय स्थल में बहुत बड़ी सामाजिक, वैचारिक अग्रगति पैदा कर दी है।
भारत के भविष्य के राजनीतिक मंच पर भारत के निर्माण और आधुनिकीकरण की परियोजना किस तरह से आगे बढ़ेगी, विश्व पूंजीवाद पर छाये जटिल सामाजिक, आर्थिक संकट के दौर में उसका स्वरूप क्या होगा, भारत में चल रहे जन आंदोलनों, खासतौर पर किसान-आंदोलन और छात्र-आंदोलन के गर्भ में इन सब सवालों के उत्तर तलाशे जा सकते हैं! आइए, इस पर एक दृष्टि डालते हैं!
(अगली कड़ी में जारी)