जयप्रकाश नारायण
आठ महीने से किसान दिल्ली की तीन सीमाओं पर और हरियाणा-राजस्थान की सीमा शाहजहांपुर पर डेरा डाल कर बैठे हैं। किसानों ने इस बीच में दृढ़ता, त्याग, सहनशीलता और कष्ट सहने की एक बेमिसाल नजीर कायम की है। आज हमें इस पर विचार करना है कि वह कौन से कारक हैं कि स्वतंत्रता के बाद भारत की सबसे क्रूर गैर लोकतांत्रिक और अमानवीय सरकार के सभी तरह के हथकंडों का मुकाबला करते हुए, किसान कैसे अपने मोर्चे पर डटे हैं!
वह कौन सी ताकत है, जो उन्हें इस सरकार के द्वारा लाये हुए कानूनों का विरोध करने के लिए टिकाये हुए है। हम जानते हैं कि जब ये कानून अध्यादेश के रूप में लाये गये तो उसके पहले मोदी सरकार की एक छवि मीडिया द्वारा भारतीय समाज के सामाजिक राजनीतिक चेतना में बना दी गयी थी, कि यह सरकार कठोर निर्णय ले सकती है, उसे अमल में ला सकती है और अपने लिए गए फैसलों से पीछे नहीं हटती है।
सीमा पर किसान जो बैठे हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा आधुनिक उद्यमी किसानों का है। इसलिए उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार के चाल, चरित्र और चलन को वे न समझते हों।
हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों में मोदी जिस गठबंधन के नेता हैं, उसकी सरकार रही है। इसलिए किसान भाजपा नीत सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से वाकिफ जरूर रहे होंगे।
भारतीय लोकतंत्र के अंतर्गत जिस तरह के नियम, कानून चल रहे थे एक-एक करके करके उन कानूनों को समाप्त करना, बदल देना इस सरकार की अपनी छवि और कार्यनीति रही है। इसलिए यह बात बहुत साफ था कि कोविड-19 के सबसे कठिन समय मेंअगर सरकार कृषि कानून लायी है, तो कानून से पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
तो फिर किसान क्यों इतना बड़ा जोखिम ले पाये! कैसे उन्होंने इस सरकार के सामने खड़े होने की हिम्मत जुटाई! क्रमिक ढंग से इन सवालों को देखना चाहिए।
आजादी के बाद भारत में ब्रिटिश कालीन भूमि व्यवस्था को बदलने की जरूरत थी। स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में , जो किसान आंदोलन के भारत में जन्मदाता महापुरुष थे, एक लंबा संघर्ष चला था ।जमीदारी उन्मूलन और किसानों को भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन में बराबरी की हिस्सेदारी दिलाने की। स्वामी जी द्वारा चलाया गया आंदोलन मूलतः रैयत और गरीब खेत मजदूर किसानों का आन्दोलन था। जो जमीदारी के जुए में पीड़ित थे।
उस आंदोलन के दबाव में आजादी के पहले चरण में ही तत्कालीन सरकारों को भूमि-संबंधों में बदलाव के लिए नियम बनाने पड़े। जिसमे जमीदारी विनाश जैसे कानून थे।
स्वतंत्रता के बाद भारत के विकास की यात्रा आगे बढ़ी 1965 तक आते-आते भारत में एक गंभीर खाद्यान्न संकट खड़ा होगया। खेतिहर समाज अब नए बदलाव के दरवाजे पर खड़ा था । यह संकट इतना गहरा था कि पहली बार 1967 में भारत में राजनीतिक संकट भी दिखने लगा।
भारत के अनाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए मेक्सिको के मॉडल के आधार और अमेरिकी सहयोग से हरित क्रांति की शुरुआत हुई। लेकिन बीस वर्ष गुजरते-गुजरते हरित क्रांति अपना आवेग खो बैठी। कृषि विकास ठहर गया। क्योंकि जिस जमीदारी यानी भूमि मालिकाना केंद्रित कृषि नीति लायी गयी, उसे और आगे चला पाना संभव नहीं था। उत्पादन में ठहराव गतिरोध शुरू हो गया।
इस बीच कृषि उत्पादों के मूल्य और कृषि में निवेश होने वाले औद्योगिक उत्पादों के मूल्य के बीच अंतर बढ़ने लगा ।
परिणाम स्वरूप भारत के हरित क्रांति वाले पट्टी में अंदर-अंदर एक विक्षोभ का वातावरण बनने लगा। उत्तर प्रदेश के सिसौली में भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में यह आंदोलन फूट पड़ा। पंजाब किसान यूनियन के नेता भूपेंद्र मान, महाराष्ट्र किसान संगठनों के नेता शरद जोशी और कर्नाटक में नाजुंडा स्वामी के नेतृत्व में किसान आंदोलनों की लहरें दिखने लगी ।
बड़े-बड़े प्रदर्शन, धरने और मोर्चे शुरू हो गए। उत्तर प्रदेश के पश्चिमांचल में मेरठ और दिल्ली के वोट क्लब पर भारतीय किसान यूनियन का मोर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव बना बैठा ।
यहीं से आजादी के दौर के किसान आंदोलन के ठीक विपरीत एक नए तरह के किसान आंदोलन का भारत में प्रादुर्भाव हुआ । जिसमें दो धाराएं स्पष्ट थी।
पहली धारा दक्षिण भारत में शरद जोशी के नेतृत्व में जो किसान आंदोलन चल रहा था, उसकी मांग थी कि किसानों के उत्पाद का लाभकारी मूल्य दिया जाए और खेती को उद्योग का दर्जा दिया जाए। दूसरा जो उत्तर प्रदेश में आक्रामक किसान आंदोलन चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चल रहा था, उसनेे अपनी मांगों को सूत्रबद्ध किया कि कृषि में लागत मूल्य को घटाया जाए यानी खेती में जो निवेश होता है, बीज खाद, ट्रैक्टर, पानी, बिजली ऐसी चीजों का मूल्य कम किया जाए और खेती की लागत घटाई जाए ।
स्पष्टतः किसान आंदोलन में दो दिशाएं साफ-साफ उभर कर आ गई। भारतीय राज्य धीरे-धीरे संकटग्रस्त हो चुका था । उसमें इस संकट को हल करने की आंतरिक क्षमता नहीं रह गई थी ।
इस परिदृश्य में नब्बे के दशक की शुरुआत में संकट से मुक्ति पाने के लिए उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की नीतियों के साथ सुधारों की एक नई श्रृंखला सामने आयी। यहां से 1947 के बाद का भारत एक नए यात्रा पर निकल पड़ा, जिसे नेहरू के बाद का भारत कहा जाने लगा और इस उत्तर नेहरू भारत को लाने का श्रेय किसी और को नहीं, स्वयं कांग्रेस की नरसिंहाराव, मनमोहन सिंह की सरकार को जाता हैं।
वैश्विक परिदृश्य बदल चुका था । सोवियत संघ के बिखराव के साथ विश्व पूंजीवाद ने अमेरिका के नेतृत्व में अपने विजय की घोषणा कर दी थी। उस घोषणा का सार तत्व था, अब बाजार ही दुनिया के भविष्य का फैसला करेगा। पूंजी को वैश्विक भ्रमण और निर्बंध होकर दुनिया के बाजारों पर अपना कब्जा और नियंत्रण तथा संचालन करने की आजादी चाहिए।
साम्राज्यवादी सरकारें अब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व में दुनिया में एक नई अर्थव्यवस्था यानी एक नई वैश्विक व्यवस्था के निर्माण की दिशा में आगे कदम बढ़ा दी।
जिसमें बाजार ही सब कुछ है। मनुष्य के जीवन की सारी गतिविधियों का नियमन, संचालन बाजार की ताकतों के हाथ में होगा और इसकी केंद्रीय अंतर्वस्तु पूंजी की सार्वभौम सत्ता का निर्माण होगा; यहां से भारत सहित दुनिया आगे बढ़ा। लेकिन विश्वविजय की यह खुशफहमी ज्यादा दिन तक नहीं चल सकी।
21वीं सदी के पहले ही दशक में दुनिया को एक नया नजारा देखना था और जो विश्वविजय की घोषणा कर रहे थे, इतिहास के अंत की डींग हांक रहे थे और उद्दंडता के साथ घोषणा कर रहे थे कि अब समानता, स्वतंत्रता, बराबरी का कोई समाज नहीं बनाया जा सकता । पूंजी ही उद्धारक है, पूंजी ही संचालन करता है, पूंजी ही सर्वशक्तिमान है। बहुत शीघ्र ही उनका अहंकार भरा दंभ धराशाई हो गया। और दुनिया एक बड़े न हल होने वाली महामंदी के दायरे में आ गई ।
यह संयोग ही कहा जाएगा कि इस दौर में भी मनमोहन सिंह को ही भारत का नेतृत्व करना था और अंतरराष्ट्रीय मंदी से भारत को निकालने का काम मनमोहन सिंह के कंधे पर आ गया।
स्पष्ट है दुनिया दाहिनी तरफ मुड़ चुकी थी अब उदारवादी धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक राज्य की जगह एक अंधराष्ट्रवादी, बाजारवादी राज्य, जो सामाजिक कल्याण से मुक्त और कारपोरेट पूंजी के हितों के लिए भारत सहित दुनिया को नए तरह से समायोजित करने का काम अपने हाथ में लेगा और ऐसे ही राज्य को आगे भारत की अगुआई करना था।
यह बहुत साफ हो गया है कि उपनिवेशोत्तर विश्व में जिस राष्ट्र-राज्य का निर्माण हुआ था, वह अब टिकने वाला नहीं है। नब्बे के बाद जो वैश्विक परिवर्तन हुआ है, उसमें मूलतः राष्ट्र राज्य के बुनियादी, चरित्र को ही बदल दिया है। यह राष्ट्र-राज्य अब कारपोरेट पूंजी के नग्न नियंत्रण में आगे बढ़ेगा और इसके अंदर लोकतांत्रिक संस्थानों और नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों से लेकर, राष्ट्र की सार्वभौमिकता के प्रति कोई सम्मान नहीं होगा। यानी, पुराना समझौता और समायोजन जो राष्ट्र-राज्य के दायरे में था, अब चलने वाला नहीं था ।
आज हम भारत के पूर्णतया एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राज्य से एक अर्ध स्वतंत्र राष्ट्र की तरफ बढ़ती हुई यात्रा को इन्हीं अर्थों में समझ सकते हैं।
(इस आलेख की अगली कड़ी में किसान आंदोलन और भारत में उठ रहे आंदोलन की लहरों को इसी परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश होगी)