कलाकार को चाहिए कि वह ज्यादा से ज्यादा पहुँचने वाले मुहावरे में अपनी बात कहे- संजीव कुमार
पिछली 3 मार्च को जसम दिल्ली इकाई की तरफ से कहानीकार हेमंत कुमार के कहानी संग्रह ‘रज्जब अली’ पर एक घरेलू गोष्ठी का आयोजन किया गया।
हेमंत जी ने अपनी कहानी का एक अंश पहले लोगों को पढ़कर सुनाया। इस गोष्ठी में संग्रह पर परिचर्चा की शुरुवात करते हुए प्रसिद्ध कहानीकार योगेन्द्र आहूजा ने कहा कि उन्होंने केवल रज्जब अली कहानी पढ़ी है। इसलिए उसकी जो छाप मुझपर पड़ी उसी के आधार पर अपनी बात कहेंगे। उन्होंने कहा कि आज के दौर में एक संकट है, खतरा है उसका अंदाजा हमारे कहानीकारों को नहीं है, फासीवाद का कोई एहसास ही नहीं है। कहानीकार अपनी समसामयिक परिस्थितियों के प्रति काफी उदासीन हैं जबकि कवियों में यह उदासीनता नहीं दिखती है। ऐसे में हेमंत जी की कहानी हमें आश्वस्त करती है। वे समय से जुड़े हुए कहानीकार हैं। और अपने समय की समस्याओं के प्रति सजग हैं। उनकी यह कहानी रज्जब अली उस खतरे से सीधे मुठभेड़ करने का साहस करती है। मैं आजमगढ़ के सामाजिक ताने बाने से परिचित हूँ । संवादों में स्थानीयता का पुट हो सकता था। आप के लिए यह एक चुनौती थी। जबकि रेणु और शिवमूर्ति भी स्थानीयता में ही संवाद रखते हैं और इससे संप्रेषणीयता में कोई कमी नहीं आती है। इस कहानी को इस तरह लिखा गया है मानो नवरंगिया सेना के उदय से पहले सब कुछ समरस था और उसके बाद अचानक सब ख़राब हो गया। यह सही है कि एक कहानी में सब कुछ नहीं लिखा जा सकता है लेकिन उसका संकेत किया जा सकता था। कहानी के अंत में रज्जब अली कुछ विक्षिप्त जैसा व्यवहार करने लगते हैं। कहानी का अंतिम पैराग्राफ अतिरंजित लगता है, इसकी आवश्यकता नहीं मालूम पड़ती है। फिर भी आशान्वित रहने के बहुत सारे बिंदु कहानी में हैं । यह समय की जरुरी हस्तक्षेप करने वाली कहानी है।
नाटकार और संगवारी थियेटर समूह के निर्देशक कपिल शर्मा ने कहा कि हमारा जो कंसर्न है, संघर्ष है, गाँवों में जो वर्ग संघर्ष है वह भी आना चाहिए। मुझे कहानी तब अच्छी लगती है जब वह कैरेक्टर बनाती है। लेकिन यह भी देखना चाहिए कि क्या वे कैरेक्टर उसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आ रहे हैं जिसकी कहानी लिखी जा रही है। इस लिहाज से मुझे तीसरी कहानी ‘भोर का सपना’ पसंद आयी। क्योंकि मेरे लिए वही कहानी अच्छी है जिसमें द्वंद्व हो। यह कहानी संग्रह की पहली कहानी होनी चाहिए। इसी तरह की कहानियाँ लिखी जानी चाहिए। फासीवाद और साम्प्रदायिकता की आड़ में वर्ग संघर्ष को नहीं भूलना चाहिए। तीसरी कहानी में घटनाएँ स्वतः आ रही हैं जबकि रज्जब अली में ऐसा लगता है कि क्रियेट की गयी हैं।
आलोचक संजीव कुमार ने कहा कि मैं सोचता हूं कि आलोचक क्या बला है? मैं जो सोच रहा हूँ वह सब्जेक्टिव है। मैं जो कह रहा हूँ वही मानदंड कैसे है क्योंकि पाठकों में श्रेणीबद्धता भी होती है। और आरंभिक फार्मूले पाठक के काम आते हैं। मुल्क फिल्म देखकर निकला तो दोस्तों ने कहा कि पापुलर बना दिया है। दरअसल कलाकार को चाहिए कि वह ज्यादा से ज्यादा पहुँचने वाले मुहावरे में अपनी बात कहे। लंबे समय से कहानियाँ पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे संगीत के जानकार को अचानक ऐसा लगता है कि जैसे दांत के नीचे कंकड़ आ गया और वह कह उठता है कि यह क्या। लेकिन कहानी कला में ऐसे गणितीय नियम तय नहीं होते। आज के समय में लेखक से जिस पार्टीजनशिप की उम्मीद है और जिस तरह से उसे अंतर्वस्तु में लाना चाहिए अगर अंदर से नहीं भी निकल रहा हो तो भी जबर्दस्ती लाना चाहिए क्योंकि समय यह मांग कर रहा है। जो हेमंत जी की कहानियों में है। राजनीतिक प्रतिबद्धता , स्पष्टता और मुखरता यह सब असंदिग्ध है। रज्जब अली का कथाविचार अभी खिला हुआ नहीं है। उसमें बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिसमें घटनाओं को कथाकार नियोजित कर रहा है। पाठक चाहता है कि उसे ठगा जाय लेकिन उसे महसूस न हो। कहानी में एक स्कीम की तरह चीजें चल रही हैं। यही इस कहानी को कमजोर करता है।
कहानियों में ओवर्ड नैरेशन की वापसी हुई है। इसे मैं कहन कहता हूँ। यह कहन अन्य जगहों पर बहुत पोयटिक और मजाकिया है। उस तरह की लाउडनेस अभी रज्जब अली कहानी में नहीं आयी है। ये कहानी जितना ही नवरंगिया सेना के उभरने की वेदना को व्यक्त करती है पाठक के मन में यह सवाल उठने लगता है कि उसके उभार से पहले समाज में सबकुछ समरस था। यह प्रश्न उठा ही क्यों , क्योंकि कहानी उस समरसता को क्रियेट कर रही है। यह समस्यामूलक है। विक्षिप्त होने वाला प्रकरण कहानी के लाउडनेस के कारण आया है । ऐसा इसलिए भी होता है जब कहानीकार को कहानी से एग्जिट करने का कोई रास्ता नहीं दिखता। कथाकार हमेशा नियोजन करके चलता है उसकी यही योजना कहानी को कमजोर करती है। भोर का सपना कहानी में नैरेशन म्योच्योर है। लहसू राम के शहर पहुँचने के बाद का मामला एक्सपेक्टेड लाइन पर पहुँचता है। कहानी में विवरण पढ़ते हुए अखरता है। हालांकि मैं बहुत सब्जेक्टिव तरीके से पढ़ रहा हूँ लेकिन कहानी का यही कमजोर बिन्दु है । कथा विचार का मसला अलग है अगर यह फिल्म में बदलेगी तो कथाविचार समृद्ध हो जायेगा। हेमन्त का राजनीतिक और आइडियोलॉजिकल फ्रेमवर्क गजब का है।
युवा आलोचक मृत्युंजय ने कहा कि चकबंदी कहानी की राजमतिया और गुलाईची की गुलाईची सवर्ण दुनिया में अपना प्रतिरोध रच रही हैं। कहानी यह बताती है कि गुलाईची डरती नहीं है। वंचित तबके प्रतिरोध के नए नए तरीके निकालते हैं। कहानी में चुनावी राजनीति में गुलाईची का इस्तेमाल हो रहा है लेकिन वह इस बात को समझ भी रही है। चकबंदी कहानी में राजमतिया के ससुर के शोषण का वर्णन दिमाग में देर तक रह जाता है।
शोधार्थी मिथिलेश कुमार ने राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ से उद्धरण लेते हुए रज्जब अली कहानी पर विस्तार से यह दिखाया कि ऐसी ही परिस्थितियां कमोबेश अभी भी बनी हुई हैं। बहुत सारे इलाके हैं जहाँ दलित समाज के लोग जिन जमीनों पर बसे हुए हैं सवर्ण इस बात का दावा करते हैं कि ये जमीनें उनकी हैं और उन्होंने दलितों को बसाया है।
शोधार्थी शुभम यादव ने समसायिक समस्याओं से जोड़ते हुए अपनी बात कही।
युवा आलोचक रामायन राम ने कहा कि कथ्य आदर्श चित्रण जैसा है। कुछ कहानियाँ खास राजनैतिक परिदृश्य पर लिखी जा रही हैं। लेकिन हेमंत जी राजनैतिक रूप से उतने योजनाबद्ध नहीं हैं। अपने समाज के खासकर क्षेत्रीय रूप में उसके झलक का सही चित्रण करते हैं। बीते हुए ज़माने को नए कलेवर में उठाया है। समस्या वही है जात-पात या अन्य चीजों की लेकिन वह अन्य प्रकार के नए राजनैतिक बहानों से आती है ताकि एक बड़े समुदाय को गोलबंद किया जा सके।
आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा उजड़ते हुए गाँवों की आंचलिकता को बचाने के लिए एक खास किस्म की कहानियाँ लिखी गयीं जिन्हें आंचलिक कहानियां कहा गया । अब गाँवों में लोग जातियाँ नहीं, हिन्दू-मुसलमान हो गए। गाँवों में जो एक अन्धविश्वास के कारण अपराधबोध था वो ख़त्म हो गया। पुराने सामंतों को अपना वजूद बचाने के लिए जातिवाद को बचाना भी है। पहले यह माना जाता था कि यथार्थ एक ठहरी हुई चीज है लेकिन यह तो गतिशील है।
इसके बाद कहानीकार हेमंत ने अपनी रचना प्रक्रिया को विस्तार से साझा किया और जिन परिस्थितियों में कहानी लेखन शुरू किया उसके बारे में बताया। परिचर्चा में शामिल साथियों ने ‘क्या कहानी लेखक निष्कर्ष पहले से बना कर कहानी लिखता है?’ जैसे रोचक प्रश्न भी पूछे।
अंत में अवधेश ने परिचर्चा में शामिल सभी लोगों को धन्यवाद ज्ञापित किया और कार्यक्रम का संचालन जसम दिल्ली के सचिव राम नरेश राम ने किया। संगवारी के साथियो की गर्मजोशी भरी उपस्थिति और आयोजन सहयोग ने परिचर्चा को जीवंत कर दिया।
परिचर्चा में आदिल, नेहा, दीप्ती, दीपशिखा, गणेश, सागर, सिराज, अतुल, देवब्रत, अनिरुद्ध, हेमंत कुमार, गोविन्द वर्मा और शोधार्थी आँचल बावा आदि मौजूद रहे।
रपट – राम नरेश राम और गोविन्द वर्मा