शैलेन्द्र शांत
“नयी शुरुआत’ साठ पार कवि कौशल किशोर की कविता की दूसरी किताब है । सांस्कृतिक , सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहे कौशल किशोर के इस संग्रह में 1969 से 1976 तक की कवितायें शामिल हैं. यानी कांग्रेसी शासन से मोहभंग की शुरुआत के बाद नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से लेकर आपातकाल तक की.
कवि अपने वक्तव्य में खुद कहते हैं कि -‘बहुत कच्चापन मिलेगा इनमें ‘. साथ ही यह भी कि – ‘पर यह कवि के बनने का दौर है ‘ . आगे यह कि ‘ वैसे बनना,संवरना और सीखना तो सारी जिंदगी है…’ !
कवि यह बयान भी दर्ज करता है कि ‘ मैं लेखन और कर्म के स्तर पर जीना चाहता हूं ‘ . इन ईमानदार स्वीकृतियों की गवाही संग्रह की कविताएँ देती हैं . साथ ही समयकाल की समझ और बेहतरी के सपने की उम्मीद की चाह के साथ चहलकदमी कराती हुई भी.
संग्रह की पहली कविता ” मोर्चे की ओर ” को देखिए –
आओ
दे दें अपनी कविताएँ
उनके हाथों में
जिनके लिये सही अर्थो में
कवितायें होनी चाहिये
….
किनके हाथों में ? कविता के आखिरी पदांश में वह इशारा कर देता है –
श्रम नहीं बिकेगा
कोठियों के हाथों
नहीं रहेगा गुलाम
जोतदारों की ड्योढियों में
वह स्वतंत्र हो
पूंजी के महल को
नेस्तनाबूद कर
करेगा नव सृजन
बनायेगा नई दुनिया ।
“दिशावाहक” में 1970 में प्रकाशित यह कविता स्पष्ट रूप से मजदूर-किसानों को सम्बोधित है ।
“मैं ” कविता में उनके साहस और जिजीविषा की ओर भी ध्यान खींचता है कवि –
जी हां, मैं भूख नहीं
भूख का इलाज हूं
मैं बीमारी नहीं
बीमार का डाक्टर हूं
मैं विकट परिस्थितियों से हार कर
भाग कर
आत्महत्या का निष्कर्ष नहीं हूं
जो लोग पूरी दुनिया में
भूख , बीमारी
और आत्महत्या का सौदा करते हैं
उन्हीं के खिलाफ एक आवाज हूं मैं
इंकलाब हूं मैं
इसी कविता में आगे की पंक्तियां हैं –
मैं युद्ध करता हूं
हरवा-हथियारों से
हंसिया -हथौड़ो से
खुरपी-कुदालों से
लाठी -भालों से
मैटल-हैमरों से
….
मैं युद्ध करता रहूंगा
मैं जंग लड़ता रहूंगा
जारी है, जारी रहेगी यह जंग
रात के खिलाफ नई सुबह होने तक ।
इस तरह की कई कवितायें है इस संग्रह में , जिनमें समकालीन जीवन के असंतोष और विसंगतियों की झलक मिलती है .
इसमें 1974 में हुई रेल हड़ताल पर कविता है तो पटना में छात्रों पर गोली चालन पर भी. आमुख कविता ” नई शुरुआत ” में इसको समर्थन है.
दादी सुना नहीं तुमने
बाबूजी हड़ताल पर हैं
कंधे पर यूनियन का लाल झंडा लिये
गढ़हरा की रेल कालोनियों में घूमते होंगे आजकल
क्वार्टरों से बेदखल करने हेतु भेजी गई पुलिस लारियो में
अम्मा को भी कैद कर भेजा गया होगा
बहन पूनम और छुटकी भी
जुलूस में शामिल हो नारे लगाती होगी
दादी सुना नहीं तुमने
बाबूजी हड़ताल पर हैं….
इसी कविता में नक्सलबाड़ी, तेलंगाना को भी याद कर लेता है कवि । एक तरह से अपनी कतार का संकेत देते हुये कवि लिखता है –
दादी, तुम इस हकीकत से भी
अनभिज्ञ हो कि
अँगीठी पर चढ़े बरतन में
खौलते अदहन की तरह
अपने गांव की झोपड़ियों का
अंतर्मन उबल रहा है
कि हर हल और जुआठ
नाधा और पगहा
भूख की आग में जल रहा है
वह आग
जो नक्सलबाड़ी में
चिंगारी बन कर उभरी थी
वह आग
जो श्रीकाकुलम के पहाडों से
ज्वालामुखी की तरह फूटी थी
जिसके अग्निपुंज
तेलंगाना की पटरियों पर सरपट दौड़े थे
….
इस जैसी कई तल्ख कवितायें हैं इस संग्रह में । “आदमी से आदमी तक” , “मौन रहने दो” , “लाशों का विनिमय” , “बाबू जी के सपने” , “गरीबी हटाओ, समाजवाद लाओ” , “स्वप्न अभी अधूरा है” , “अंधकार और अंधकार” , “यहां रंग बहुत फीका है” आदि ।
कुछ कोमल कवितायें भी हैं , जैसे , “कविता” शीर्षक वाली यह कविता –
दाना चुगती गौरैया
फुदकती हुई
पहुँच जाती है छत की मुंडेरों पर
जैसे पतंग उड़ाते बच्चे
…
छत के किनारे तक
हम चिल्ला उठते हैं
और गौरैया फुर्र से उड़ जाती है
…
हवा में आदमी को
आदमी से जोड़ती हुई ।
इसी तरह की एक प्यारी कविता “बच्चे” है
बच्चे अच्छे होते हैं
इसीलिये कि वे सबसे सच्चे होते हैं
…
और यह आगाह करती कविता “एक दिन” भी थोड़ा रोकती -टोकती है –
एक दिन
किताबें खुली होंगी
हम बैठे होंगे उसके पास
एक दिन
बहुत कुछ घटित हो रहा होगा
…
और जुबान सिली होगी
…
इससे पहले कि
वह दिन आ जाये
हम भी कर लें अपने को तैयार ।
कहते हैं कि सजग रचनाकार भविष्यद्रष्टा भी होता है । कवि के ही शब्दों में :
‘वे दर्ज होंगे इतिहास में
पर मिलेंगे हमेशा वर्तमान में
लड़ते हुए
और यह कहते हुए कि
स्वप्न अभी अधूरा है।’
इस किताब में दर्ज आशंकाएं आज की हकीकत हैं और अधूरे स्वप्न को पूरा करने का संघर्ष आज भी जारी है. बहरहाल, छोटी -लम्बी कुल 46 कवितायें है इसमें. इसे छापा है बोधि प्रकाशन ने । मूल्य है 120 रुपये ।