जयप्रकाश नारायण
किसान आन्दोलन के वे साठ घंटेः आशंका, तनाव, आतंक और पलटवार
दीप सिंधु के नेतृत्व में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा झंडा के बगल में निशान साहिब का झंडा फहराने और लाल किले के परिसर में आधे घंटे रह कर नारे लगाने, शोर मचाने की वारदात ने आरएसएस-भाजपा नियंत्रित मीडिया, पुलिस, सरकार और भाजपा के आईटी सेल को वह अवसर मुहैया करा दिया, जिसकी प्रतीक्षा वे पिछले एक महीने से कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ठंडे दिमाग से तैयारी की थी।
भाजपा द्वारा प्रायोजित इस घटना का फायदा उठाकर
एक स्वर में हजारों मुंह से शोर शुरु हो गया, कि तिरंगे का अपमान गणतंत्र दिवस पर किसान आंदोलनकारियों , खालिस्तानी आतंकवादियों और वामपंथी उग्रवादियों ने किया है ।
चारों तरफ एक ही खबर, एक ही कर्कश शोर, देखो यह किसान नहीं आतंकवादी हैं। यह भारतीय झंडे का अपमान कर रहे हैं। इनमें भारत के राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक तिरंगे के प्रति कोई सम्मान नहीं है। लाल किले पर खालिस्तानी झंडा फहराया गया है । अब इन आंदोलनकारियों का असली चेहरा खुलकर सामने आ गया है। यह किसान नहीं, यह खालिस्तानी हैं, जो किसानों की खाल ओढ़कर बैठे हैं।
इस शोर में लाखों किसानों की अनुशासित, नियंत्रित और लक्ष्य के प्रति समर्पित किसान गणतंत्र परेड के संदेश को भुलाने की कोशिश की गयी। कारपोरेट फासीवाद की राजनीतिक कार्यशैली, आक्रामक प्रचार अभियान और हमला करने की होती है।
वे तेज गति के साथ विपक्षियों पर वैचारिक, राजनीतिक, शारीरिक हमले करते हैं और उसे संभलने का मौका नहीं देते।
हम जानते हैं, कि भारत में पिछले 7 वर्षों से किस तरह की आक्रामक प्रचारवादी, व्यक्तिवादी राजनीतिक कार्यशैली हावी है, जो नेतृत्व की मजबूत क्षमता, दृढ़ता और योग्यता को दिखाने के लिए दिन-रात प्रसारित और प्रचारित की जाती है।
इस आक्रामक हमलावर शैली का प्रयोग लाल किले की घटना को केंद्र में रखकर शुरू हो गया। यह प्रचार अभियान इतना तीखा और हमलावर था, कि ढेर सारी गढ़ी हुई घटनाओं, झूठे वीडियो फुटेज, तथ्यों के साथ नाइंसाफी और लाल किले पर नारे लगाती हुई भीड़ के आक्रामक तेवर दिखा-दिखा कर आम भारतीय नागरिकों को किसान आंदोलन के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की गयी।
यह प्रयास किया गया, कि दिल्ली और पूरे देश में किसान आंदोलन के प्रति बढ़ती सहानुभूति, समर्थन और सहयोग की दिशा को पलट दिया जाए।
आमजन में किसान आंदोलन के प्रति नफरत और विरोध निर्मित करने के बाद सरकार रात के अंधेरे में किसानों को खदेड़ने, नेताओं को गिरफ्तार करने, लांछित और अपमानित करके आंदोलन को खत्म करा दे।
ऐसी कई खबरें दिसंबर की शुरुआत में ही आयी थी, कि सरकार किसी भी हद तक जाकर किसान आंदोलन को खत्म कराएगी।
कारपोरेट नियंत्रित मीडिया, सरकार और आर एस एस के हजारों छिपे-खुले संगठनों द्वारा मोदी की जो मजबूत और कठोर निर्णय लेने वाली छवि गढ़ी गयी है। यह आंदोलन उसको विखंडित कर रहा है। इसलिए भाजपा की राजनीति की वापसी के लिए जरूरी है, कि किसान आंदोलन का बर्बर दमन किया जाए और भारत में उठ रही सभी लोकतांत्रिक आवाजों को चुप करा दिया जाए।
किसान आंदोलन के दमन के दौरान अगर नरसंहार या हिंसा की घटनाएं होती हैं, तो उसे भारत की सुरक्षा के काल्पनिक नैरेटिव के अंतर्गत खालिस्तानी, माओवादी और अर्बन नक्सल के सहयोग से चलाया जा रहा किसान आंदोलन कहकर, आतंकवादी गतिविधियों को समाप्त करके दिल्ली को सुरक्षित करना बता दिया जाए।
दिल्ली को खाली कराने के नाम पर आक्रामक किसान विरोधी वैचारिक प्रचार अभियान को चला कर यथार्थ को छिपा दिया जाए और आभासी चीजें लोगों के दिमाग में बैठा दी जाए। जैसा कई अवसर पर हमने देखा है।
पुलवामा से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक तक इस तरह के उन्मादी राष्ट्रवाद को पैदा करने में सरकार और सत्ता कामयाब रही है। शायद वर्तमान, अतीत को दोहराने की तरफ बढ़ रहा था, लेकिन अगर सब कुछ फासीवाद की आक्रामक कार्य-योजना के तहत ही चलना होता, तो आज दुनिया हिटलरशाही के शिकंजे में ही छटपटा रही होती।
जीवन की गति, जीवन के वास्तविक संकट और मनुष्यता के आपसी रिश्ते, धर्म-जाति और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर तोड़ने की जो कोशिशें हुई है, अभी वह पूरी तरह सफल नहीं हो पायी है।
आपसी रिश्ते और प्यार, मोहब्बत, सहयोग सभी मानवीय संबंध अभी भी बरकरार है। पूंजीवादी सभ्यता ने एक नया समाज गढ़ने के क्रम में ऐसी जीवन शैली विकसित की है, जहां मनुष्य खुद से और समाज से अलगाव में जी रहा है। लेकिन भारतीय किसानों के बीच सहयोग, समन्वय और साझा उत्पादन संबंधों के मौजूद होने के कारण, सहयोग के रिश्ते अभी भी जीवन में गतिशील है।
इस कारण, किसान आंदोलन विरोधी आक्रामक अभियान 60 घंटे तक लगातार चलाने के बाद भी यह झूठा और दुष्टतापूर्ण अभियान खुद सत्ता के ऊपर पलटवार कर गया।
भारी पुलिस बल की मौजूदगी में रात के अंधेरे में लोनी के भारतीय जनता पार्टी के विधायक द्वारा जब गुंडों की भीड़ लेकर गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों के ऊपर हमले शुरू हुए, तो प्रायोजित मीडिया ने यह खबर उछाल दी, कि किसानों के तंबू उखड़ गये हैं। किसान अब गाजीपुर बॉर्डर खाली करके तेजी से भाग रहे हैं। किसान आंदोलन के अंत की घोषणा कर दी गयी।
26 जनवरी के महान किसान गणतंत्र परेड के सफल आयोजन के बाद भी किसान आंदोलन के पीछे हट जाने का जश्न मीडिया और भाजपाई संगठनों और सरकारी तंत्र द्वारा मनाया जाने लगा।
इस कठिन समय में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने अंगद के पांव की तरह खुद को जमा दिया और गाजीपुर के किसान आंदोलन के मंच पर खड़ा होकर रोते हुए स्वर में एलान किया कि हमारे किसानों को मारा जा रहा है। उन पर हमले हो रहे हैं। उन्हें अपमानित, प्रताड़ित करने की कोशिश हो रही है। इसलिए मैं मंच पर से नहीं जाऊंगा। यही रहूंगा, जब तक मेरी जिंदगी मौजूद है। मैं अपने किसान भाइयों का साथ छोड़कर नहीं जा सकता। मैं अपना जीवन दे दूंगा, लेकिन पीछे नहीं हटूंगा।
इस आवाज में भारतीय किसानों की दर्द और पीड़ा छलक उठी। फिर क्या था, यह खबर वायु वेग से हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच पहुंची। रात 9:00 बजे से ही बड़ी संख्या में किसान पंचायतें गांव में शुरू हो गयीं। ट्रैक्टर पर बैठे उच्च स्वर में नारा लगाते हुए किसान गाजीपुर बार्डर की तरफ दौड़ पड़े।
राकेश टिकैत की आवाज, कि जब तक मेरे गांव से, मेरे किसानों के घर से पानी नहीं आएगा मैं पानी नहीं पीऊंगा और जीवन दे दूंगा। किसानों के सम्मान और हित के अलावा मेरा कोई स्वार्थ नहीं है।
इस आवाज ने लगता है जादू कर दिया। 10:00 बजे के बाद दिल्ली के चारों तरफ के गांव से खब रेंपहुंचना शुरू होगयी। पुलिस और गुंडे आक्रामक थे, हमला कर रहे थे।
बचे हुए किसान लाठी-डंडेऔर झंडे के साथ अपने अपने कैंपों के बाहर खड़े हो गये। उस समय संख्या कुछ जरूर घट गयी थी, लेकिन बचे हुए किसानों ने अपनी जिजीविषा, साहस का परिचय देते हुए एलान कर दिया, कि सरकारी दमन, भाजपाई गुंडों के हमले के सामने हम पीछे नहीं हटेंगे और आंदोलन जारी रहेगा।
मध्य रात्रि तक आते-आते पासा पलट चुका था। हजारों किसानों के जत्थे नोएडा, गाजीपुर, मेरठ, शामली, मुजफ्फरनगर, हिसार, पानीपत, सोनीपत, कैथल, दादरी से गाजीपुर बॉर्डर की तरफ दौड़ पड़े।
लगता है, सत्ता के कंगूरे पर बैठा हुआ बादशाह टीवी के स्क्रीन पर इन घटनाओं को देख रहा था, तो उसे लगा होगा कि किसानों के जनसैलाब से लड़ना संभव नहीं है।और भाजपाई गुंडे रात में दुम दबाकर भागने लगे।
पुलिस का आक्रामक तेवर और भंगिमा और भाषा भी बदलने लगी । रात के 3:00 बजते-बजते पैरामिलिट्री फोर्सेज और उत्तर प्रदेश पुलिस अपनी गाड़ियों में बैठकर हारे हुए सैनिकों की तरह मुंह लटकाए वापस जाने लगे। हो सकता है, उस समय सुरक्षा बलों के मन में अपने किसान भाइयों के दुख-दर्द के प्रति एक सहानुभूति भी पैदा हुई हो।
ठीक उसी समय एक पुलिस इंस्पेक्टर की आवाज किसानों के पक्ष में उठ रही थी, जो बचे हुए पुलिस जवानों पर जादू का असर डाल गयी। पुलिस भी सरकार के जाल में फंसने से अपने को बचा कर किसान आंदोलनकारियों से 2 किलोमीटर दूर जाकर खड़ी हो गयी।
हारी हुई बाजी 60 घंटे बीतते-बीतते किसानों के पक्ष में पलट गयी थी और किसान आंदोलन की अजेयता सुबह होते ही हजारों पक्षियों के कलरव के साथ पूरे भारत में गूंज उठी।
किसान की जय हो। किसान लड़ेगा, जीतेगा। इस संकटकालीन साठ घंटे के दौर में कुछ मध्यवर्गीय किसान नेताओं के सुर बदल गए थे।
वह पश्चाताप करने लगे। इस वक्त को किसान आंदोलन पर बड़ी मुसीबत के रूप में परिभाषित करने, यहां तक कि किसानों को लांछित करते हुए आंदोलन छोड़कर भाग खड़े हुए।
बुराड़ी के मैदान में बैठे सत्ता के जाल में फंसे किसान नेता तो अपना तंबू उखाड़ कर भाग चले। प्रचार और पूंजी के बल पर नकली किसान नेता बने हुए बुराड़ी हो, पलवल हो या अन्य मोर्चे, वहां से किसान आंदोलन को छोड़कर अपने सुरक्षित खोल में लौट गये। आज वह अपने मध्यवर्गीय कायरता पर अंधेरे में बैठकर कर विलाप कर रहे होंगे।
8 महीने से विजयी किसान अपने-अपने मोर्चों पर डटा हुआ सत्ता की हर चालों को बेनकाब करते हुए आंदोलन की नयी मंजिल में पहुंच चुका है। वह सत्ता से आंख मिलाकर सीधे कह रहा है, कि या तो तीनों किसान विरोधी कानून वापस लो या मोदी गद्दी छोड़ दो! वह हुंकार कर कह रहा है, कारपोरेट खेती छोड़ो!
यह आज के भारत का जनस्वर है, जो चारों तरफ गूंज रहा है। यही आज हमारे लिए एकमात्र मंत्र है। आंदोलन का नारा है, आंदोलन की दिशा है।
(अगली कड़ी में जारी)