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आम किसान की पक्षधरता के कहानीकार हैं मार्कण्डेय

(हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार मार्कण्डेय के जन्मदिन, 2 मई पर विशेष)

आज जबकि गांव और किसान दोनों पूंजी और बाजारवादी प्रसार के बीच बेतरह पीछे छूटते जा रहे हैं और विकास की वेदी पर उनको होम किया जा रहा है, मार्कण्डेय को याद करना ज्यादा प्रासंगिक  लगता है।  क्योंकि मार्कण्डेय की कहानियों के केंद्र में यही गांव और किसान हैं।

मार्कण्डेय का जन्म खुद एक किसान परिवार में 2 मई 1930 ईस्वी को जौनपुर जिले के बराईं गांव में  हुआ था। आठवीं कक्षा के बाद वे अपनी बुआ के यहाँ  प्रतापगढ़ चले गये, जहाँ इंटर तक की पढ़ाई की।  उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद पहुंचे और वही जीवन पर्यंत रहे।

इस किताबी ज्ञानशालाओं की यात्रा के साथ-साथ मार्कण्डेय एक और ज्ञानशाला में बचपन से ही अपने बाबा की उंगली पकड़कर दाखिल हो चुके थे, जो गाँव और किसान जीवन के बीच से पायी जा रही थी।

मार्कण्डेय के बाबा महादेव सिंह जमींदारों के विरोध के बावजूद कांग्रेस की  किसान सभाएं आयोजित करवाते थे। इन्हीं  सभाओं में जौनपुर के लोकप्रिय गीतकार राम कुमार वैद्य के गीत आजादी की अलख जगाते थे।

मार्कण्डेय अपने बाबा के साथ इन सभाओं के मंच पर होते थे। यह एक अलग पाठशाला थी, जिसने मार्कण्डेय के रचनात्मक व्यक्तित्व को बनाने में बड़ी भूमिका निभायी। उनकी कहानी ‘हंसा जाई अकेला’ में इन्हीं सभाओं की छाया है।

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कांग्रेस की किसान सभा में जाकर  किसानों से शुरू हुआ यह जुड़ाव प्रतापगढ़ में जाकर और गहरा हुआ।

प्रतापगढ़ में  आचार्य नरेंद्र देव  किसान आंदोलन के नेता थे। यहाँ आचार्य  नरेंद्र देव मार्क्सवाद की कक्षाएं चलवाते थे। मार्कण्डेय इन कक्षाओं में जाने लगे।

यहाँ से मार्कण्डेय का परिचय मार्क्सवाद से हुआ और यह उनकी विश्वदृष्टि बनी। मार्कण्डेय ने इन्हीं जीवन अनुभवों  और विचारों की संपदा के साथ साहित्य में प्रवेश किया।

मार्कण्डेय के साहित्य लेखन की शुरुआत प्रतापगढ़ में ही हो गयी थी। उन्होंने अपनी पहली कहानी 1948 ईस्वी में ‘गरीबों की बस्ती’ शीर्षक से लिखी।

यह कहानी विभाजन के बाद बंगाल में हुए सांप्रदायिक दंगों पर केन्द्रित थी। बंगाल से मार्कण्डेय का एक रिश्ता था, क्योंकि उनकी पत्नी विद्यावती जी कलकत्ता में पली-बढ़ी और पढ़ी  थीं। कलकत्ता में  एक तरह से उनकी ससुराल थी। ‘गरीबों की बस्ती’ कहानी में उन्होंने मध्यवर्ग की सांस्कृतिक अवस्थिति का जो प्रसंग बुना है, वह प्रामाणिक अनुभव से प्राप्त है।

तेलंगाना के किसान संघर्ष पर  1948 में ही ‘रक्तदान’ कहानी लिखी। इसके अलावा ‘खोया हुआ स्वर्ग’, ‘आम का बगीचा’ कहानी भी 1948 में ही लिखी, जिसमें गाँव की जीवन स्थितियों के बीच से कहानी लिखने की कोशिश हुई है।

लेकिन कहानीकार के रूप में उनकी चर्चा ‘गुलरा के बाबा’ कहानी से हुई। यह कहानी 1951 ईस्वी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपने अध्यापकों के बीच पहली बार मार्कण्डेय ने पढ़ी। जिसमें डाॅ रामकुमार वर्मा, डाॅ धर्मवीर भारती, डाॅ विजय देव नारायण साही जैसे अध्यापक उपस्थित थे।

यह कहानी बाद में उसी साल हैदराबाद से बदरी बिसाल पित्ती के निर्देशन में निकलने वाली पत्रिका ‘कल्पना’ में पहले स्थान पर छपी। उनका पहला कहानी संग्रह 1954 ईस्वी में ‘पानफूल’ शीर्षक से नवहिन्द  प्रकाशन, हैदराबाद से छपकर  आया।

मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों तथा उपन्यास ‘अग्निबीज’ में  आजादी के बाद के बदलते गांव को चित्रित किया है।  यह गांव कोई रोमानी  गांव नहीं है,  बल्कि विविध स्तरों  में विभाजित तथा अपने माहौल में पहचाने जाने वाले ठोस गांव हैं।

इन गांवों  में व्याप्त पिछड़ेपन, विषमता, सामाजिक भेदभाव, शोषण, गरीबी को अपनी कहानियों का केंद्रीय तत्व बनाते हैं।  इसी के इर्द-गिर्द वे कथा चरित्र निर्मित करते हैं। कुछ लोग गांव का नाम आते ही अहा भाव से भर जाते हैं। मार्कंडेय के यहां गांव इस अहा भाव से अलग हैं।

इसको उन्हीं की कहानी ‘कल्यानमन’  में मुख्य पात्र मंगी के इस कथन से समझा जा सकता है, “जानता नहीं है, कि यहां भूमि के लिए मुंडी काट लें लोग।” अर्थात ऐसा गांव जिसमें लोग जीवनगत  स्वार्थ, छल, प्रपंच, लालच से भरे हुए हैं।

लेकिन ऐसे गांव में ही मार्कण्डेय उन चरित्रों की शिनाख्त भी करते हैं, जो मानवीय मूल्यों, जिजीविषा तथा जीवन की लालसा की भावभूमि पर अडिग, अपराजेय खड़े हैं।

वे दया, करुणा, न्याय जैसी भावनाओं से संवलित हैं। इसे उनकी कहानी ‘प्रलय और मनुष्य’ में भी देखा जा सकता है, जहां लोभ, लालच  में डूबे हुए सारे मनुष्य जलजीवो में रूपांतरित हैं, तो मनुष्य के रूप में सिर्फ बसंता राउत है, जो गांव को लीलने को हहराती  नदी की धारा से संघर्ष करता है।

कुल मिलाकर उनकी कहानियों में तमाम निराशाजनक स्थितियों के बावजूद प्रतिरोध  की चेतना मिलती है।

कोई गांव की कहानी लिखे और उसमें भूमि समस्या न आये, तो उसे ग्रामीण यथार्थ का सच्चा लेखक नहीं माना जा सकता।

मार्कण्डेय  की कहानियों में भूमि सम्बन्धों के वर्गीय और जातिगत स्वरूप मिलते हैं।  सचेत वर्ग विभाजित  गांव भले न हो, लेकिन उसके विकास की गतियां हैं मार्कण्डेय की कहानी में।

इन कहानियों में ग्रामीण सम्बन्धों में एक बदलाव लक्षित होता है। इसके पीछे राजनीतिक तत्वों की सक्रियता प्रमुख कारण है। मार्कण्डेय ग्रामीण समाज की विषमता और उसके भीतर के अंतर्विरोधों को अपनी कहानियों का केंद्रीय तत्व बनाते हैं,  जो आजादी के बाद की सत्ता की नई निर्मितियों के संपर्क और द्वंद्व  से उभर रही थी।

गांव की भूमिधर वर्चस्वशाली जातियों, प्रशासनिक अमले और सत्ता के नुमाइंद के बीच के गठजोड़ को मार्कण्डेय अपनी कई कहानियों में विषय बनाते हैं।

‘दौने की पत्तियाँ’, ‘आदर्श कुक्कुट गृह’ जैसी कहानियाँ इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं।

भू-धारी जातियों के साथ ही पुरोहित, और वणिक जातियां भी कैसे ग्रामीण समाज में सामाजिक शोषण की वाहक हैं, इसे भी मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों में लक्ष्य किया है।

आज कारपोरेट पूंजी और ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व की राजनीति ने मिलकर किसान जीवन और गांव को अपने लोभ-लालच में कसने और फांसने की, जो चौतरफा हमलावर कोशिश की है, उसमें मार्कण्डेय जी की उन कहानियों की याद आ जानी स्वाभाविक है, जिसमें ऐसे गठजोड़ के पूर्व रूप उभरते हैं। ‘बीच के लोग’ ऐसी एक उम्दा कहानी है।

इसके अलावा आज समाज में नफरत को जिस तरह से वर्तमान सत्ता ने स्थायी बनाने की लगातार कोशिशें की हैं, उनके प्रत्याख्यान का स्रोत मार्कण्डेय ने रच दिया है। साथ ही मेल-जोल के सामाजिक सम्बन्धों की गर्माहट मार्कण्डेय की कहानियों में मौजूद है। यह वह थाती है, जो आज के समय में प्रतिगामी शक्तियों से संघर्ष की ताकत देती है!

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