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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-बारह

जयप्रकाश नारायण 

विरासत खोजता किसान आंदोलन

 

जन-संघर्ष, जन-आंदोलन निर्वात से जन्म नहीं लेते। आज की स्थितियों में वे अतीत की किसी चल रही धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। और, भविष्य में एक नये समाज की संकल्पना के साथ वे वर्तमान में  संघर्षरत होते हैं।

इसलिए,  किसान आंदोलन को भी हमें अचानक तीन कृषि कानून आने के बाद  पैदा हुआ तथा अतीत और भविष्य से कटे,  स्वतंत्र आंदोलन के रूप में नहीं देखना चाहिए ।

खुद किसान आंदोलन के नेताओं ने इस बात की जरूरत  शिद्दत से महसूस की है, कि वे अतीत के किस धारा का प्रतिनिधितव करने जा रहे हैं।

आज भारत में कोई जन-संघर्ष लोकतंत्र, संविधान और आधुनिक भारत की संकल्पना के विचार से स्वयं को जोड़ना चाहता हो, तो उसे हालिया राष्ट्रीय आंदोलन के अंदर से ही अपने आदर्श, विचार, नेतृत्व और संघर्ष के तौर-तरीके खोजने ही होंगे।

1947 ई. के बाद जिस आधुनिक भारत का  निर्माण शुरू हुआ है, उसके अंदर मौजूद सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रवृत्तियों, विचारों, अंतर्विरोधों  को भी समझना होगा। इसमें से ही अपनी विरासत खोजनी होगी।

26-27 नवंबर के बाद  सीमा पर किसान अपना मोर्चा लगा कर बैठ गये, तो उनके सामने यह बड़ा सवाल था, कि दैनंदिन  की अपनी गतिविधियों को कैसे आगे बढ़ाएंगे!

क्या वह एक निष्क्रिय आंदोलनकारी बनकर सत्ताधारिओं की कृपा, और दया  पर अपने को आश्रित रखेंगे कि किसानों की इस  कठिन आत्म-साधना को देखकर उनकी मानवीयता जागृत होगी  और एक दिन वे किसानों के बीच आकर उनके दुख-दर्द को सुनाएंगे और किसान व कृषि-विरोधी तीनों कानून वापस ले लेंगे!

किसान आंदोलन ने कभी इस तरह का नियतिवादी रास्ता नहीं चुना। उन्होंने सीधे इतिहास की उस धारावाहिक विरासत को वर्तमान से और आज के लोकतंत्र के समक्ष खड़े गंभीर चुनौतियों के साथ जोड़कर अपनी विरासत को चुना। अपने आंदोलन को उस विरासत के नायकों से जोड़ा।

इस क्रम में सबसे पहले 6 दिसंबर को चुना गया। जो भारत में  समता, बंधुता और स्वतंत्रता के सबसे महत्वपूर्ण चिंतक बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का निर्वाण दिवस है।

बाबा साहब को श्रद्धांजलि  अर्पित करने के साथ किसान आंदोलन ने संविधान बचाओ, किसान बचाओ का आवाहन किया।

किसान आंदोलन ने संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को अपना मार्गदर्शक और प्रेरक घोषित किया।

स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे बर्बर घटनाओं में से एक   6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना है। यह घटना संविधान और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाते हुए भारत को एक बर्बर राष्ट्र बनाने की तरफ प्रेरित था।

इस दिन को संविधान और लोकतंत्र बचाओ दिवस के रूप में चुनना किसान आंदोलन की दूर-दृष्टि और गहरे लोकतांत्रिक सरोकार को प्रदर्शित करता है।

इसके साथ ही, किसान आंदोलन ने भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक दिवसों को  आंदोलन के  सांस्कृतिक विरासत के साथ जोड़ने के लिए आयोजन करना शुरू किया।

साथ ही, भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के सबसे बड़े नायकों, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, करतार सिंह सराभा, 1857 ई. के विद्रोह के नायकों और अनेकानेक स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों की परंपरा के साथ जोड़ने का प्रयास किया।

किसान आंदोलन ने स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण पड़ावों को भी अपने आंदोलन को गति देने के लिए आंदोलन के एजेंडे में शामिल किया ।

इसी विरासत की खोज के तहत किसान आंदोलन की तरफ से 26 जनवरी  के गणतंत्र दिवस पर किसान गणतंत्र परेड  आयोजित करने का फैसला किया गया।

किसानों द्वारा गणतंत्र दिवस आयोजित करने के निर्णय ने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की दो परंपराओं के बीच संघर्ष को निर्णायक मोड़ पर ला दिया।

हम जानते हैं, कि आरएसएस और हिंदुत्व की परंपरा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से अलगाव, गद्दारी, समर्पण और उसे सांप्रदायिक  टकराव में बदल देने की रही है।

इसलिए, जब किसानों ने स्वतंत्रता आंदोलन के समर्पणवादी प्रवृत्ति के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष के नायकों को केंद्र में रखकर  गणतंत्र की  दावेदारी ठोक दी, तो सत्ता में बैठे कारपोरेट पूंजी के दलाल और हित-रक्षक चिंतित हो उठे ।

उन्होंने षडयंत्र, टकराव और फूट डालने की ब्रिटिश कालीन अपनी विरासत को किसानों के खिलाफ प्रयोग करने का निर्णय लिया । जिससे सत्ता और किसान आंदोलन के बीच के संबंधों में निर्णायक मोड़ आ गया।

अभी तक भारत का गणतंत्र दिवस सैन्यवादी, सांस्कृतिक वर्चस्ववादी, आत्ममुग्ध, उन्मादी गणतंत्र दिवस समारोह होता था। जो, वास्तव में भारत की मूल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थितियों को अभिव्यक्त करने की जगह एक उन्मादी माहौल बनाने का ही दिवस बन जाता था।

ज्यों ही, किसान आंदोलन ने कृषि उत्पादन के सबसे आधुनिक हथियार ट्रैक्टर की परेड आयोजित करने का फैसला किया, तो सैन्यवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बौखला उठा और उसने एक बहुत ही घिनौने षड्यंत्र की परियोजना तैयार कर ली, जो अपने ही नागरिकों के खिलाफ अघोषित युद्ध की तरह थी । जिसे हमने 26 जनवरी के गणतंत्र दिवस के दिन देखा।

सत्ता प्रायोजित अपराधियों को प्रशासन और पुलिस के सहयोग से लाल किले की तरफ मोड़ा गया और उन्हें इतना अवसर दिया गया, कि वह लाल किले की प्राचीर पर जाकर  धार्मिक झंडा फहरा सकें ।

इसे एक आतंकवादी, भारत-विरोधी और  राष्ट्रीय ध्वज के अपमान के रूप में पेश करने की खतरनाक योजना का अंग बनाया जा सके। इस घटना को आधार बनाकर किसान आंदोलन पर एक भीषण हमला करने का तार्किक आधार तैयार किया जा सके।

अपने पालतू मीडिया द्वारा एक बड़ा उन्मादी, डरावना माहौल पैदा करके इसे अंजाम भी दिया गया। 26 जनवरी की शाम से 27 जनवरी की रात तक जिस तरह  तूफानी किसान-विरोधी प्रचार अभियान संचालित कर किसानों को आतंकवादी, राष्ट्र-विरोधी, अराजक और अपराधी घोषित किया  गया और किसान आंदोलन पर हमले का तार्किक माहौल बनाया गया, उसको हमने गाजीपुर बॉर्डर पर रात के 9:00 बजे से अमल में लाते देखा।

यह तो किसानों की किसी भी विकट परिस्थिति  से डर कर हार न मानने वाली जिजीविषा ही थी, जिसने इतने क्रूर सत्ता द्वारा प्रायोजित हमले को चकनाचूर कर, फिर से आंदोलन में नयी जीवन शक्ति पैदा कर दी।

इस हमले और विकट परिस्थिति से बाहर निकलते ही किसान आंदोलन ने अपने नायकों को अपने आंदोलन में प्रतिष्ठित करना शुरू किया ।

किसान आंदोलन के महानायक संगठित किसान आंदोलन के जन्मदाता स्वामी सहजानंद से शुरू करते हुए बिरसा मुंडा, सिद्धू कानू, तेभागा, तेलंगाना और अनेक-अनेक किसान आंदोलनों के नायक आंदोलन के मंच पर साकार विराजमान हो गये।

आजादी के बाद किसानों के लिए काम करने वाले सर छोटूराम से लेकर महेंद्र सिंह टिकैत सभी एक-एक कर आंदोलन के झंडे पर अपनी जगह बनाने लगे।

यह थी स्वतंत्रता आंदोलन की संपूर्ण मुक्त की समझौताविहीन क्रांतिकारी धारा,  जिसका परचम उठाये आज का किसान आंदोलन आगे बढ़ रहा है।
(अगली कड़ी में जारी)

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