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कहानी पाठ और परिचर्चा

कहानी पाठ और परिचर्चा
कहानी- वीभत्स
लेखक- पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र

कार्यक्रम रिपोर्ट- मोहम्मद उमर

रविवार, यानी 7 जून 2020 को महादेवी वर्मा पुस्तकालय, प्रयागराज की रविवारीय गोष्ठी में पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की कहानी ‘वीभत्स’ का पाठ एवं इस पर परिचर्चा आयोजित की गयी। यह ऑनलाइन गोष्ठी गूगल मीट एप्प पर हुई। पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की लिखी कहानी ‘वीभत्स’ का पाठ शोध छात्रा शिवानी ने किया।
कहानी पाठ के बाद सभी ने कहानी पर विस्तृत चर्चा की। ‘वीभत्स’ कहानी पर बोलते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक जनार्दन जी ने बताया कि यह लेखक के शुरुआती दौर की कहानी है। उन्होंने कहा कि कहानी का मुख्य पात्र यानी ‘सुमेरा जाट’ एक लालची किस्म का पात्र है जो कि सिर्फ पैसे के पीछे भागता है। वह पैसे और मनुष्यता के बीच सिर्फ पैसे को ही चुनता है। यह बात कहानी के अंशों से ही स्पष्ट रूप से झलकती रहती है। वह सिर्फ और सिर्फ धनोपार्जन ही करना चाहता है। यह ऐसे लगता है कि मानों वह धन के लिए ही धन कमा रहा है- वह ऐसा लालची और कंजूस प्रवृत्ति का है, कि घर में रोटी के लाले पड़ जाएं तो पड़ जाएं लेकिन वह रूपये नहीं तुड़ाता है। जनार्दन जी ने कहा कि कहानी में जो सामाजिक सच्चाई व्यक्त हुई है, वह आज के समाज की भी सच्चाई बनी हुई है। हमारा समाज जैसे एक ठहरा हुआ समाज बना हुआ है।
इस परिचर्चा में भाग लेते हुए शोध छात्रा
दीप्ति मिश्रा ने महामारी से जुड़ी अन्य कहानियों का सन्दर्भ देते हुए अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ की कहानी ‘वीभत्स’ को सुनते हुए लगा कि कहानी के भावभूमि की जो शुरुआती संरचना है इस परिवेश से मैं अवगत नहीं हूँ। जैसे, बकरी की कांट-छांट, उसके अंदर से अंतड़ियों को निकालने या चमड़े को नमक लगा के सूखाने की प्रक्रिया का संदर्भ हमसे जुड़ता नहीं है। बल्कि, जो दूसरा संदर्भ है, वो जरूर आज के समकालीन परिवेश से जुड़ता है कि भारत में बीसवीं सदी के दूसरे दशक में जब स्पेनिश इन्फ्लूएंजा की महामारी का प्रकोप था, वह आज कोरोना वायरस से फैली महामारी से जुड़ता है। संभवतः इस गोष्ठी में इस कहानी के पाठ को रखने के पीछे का उद्देश्य भी यही होगा।
वर्तमान कोरोना समय में या किसी भी महामारी के समय में जिस तरह लोगों की मृत्यु होती है और मरे हुए लोगों का शव परिजन ले जाना स्वीकार नहीं करते हैं, और वह ऐसे ही लावारिस पड़ी रहती है, सरकार या म्युनिसिपलिटी ही उसका अंतिम संस्कार करवाते हैं.. इस कहानी में भी इसी समस्या से जूझते हुए दिखाया गया है।
वर्तमान कोरोना समय को तत्कालीन इन्फ्लूएंजा समय से देखा जाए तो इस आधार पर हम जरूर कह सकते हैं, कि जो समस्याएं लगभग सौ साल पहले भारत में आयी थीं; सौ साल बाद भी लगभग उसी तरह की समस्याएं हैं। इन्हें देख कर लगता है कि हम कहीं भी आगे बढ़े हुए नहीं हैं, हम ठहरे हुए समाज के नागरिक हैं। वैज्ञानिकता, आधुनिकता, विकास ये सब बातें जो बीच के सौ सालों के अंदर हमें बताई या पढ़ाई गयीं, वे वास्तविक समाज के सामाजिक विन्यास के ढांचे में पग करके उसका आंतरिक हिस्सा नहीं बनीं।
इस कहानी को पढ़ते हुए 1964ई. में मूलरूप से कन्नड़ भाषा में प्रकाशित यू.आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास, ‘संस्कार’ की याद आ जाती है । इस उपन्यास में भी प्लेग फैला हुआ है और दो तरह की बातें हो रहीं हैं.. उसमें चूहे मर रहें हैं और चूहे के साथ- साथ लोग भी।
लेकिन वो ब्राह्मण का अग्रहार है, जिससे ब्राह्मणवाद,अंधविश्वास और रुढ़िगत संस्कारों की वजह से उन्हें लगता है, कि इस सब की वजह उसी गांव में रहने वाला नारणप्पा है। नारणप्पा जो ब्राह्मण धर्म का पालन नहीं करता, रूढ़ियों से विद्रोह करता है, मुसलमानों का छुआ खाना खाता है, एक दलित स्त्री चन्द्री के साथ रहता है, उससे उसके संबंध हैं। इसलिए अग्रहार में ये प्रकोप है और लोग मर रहें हैं। लोग प्लेग से मर रहें हैं, यह सच वे नहीं जानते हैं। इस उपन्यास की मूल समस्या उसके शीर्षक ‘संस्कार’ से संयुक्त है। नारणप्पा जो कि मर गया है, उसका अंतिम संस्कार ब्राह्मण धर्म के अनुसार किया जाय या उसको छोड़ दिया जाए। इस प्रश्न से जूझता हुआ सारा अग्रहार धर्म में उसका उत्तर तलाश करने की कोशिश करता है।
इसी तरह लाला भगवानदास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ है, जिसमें हैजा फैलने की वजह से हो रही मृत्यु से परिजन डर कर सामान्य बुख़ार होने पर भी, बिना समीप गए दूर से ही मरा समझ कर अन्तिम संस्कार के लिए उसे नौकरों के हवाले छोड़ जाते हैं। वे भी बिना देखे-सुने जिंदा ही गंगा में बहा देते हैं। वीभत्स कहानी की संरचना और बुनावट पर अलग से बात की जा सकती है, किंतु मूल समस्या तो जिस समय को कहानी में दर्ज किया गया है और आज का जो समय है वह ही है ।
कहानी पर अपनी बात रखते हुए मनोज कुमार मौर्य ने कहा, कि कहानी में सुमेरा जाट को लोभी, लालची, कंजूस बताया गया है, लेकिन वही सुमेरा उन लाशों को गंगा में ले जाकर बहाने के लिए तैयार हो जाता है, जबकि उन लाशों के परिजन तक छूत की बीमारी के डर से हाथ नहीं लगाते। एक नकारात्मक सामाजिक चरित्र होते हुए भी सुमेरा महामारी के समय लाशों को बहाने का मनुष्यगत कर्म करता है।
महामारी का संकट बेहद बुरा होता है लेकिन इस समय हमारे इंसान होने की परख भी हो जाती है, कि हम किस हद तक इंसान बनने में सफल रहे हैं। ‘वीभत्स’ कहानी में अगर ‘सुमेरा जाट’ यदि लाशों को फेंकने के लिए तैयार होता है तो सिर्फ पैसों के लिए। वह कभी भी महामारी के भयावहता को नहीं समझता बल्कि वह उस स्थिति में भी अपना हित साधता है।
‘सुमेरा जाट’ का चरित्र ऐसा क्यों बना? सम्भव है कि इसमें परिस्थितियों का भी कुछ योगदान रहा हो! अंशुमान जी बातचीत में इस प्रश्न को खड़ा करते हैं। बातचीत में आगे इस प्रश्न का उत्तर रामजी राय देते हैं और कहानी पर अपनी राय जाहिर करते हैं। वह इस कहानी में मौजूद अंतर्विरोधों को बताते हैं और सबसे खास बात यह, कि ‘वीभत्स’ कहानी में ‘सुमेरा जाट’ का चरित्र नकारात्मक है और लेखक भी उस पर ज्यादा जोर देता है। लेकिन, कहानी के प्रारम्भ में सुमेरा का जो चरित्र उभरा है, वह अंत में बदलता है। वह खुद मरी हुई बकरी का मांस खाता है, लेकिन एक अघोरी को मरे हुए आदमी का मांस खाते हुए देख वह असहज हो जाता है। उसने सुन रखा था कि अघोरी ऐसा करते हैं, लेकिन ऐसा देखकर वह भयभीत हो जाता है। कहानी के शुरू का वीभत्स, कहानी के अंत के वीभत्स से द्वन्द्व लिए है, वह एक ही नहीं है। सुमेरा के सपना देखने का प्रसंग इस तरफ इशारा भी करता है।
रामजी राय के मुताबिक अब ऐसा जान पड़ता है, कि वह उस अघोरी में अपनी छवि देखने लगता है जब कहानी के शुरुआती हिस्से में अपनी मरी हुई बकरी का कच्चा मांस खाता है-शायद एक पापबोध का अनुभव होता है!
अनीता त्रिपाठी ने अपनी बातचीत रखते हुए बताया कि मौजूदा समय में कोरोनाकाल में एक तस्वीर वायरल हुई थी, जिसमें एक भिखारी सड़क पर मरे हुए कुत्ते का मांस खा रहा होता है। 1917 की स्थिति और आज की यानी 2020 की स्थितियों में कोई खास अंतर नहीं जान पड़ता महामारी के सन्दर्भ में।
कार्यक्रम का संचालन दुर्गा सिंह ने किया। इस लाइव कार्यक्रम में डाॅ. जनार्दन, मीना राय, अनीता त्रिपाठी, रामजी राय, डाॅ.अंशुमान कुशवाहा, दीप्ति मिश्रा, मनोज कुमार मौर्य, कवि गौड़, सनी आदि ने हिस्सा लिया।

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वीभत्स- पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’

(फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार)

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