रमज़ान संघर्ष विराम पीडीपी-बीजेपी सरकार के कार्यकाल में आई पहली अच्छी खबर थी। अफ़सोस, यही आख़िरी साबित हुई।
क्या इसके बाद बेहद बुरी खबरों का नया दौर शुरू होगा ? इस आशंका की कुछ ठोस वजहें हैं।
संघर्ष विराम और सरकार का पतन
गंठबंधन तोड़कर बीजेपी ने अपनी ही सरकार गिरा दी है। बीजेपी प्रवक्ता राम माधव ने ऐसा करने के दो बड़े कारण बताए। पहली आतंकवाद को नियंत्रित करने में महबूबा मुफ़्ती सरकार की विफलता। दूसरी जम्मू और लद्दाख की उपेक्षा।
यह एक अजीबोग़रीब सफाई है। राम माधव किसी बाहरी व्यक्ति की तरह सरकार की आलोचना करते नज़र आए, जबकि वे खुद सरकार में हिस्सेदार थे। अगर सरकार विफल रही तो इस विफलता में उनका भी हिस्सा होना चाहिए।
सच्चाई यह है कि जैसे ही सफलता की हल्की सी उम्मीद नज़र आने लगी ,वैसे ही सरकार गिरा दी गई। कश्मीर की शांतिप्रिय जनता ने संघर्ष विराम का स्वागत किया था। लंबे अरसे बाद रोज़मर्रे की ज़िंदगी में लोगों को कुछ राहत महसूस हुई थी।
द वायर में छपी एक रपट में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के हवाले से बताया गया है कि रमज़ान के महीने में हिंसा की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई।
रमज़ान के बिल्कुल आख़िरी दिनों में हिंसा अचानक बढ़ी। प्रतिष्ठित पत्रकार शुजात बुखारी और सैनिक औरंगज़ेब की हत्या ने माहौल को अकस्मात ख़राब कर दिया। किसी भी आतंकी गुट ने इन हत्याओं की जिम्मेदारी नहीं ली।
आतंकी गुट ऐसी हिंसक घटनाओं की जिम्मेदारी लेने के लिए तत्पर रहते हैं। कई बार तो वे झूठे दावे करने से भी नहीं हिचकते। आख़िर इन्ही ‘दावों’ से उनकी दुकान चलती है। फिर इतनी भारी भरकम हत्याओं की जिम्मेदारी लेने से वे क्यों हिचक रहे हैं ?
कारण एक ही हो सकता है। कश्मीर की अवाम के मन में इन हत्याओं के ख़िलाफ़ ग़मोग़ुस्सा है। शुजात बुखारी की शवयात्रा में उमड़ी भीड़ ख़ुद इस ग़ुस्से की गवाही दे रही थी।
यह संघर्ष विराम की उपलब्धि है। वास्तविक न सही, इसका सांकेतिक महत्व जरूर है।
पिछले वर्षों में हमलों और मुठभेड़ों के दौरान आतंकियों की हिफाज़त के लिए शहरी नौजवानों के द्वारा की जानेवाली पत्थरबाजी की घटनाओं में तेजी आई है। औरंगज़ेब और बुख़ारी की शहादत के बाद पहली बार यह ट्रेंड बदलता दिखा।
अलगाववादी कैम्प भी संघर्ष विराम के दबाव में है। हुर्रियत नेताओं ने भले ही संघर्ष विराम को ‘ क्रूर मज़ाक ’ करार दिया हो, इसी दौरान राजनाथ सिंह द्वारा बातचीत के नए न्यौते को ठुकराया नहीं।
उन्होंने बातचीत में शामिल होने की इच्छा जताई, लेकिन कहा कि सरकार को किसी साफ सुथरे प्रस्ताव के साथ आना चाहिए। बातचीत के न्यौते पर बीजेपी नेताओं की तरफ से आ रहे परस्पर विरोधी बयानों की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि सरकार को एक स्वर में बोलना चाहिए।
सन दो हज़ार चार और पांच में केंद्र के साथ अलगाववादियों की बातचीत के दो दौर हुए थे। वह बातचीत एक स्पष्ट फ्रेमवर्क और फ़ोकस के साथ हुई थी। हुर्रियत नेताओं की शिकायत है कि इस बार ऐसी कोई तैयारी नहीं दिख रही।
बातचीत की गुंजाइश का पैदा होना ही एक ब्रेक-थ्रू है, जिसे गंवाया नहीं जाना चाहिए था। लेकिन सरकार के पतन ने इस गुंजाइश पर फिलहाल पूर्ण विराम लगा दिया है।
भारतीय गोदी मीडिया ने यह खबर भी दबा ली कि हुर्रियत ने खीरभवानी के मेले के चलते शुजात बुख़ारी और अन्य नागरिकों की हत्याओं के विरोध में आहूत कश्मीर बन्द एक दिन के लिए स्थगित कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने कश्मीरी पंडितों को कश्मीरी समाज का अभिन्न हिस्सा बताते हुए उनसे अपने अपने घरों को लौट आने की अपील भी की।
कहना न होगा कि मेल मिलाप की भावना से भरे हुए ऐसे बयान भी संघर्ष विराम के कारण बने सद्भावना के वातावरण की ही देन हैं।
रमज़ान के अखीर में हिंसा में अचानक आई तेजी उन तत्वों की करतूत हो सकती है, जो कश्मीर में तनाव कम होते नहीं देखना चाहते ।
उन तत्वों के नापाक मंसूबों को शिकस्त देने का सबसे अच्छा तरीका है संघर्ष विराम को आगे बढ़ाना। पीडीपी समेत सभी अलगावविरोधी पार्टियां यही चाहती थीं।
लेकिन बीजेपी को यह मंजूर नहीं हुआ। संघर्ष विराम ख़त्म करने के लिए वह अपनी ही सरकार गिराने को तैयार हो गई। भला क्यों?
असफलता और सरकार के अंतर्विरोध
बीजेपी के सभी क्रियाकलाप इस समय उन्नीस के चुनावों की जरूरतों से निर्देशित हो रहे हैं। सरकार गिराना भी इसी की एक कड़ी है। कश्मीर एनडीए सरकार का सबसे विफल मोर्चा है।
केंद्र में विदेश मंत्री और वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिंहा के नेतृत्व में सरोकारी नागरिकों के एक समूह ने इस बीच कश्मीर की अनेक यात्राएं की हैं। कश्मीर के विभिन्न समुदायों से व्यापक बातचीत करते हुए उन्होंने समय समय पर अपनी रिपोर्टें जारी की हैं।
इन रिपोर्टों से पता चलता है कि कश्मीर में अलगाववाद की भावना इस समय अपने चरम पर है। सीमा पर चल रही मुठभेड़ों में मारे जानेवालों की संख्या में अभूतपूर्व बढोत्तरी हुई है।
उनकी ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि सन दो हज़ार अठारह के जनवरी महीने में ही सीमा पर हुई मुठभेड़ों में इतने भारतीय नागरिक मारे जा चुके हैं कि जितने सन सत्रह के पूरे साल में मारे गए थे। सन सत्रह खुद एक बुरा साल था, क्योंकि इस साल सीमा पर मरने वालों की तादात सन पन्द्रह की तुलना में छह गुना अधिक थी।
इसी तरह आतंकी हमलों और उनमें मारे जानेवाले सैनिकों और नागरिकों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है।
यह सब सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबन्दी और सशस्त्र लड़ाकों के ख़िलाफ़ सेना के लगातार जारी सफाया अभियान के बावजूद हो रहा है। सैकड़ों सक्रिय लड़ाके मारे गए हैं, लेकिन आतंकी समूहों में नए आ रहे रंगरूटों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। सेना की कार्रवाइयों का नागरिक समुदायों द्वारा विरोध भी बढ़ा है।
यह चौतरफा असफलता पीडीपी बीजेपी सरकार के अंतर्विरोध का परिणाम है। दोनों धुर विरोधी पार्टियों ने जब मिलकर सरकार बनाई तब यह उम्मीद पैदा हुई थी कि कश्मीर घाटी औऱ जम्मू के बीच बढ़ते साम्प्रदायिक और राजनीतिक विभाजन की रोकथाम हो सकेगी। उम्मीद थी कि सरकार बचाने की मजबूरी के चलते दोनों पार्टियां अपने अतिवादी रुख में सुधार कर रचनात्मक सहयोग का रास्ता निकालने की कोशिश करेंगी।
लेकिन ऐसा नहीं हो सका , क्योंकि बीजेपी जम्मू-कश्मीर में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और उग्र सैनिक दमन की अपनी लाइन में किंचित भी काटछांट करने को तैयार नहीं दिखी।
पीडीपी मेल मिलाप और बातचीत की लाइन को छोड़ न सकती थी,क्योंकि उसका जो कुछ भी जनाधार था, वो घाटी तक सीमित था। उसे पता था कि घाटी में अलगाववाद को कम करने का यही एकमात्र रास्ता है।
बीजेपी की समूची राजनीति इस लाइन की मुख़ालिफ़त से बनी है। धारा 370 का विरोध उसकी प्रमुख राजनीतिक पहचान है। वह शेष भारत में अपने उग्र राष्ट्रवादी जनाधार को गंठबन्धन का समर्थन करने के लिए केवल इसी आधार पर मना सकती थी कि यह सब तुष्टीकरण के लिए नहीं, दमन को और तेज करने के लिए किया जा रहा है।
इसी कारण बीजेपी ने बिना सबूत जेलों में बंद अलगाववादियों को रिहा करने की मुफ़्ती सईद सरकार की नीति को पलटने के लिए मजबूर किया । साथ ही सेना को चिह्नित सशस्त्र लड़ाकों को निष्क्रिय करने (सफ़ाया करने) का निर्देश दिया।
अपने ही देश की नागरिक आबादी के बीच निष्क्रियकरण का सैन्य अभियान किस हद तक वैध है, यह एक अलग बहस है। मारे गए लोग सिद्ध आतंकी ही हों, आम नागरिक नहीं, इसकी पड़ताल करने का सुनिश्चित और पारदर्शी तरीका निकाले बगैर गलतियों की सम्भावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता, जिसकी भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है।
ऐसी ग़लती का एक उदाहरण एक कश्मीरी नागरिक को आतंकी समझ कर जीप से बांधकर घुमाने की घटना के रूप में सामने आया। बाद में पता चला कि वह व्यक्ति तो अलगाव विरोधी था, जो अपना वोट डालने आया था। इस गलती के सामने आने के बाद भी सम्बंधित अधिकारी के ख़िलाफ़ समुचित कार्रवाई न की जा सकी। उल्टे उसे सम्मानित किया गया। कल्पना की जा सकती है कि इस घटना ने अलगावविरोधियों के मनोबल को किस हद तक छिन्नभिन्न किया होगा और अलगाववादियों को इससे कितनी ताक़त मिली होगी।
इसी अभियान के तहत बुरहान वानी को भी ठिकाने लगाया गया, हालांकि वानी की सक्रियता अधिकतर फेसबुक तक सीमित थी। वह सोशल मीडिया पर भारतीय राज्य को चुनौती देने के अपने अंदाज के कारण लोकप्रिय हो गया था। वानी के लिए जगह जगह मातमी जुलूस निकाले गए। इन जुलूसों का सुरक्षा बलों के साथ टकराव हुआ। आंसूगैस, रबर छर्रे और गोलियों का इस्तेमाल हुआ। बहुत से लोगों की जान गई। और भी बहुत से लोग बुरी तरह घायल हुए। सैकड़ों ने अपनी आंखें गंवाईं। इसी के साथ कश्मीर में घोर अशांति का नया दौर शुरू हो गया जो आजतक जारी है।
धारा 35 ए और स्वायत्तता
इस कोढ़ में एक खाज धारा 35 ए पर नई बहस छेड़कर पैदा की गई। यह धारा जम्मू कश्मीर विधानसभा को यह अधिकार देती है कि वह राज्य के स्थायी निवासी की परिभाषा तय कर सके। राज्य में भूमि खरीदने का अधिकार केवल स्थायी निवासियों को है।
यह धारा 370 के तहत राज्य को दी गई स्वायत्तता का अंतिम बचा हुआ टुकड़ा है। यह अधिकार कुछ वैसा ही है, जैसे आदिवासियों को उनके क्षेत्रों में वनाधिकार कानून के तहत मिले हैं। देश के कुछ और भागों में, जैसे उत्तराखंड और पूर्वोत्तर में भी, इस तरह के अधिकार हैं।
कश्मीर के लोगों को डर है कि इस धारा के साथ छेड़छाड़ कर केंद्र सरकार कश्मीर में बड़े पैमाने पर बाहर के लोगों को बसाना चाहती है, ताकि जनसंख्या का संतुलन बदल जाए। यही कारण है कि यह मुद्दा जब भी उठता है, कश्मीर में व्यापक अशांति दिखाई पड़ती है। फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है, लेकिन केंद्र सरकार हर बार की तरह इस बार धारा 35 ए को ख़त्म करने की याचिका का विरोध नहीं कर रही। कश्मीरी अवाम इस रवैये को केंद्र की शत्रुतापूर्ण कार्रवाई के रूप में देखती है।
उन्नीस के आम चुनाव सर पर हैं। इस बार विकास के नाम पर बीजेपी को वोट नहीं मिलेंगे, क्योंकि काठ की यह हांडी चौदह में चढ़ाई जा चुकी है। इस बार पार लगाने के लिए एक असरदार भावनात्मक मुद्दा चाहिए। मंदिर मुद्दा भी अब बेतरह बासी हो चुका है। पाकिस्तान किसी भी तरह काबू में नहीं आ रहा। चीन डोकलाम पर चढ़ बैठा है। लेदेकर एक कश्मीर है, जो अभी भी काम आ सकता है। लेकिन सैनिकों और नागरिकों की शहादतों के अंबार के बीच कश्मीर के नाम।पर वोट मांगना जानलेवा भी हो सकता है। तिस पर भी संघर्ष विराम जारी रहता तो बीजेपी को अपने ठेठ समर्थकों की घनी नाराजगी झेलनी ही पड़ती।
एक तीर अनेक शिकार
सरकार गिरा कर बीजेपी ने एक तीर से कई शिकार किए।
पहला, कश्मीरी की तमाम विफलताओं का ठीकरा महबूबा के माथे फोड़ दिया गया। अब बीजेपी अपने लोगों से कह सकती है कि उसने कश्मीर को बचाने के लिए सरकार क़ुर्बान कर दी। विफलता की जिम्मेदारी से पल्ला छूटा, जबकि यह उग्र सैनिक दमन की नीति की ही विफलता है।
दूसरे, इस विफलता को ही वोट कमाने के फार्मूले में बदला जा सकता है। एक तरफ़ बढ़ते आतंकवाद का डर दिखाकर, दूसरी तरफ यह बताकर कि उग्र दमन की नीति पर चलनेवाली बीजेपी ही कश्मीर को बचा सकती है।
तीसरे, राज्यपाल राज में दमन और तेज किया जा सकता है। यह पूरे देश में कश्मीर-पाकिस्तान- मुसलमान विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण का बहाना बन सकता है। 35ए पर जारी बहस इस ध्रुवीकरण को और पक्का कर सकती है।
चौथे, जम्मू और लद्दाख की उपेक्षा को मुद्दा बनाकर कश्मीर में भी भावनात्मक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज किया जा सकता है। कठुआ के आरोपियों को न बचा पाने के कारण जम्मू में अपने समर्थकों के बीच बीजेपी की जो किरकिरी हो रही है, उससे भी कुछ राहत मिल सकती है।
कुल मिलाकर कश्मीर को एक बार फिर चुनावी राजनीति की बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया है। कश्मीर की निरन्तर जारी त्रासदी का सबसे बड़ा कारण यही है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में यह चुनावी वैतरणी का सबसे बड़ा सहारा बना रहा है।
कश्मीर में अलगाववाद के अब तक के इतिहास को ध्यान से देखने वाले जानते हैं कि यह केंद्र के असंवाद और दमन के समान अनुपात में बढ़ता है।
बढ़ते अलगाव की कीमत भारत के हर नागरिक और हर सैनिक को चुकानी पड़ती है। लेकिन हर हाल में सत्ता हड़पने को बेचैन राजनीतिक पार्टियों के लिए यह मामूली कीमत है।
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