भगत सिंह व पाश की वैचारिक रोशनी में हमें आगे बढ़ाना है – वन्दना मिश्र
लखनऊ। जन संस्कृति मंच और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की ओर से जाने माने कवि व लेखक कौशल किशोर की हाल में प्रकाशित किताब ‘भगत सिंह और पाश: अंधियारे का उजाला’ का विमोचन और परिचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम इप्टा दफ्तर, कैसरबाग के प्रांगण में हुआ जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट वन्दना मिश्र ने किया। इस मौके पर उन्होंने भगत सिंह व उनके साथियों के साथ पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश की शहादत को याद किया और कहा कि भगत सिंह और पाश इस अंधेरे का उजाला है। उनकी वैचारिक रोशनी में हमें आगे बढ़ाना है।
कौशल किशोर की किताब पर बोलते हुए वन्दना मिश्र ने कहा कि इसमें व्यापकता है। हिन्दी से इतर तेलुगू और पंजाबी साहित्यकारों पर इसमें चर्चा है। यहां ‘कविता कविता के लिए’ वाले रचनाकार नहीं हैं बल्कि ऐसे लेखक हैं जो लेखन के साथ चिंतन करते थे तथा जनता के बीच भी जाते थे। किताब में मोहन थपलियाल पर भी लेख होना चाहिए था और सर्वेश्वर पर भी क्यों कि इनके साथ कौशल जी का सांगठनिक और वैचारिक जुड़ाव रहा है। आज हम जिस समय में हैं, वह संकट का है। उसमें हमारा रास्ता क्या होगा? हमें कैसे यह लड़ाई जारी रखनी होगी? कौशल किशोर अपनी किताब में इन प्रश्नों से रुबरु हैं।
प्रोफेसर रमेश दीक्षित का कहना था कि कौशल किशोर की यह किताब अतीत की यात्रा है। भगत सिंह उग्रवाद के समर्थक नहीं थे बल्कि उनका विश्वास व्यापक आन्दोलन में था। गांधी की यह बड़ी भूमिका थी कि उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन को जनांदोलन में बदला। इसमें भगत सिंह और पाश के बहाने अपेक्षाकृत युवा साथियों गोरख पाण्डेय, मंगलेश डबराल, पंकज सिंह, वीरेन डंगवाल, अनिल सिन्हा, सईद शेख आदि की चर्चा है। यह सत्तर के दशक के सपने को सामने लाती है जिसे ‘वसंत के बज्रनाद’ से जाना जाता है। उस समय वामपंथ की कई धाराएं थीं। उनके बीच तीखा वाद-विवाद होता था। आपस में अहमतियां भी थीं। आज तो असहमतियों की गुंजाइश नहीं है। लोकतांत्रिक स्पेस खत्म हो गया है।
प्रो सूरज बहादुर थापा ने केदारनाथ सिंह की कविता से अपनी बात की शुरुआत की और कहा कि भगत सिंह धमाका करना चाहते थे। क्या वह आतंक व हिंसा करना चाहते थे? नहीं, उनका धमाका अन्यायियों को न्याय की आवाज सुनाने के लिए था। साहित्यकार भी अपनी अभिव्यक्ति के द्वारा ऐसा ही करते हैं। आपके लेखन में संघर्ष और स्वप्न नहीं है तो वह किसी काम का नहीं है। भगत सिंह राजनीति में जो संघर्ष करते हैं वही पाश साहित्य की दुनिया में करते हैं। दोनों मिल जाते हैं तो यह राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप लेता है। आज इसकी जरूरत है। आज विश्वविद्यालयों में प्रगतिशील व जुझारू रचनाकारों की चर्चा नहीं होती। कौशल किशोर ऐसे ही लोगों की चर्चा करते हैं। इसमें आजादी के बाद से आज तक की सत्ता, व्यवस्था और छलावों से भरी भारतीय सामाजिकता की पड़ताल है।
कवि-उपन्यासकार शैलेश पंडित ने कहा कि भगत सिंह और पाश हमारी लड़ाई के दो ऐसे योद्धा हैं, जिन्होंने अपनी शहादत से राजनीति और संस्कृति की दुनिया में नया रंग भरते हैं। भगत सिंह जहां राजनीतिक सरोकारों के पहरुआ रहे हैं, वहीं पाश हमारी सांस्कृतिक चेतना के संवाहक हैं। पाश भगत सिंह की विरासत लेकर आगे बढ़े थे और अपनी विरासत हमारे लिए छोड़ गए। भगत सिंह की विरासत की रोशनी में इस देश के अलग-अलग हिस्सों में समय-समय पर जन आंदोलन हुए। कौशल किशोर इन आंदोलनों में रचनाकार की हिस्सेदारी दर्ज करते हैं। इस संबंध में वे फ़ैज़ व लू शुन के संघर्ष को याद करते हैं। तेलुगु कवि श्री श्री व चेराबण्डा राजु पर उनकी नजर जाती है। इसके साथ अदम गोंडवी, गोरख पाण्डेय, सफदर हाशमी, मुद्राराक्षस, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, अनिल सिन्हा, गुरशरण सिंह आदि के संघर्ष के माध्यम से उनके साथ की यादों को साझा करते हैं। कौशल किशोर का जोर इस बात पर है कि इनका संघर्ष मौजूदा खतरनाक समय में राह दिखाता है और संघर्ष करने की ऊर्जा देता है।
उर्दू लेखक, अनुवादक व इतिहासकार असगर मेहदी ने परिचर्चा का आरम्भ किया। उन्होंने पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के बढ़ते संकट से अपनी बात की शुरुआत की तथा ‘भगत सिंह और पाश के राजनीतिक योगदान तथा उन्हें याद करने क्या मतलब है, इस पर बात रखी। किताब के लेखों की विस्तार में व्याख्या करते हुए कहा कि रौशनी और अँधियारा सिर्फ दो अल्फ़ाज़ नहीं हैं बल्कि मानसिक स्थितियाँ हैं और हमारे दृष्टिकोण को बयान करने की अनेक सूरतें में से हैं। रौशनी जिंदगी के मुसबत अक़दार (सकारात्मक मूल्यों) की अलामत है और तारीकी मनफी अक़दार पर जिंदगी गुज़ारने, सड़ी-गली रवायत से चिपके रहने, माज़ी की मज़ारों पर सजदा करने का भी नाम है। रौशनी हक़ की तलाश और तलब की रह हमवार करती है। अंधेरा हक़ को क़ुबूल ना करने की जिद और दलील आधारित ज्ञान से दुश्मनी रखने का नाम है। कौशल किशोर की यह रचना अँधियारे और उजाले के संदर्भ में बात करकेे रौशनी की ओर बढ़ने की दावत देती है, “अँधेरा तो बुज़दिल होता है, रौशनी की तरफ़ बढ़ने के लिये बस थोड़ा सा साहस चाहिए।”
कार्यक्रम का संचालन उर्दू की शायरा तस्वीर नकवी ने किया। उन्होंने कहा कि 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर की जेल में फांसी दी गई थी। 23 मार्च 1988 को खालिस्तानी समर्थकों ने पाश की हत्या की थी। पाश पंजाब के एक क्रांतिकारी कवि थे। उनकी कविताओं में सामंतों के प्रति ज़बरदस्त ग़ुस्सा और अवाम के प्रति ज़बरदस्त प्यार है। ‘हम लड़ेंगे साथी’ उनकी मशहूर नज़्म है। कौशल किशोर जी ने बहुत प्यारे अंदाज़ में किताब के शुरू के तीन अध्याय इन दोनो पर ही लिखे हैं। किताब में बहुत ही ख़ास जानकारियां हैं। सब से अच्छी बात है कि इनमें अनेक रचनाकारों के सांस्कृतिक कर्म के साथ कौशल जी की निजी दोस्ती के क़िस्से हैं।
आरंभ में जसम लखनऊ के सचिव फरजाना महदी ने सभी का स्वागत किया। अंत में इप्टा के प्रदेश महासचिव शहजाद रिजवी ने सभी का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर लेनिन पुस्तक केंद्र का बुक स्टॉल भी लगाया गया था। कार्यक्रम में ‘मुक्तिचक्र’ के संपादक गोपाल गोयल ;बांदाद्धए कवि व लेखक कृष्ण कल्पित ;राजस्थानद्ध, शकील सिद्दीकी, नवीन जोशी, नागेन्द्र, वीरेन्द्र सारंग, भगवान स्वरूप कटियार, अशोक श्रीवास्तव, रामकिशोर, रफत फातिमा, विमल किशोर, अवन्तिका सिंह, कल्पना पाण्डेय, कांति मिश्रा, बबीता सिंह, पल्लवी मिश्रा, श्वेता राय, अशोक वर्मा, हेमंत कुमार, अजीत पिंयदर्शी, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, अरुण सिंह, दीपक कबीर, अनूप मणि त्रिपाठी, धर्मेंद्र कुमार, कलीम खान, राकेश कुमार सैनी, अरविन्द कुमार, शांतम निधि, के के शुक्ल, वीरेन्द्र त्रिपाठी, नूर आलम, प्रो ए जजे अंसारी, श्याम कुमार, नरेश कुमार, मो शबीर आलम, फरीद अहमद, रमेश सिंह सेंगर, राजीव गुप्ता, उदयनाथ सिंह, मो आरिफ, अनिल कुमार आदि लेखकों, सामजिक कार्यकर्ताओं व बौद्धिकों के साथ बड़ी संख्या में छात्र-नौजवान शामिल हुए।
फरजाना महदी, सचिव, जन संस्कृति मंच लखनऊ