बृजराज सिंह
गौरी लंकेश की हत्या को आज एक साल हो गया। आज देश शिक्षक दिवस भी मना रहा है। गौरी का काम भी एक शिक्षक की ही तरह का था। वे भी एक शिक्षित, वैज्ञानिक और प्रगतिशील समाज निर्माण में लगी थीं। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हम एक तरफ शिक्षक दिवस मना रहे हैं, तो दूसरी तरफ गौरी लंकेश की वर्षी भी मना रहे हैं।
गौरी लंकेश की हत्या में छद्म संगठन की आड़ ली गयी, लेकिन अब और खुल कर आना पड़ रहा है। बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी को उसी कड़ी में देखना चाहिए। कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या ने कई नए सवालों को जन्म दिया था। वे मर कर भी जीवित हैं और उनको मारने वाले जीवित होकर भी मृतप्राय हैं। उनकी हत्या में शामिल लोग शायद यह सोचते होंगे कि मरने के बाद लोग उन्हें भूल जाएंगे, लेकिन वे भारी मुगालते में हैं। उनके मरने के बाद उनकी बातें और भी तेजी से लोगों के बीच फैल रही हैं।
विचार को जितना दबाया जाता है, वह उतना ही उभरता चला जाता है। अपनी मृत्यु के पहले वे सिर्फ कन्नड़ की पत्रकार थीं, लेकिन अब उनका लिखा हिन्दी सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद के सहारे पढ़ा जा रहा है। वे बहुत छोटी पत्रिका का सम्पादन करती थीं। वे हिन्दुत्ववाद, बहुसंख्यकवाद, कट्टरवाद और असहिष्णुता के खिलाफ लगातार लिखती थीं। राणा अयूब की पुस्तक ‘गुजरात फाइल’ का अनुवाद कर कन्नड़ में प्रकाशित करना भी उनकी हत्या की एक वजह बनी।
गौरी लंकेश जिस विचारधारा को मानती थीं, उसमें बलिदान की लंबी परंपरा है। दुनिया भर में हज़ारों-लाखों लोग शहीद हुए हैं। फिर भी दुनियाभर में विचारधारा और प्रतिबद्धता के नाम पर पहली छवि ऐसे लोगों की ही बनती है। जो अधर्म, अन्धविश्वास, सत्ता और फासीवाद से लड़ते हैं, जान हथेली पर लेकर चलते हैं।
देश में दक्षिणपंथ के उभार के साथ ही कई ऐसे लोग जो सांप्रदायिकता, फासीवाद, फिरकापरस्ती, धार्मिक कट्टरता, धार्मिक अंधविश्वास आदि का विरोध करते थे तथा भाईचारे, सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन करते थे, उनकी सांगठनिक हत्या करायी गयी है। और यह लगभग तय हो चुका है कि इन हत्याओं में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठन एवं उनके लोग शामिल थे। यह भी याद रहे कि यह किसी एक व्यक्ति या कार्यकर्ता द्वारा आवेश में लिया गया फैसला नहीं था; बल्कि सांगठनिक और शीर्ष नेतृत्व द्वारा सुनियोजित ढंग से बनाई गयी योजना थी। इसीलिए हत्या को जायज ठहराने का उपक्रम भी सांगठनिक और सुनियोजित तरीके और पूरी ‘मशीनरी’ के साथ किया जा रहा है।
हत्याएं नई नहीं हैं, पहले भी हुई हैं, आगे भी होंगी ही। सुकरात से लेकर गांधी और अब गौरी तक लंबी ऐतिहासिक परंपरा रही है, जिन्होंने सत्य के लिए, न्याय के लिए अपने जान की कुर्बानी दी है। इस देश में राष्ट्रवाद के नाम पर उस गाँधी की भी हत्या की गयी, जिसने भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप दिया। यह भी कोई रहस्य नहीं रह गया है कि गाँधी की हत्या में कौन लोग शामिल थे। जो गाँधी की हत्या में शामिल थे वही लोग पानसरे, दाभोलकर, कालबुर्गी और लंकेश की हत्या में भी शामिल हैं। हत्याएं उनका पेशा भी है और शगल भी। लेकिन इधर जो नई चीज देखने में आई है, वह है इन हत्याओं पर जश्न मनाने की परंपरा का विकास। ऐसा पहले नहीं था। हत्या पर जश्न मनाना, देश का नया विकास है। यह दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादियों की बहुत बड़ी और ऐतिहासिक उपलब्धि है। जिस तरह से लंकेश का चारित्रिक हनन सोशल मीडिया पर किया गया, वह बेहद चिंताजनक बात थी।
यह व्यक्ति की व्यक्ति द्वारा हत्या नहीं थी, न ही व्यक्ति द्वारा विचार की या न ही विचार द्वारा व्यक्ति की, बल्कि यह विचार द्वारा विचार की हत्या थी। आखिर विचारों से डर किसको लगता है ? विरोधी विचारवालों का कत्ल कर देने, उन्हें मिटा देना, यही तो तालिबानीकरण है। धर्म के नाम पर लोगों में नफरत पैदा करना, धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देना। न्याय, आज़ादी, बराबरी, हक-हकूक,
मूलभूत जरूरतों की बात करने वालों को देशद्रोही एवं विधर्मी बताना, दक्षिणपंथी ताकतों की मुख्य प्रवृत्ति रही है। पिछले दो तीन सालों में यह बहुत बढ़ गया है। तो क्या भारत तालिबान होने जा रहा है ? क्या न्यू इण्डिया, तालिबानी इण्डिया होगा ? शायद हाँ, आसार तो इसी के दिख रहे हैं। जिनके कंधों पर आज देश है, वे इसे तालिबान क्यों बनाना चाहते हैं। शायद उनके सपनों का भारत भी तालिबान से अलग नहीं है। कहाँ से इतनी नफरत भरते हैं, किसी युवा के मन में कि जिसे वह ठीक से जानता तक नहीं और पहचानता तक नहीं, उसकी हत्या करने की ठान लेता है, नहीं तो उसकी हत्या पर मिठाइयाँ बांटने लगता है। और कुछ नही तो उस हत्या को जायज ठहराने के कई कारण खोज लाता है। एक खास तरह के अतिवाद और कट्टरता का विरोध करते करते, एक नये तरह का अतिवाद और कट्टरता क्यों परोसी जा रही है। विविधता को नष्ट कर एकरूपता थोपने की कोशिश क्यों की जा रही है ? सबको जबरदस्ती एक रंग में क्यों रंगा जा रहा है ? सरकारें अपनी आलोचना बर्दाश्त क्यों नहीं कर पा रही हैं।
संविधान द्वारा व्यक्ति को प्राप्त अधिकार सरकारों की आँख का रोड़ा क्यों बने हुए हैं ? पत्रकार, साहित्यकार सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना नहीं करेगा तो क्या करेगा। वह अन्धविश्वास, कट्टरता, बहुसंख्यकवाद और फासीवाद का विरोध नहीं करेगा तो क्या करेगा। तो क्या इनका समर्थन करना उसकी नैतिकता कही जाएगी। क्या उसका काम भजन लिखना या कशीदे गढ़ना ही है। सवाल उठाना उसका काम है, और पेशागत नैतिकता भी।
सवालों से डर किन्हें लगता होगा ? जो कोई भी सही और ईमानदारी से अपना काम कर रहा होगा, निश्चित ही वह सवालों से नहीं डरेगा। यदि उसमें ज़रा भी नैतिक बल होगा तो वह इन सवालों का सम्मान करेगा। लोकतंत्र में सवालों का अपना ही महत्व होता है। धर्म आधारित व्यवस्था में सवाल पूछना जुर्म माना जाता है। जो डर रहा है, जो आवाज को दबाना चाहता है या जो विरोध नहीं सह सकता है, निश्चित रूप से वह बेईमान है। बेईमान वह अपने सार्वजनिक जीवन और जिम्मेदारियों में तो है ही, आत्मा के स्तर पर भी वह बेहद बेईमान है। उसमें लोकतंत्र के प्रति लेश मात्र भी सम्मान नहीं है।
हालाँकि यह मातम मनाने का वक्त नहीं है। लंकेश के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम लंकेश की मुहिम को आगे बढ़ाएँ। ‘फेक न्यूज फैक्ट्री’ के षड़यंत्र को लगातार बेनकाब करते रहें। तार्किकता, वैज्ञानिकता, समाजवाद, लोकतंत्र, भाईचारे के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करते रहें। लंकेश को अपने विचारों में जिंदा रखें।
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