ओमप्रकाश सिंह
अपनी कहानी “धर्मदास की गाय” के जरिए कहानीकार हेमन्त कुमार ने मौजूदा दौर में गरीब भूमिहीन किसानों की सामाजिक आर्थिक स्थिति, उनके संकटों-समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की है। कहानी का केन्द्रीय पात्र धर्मदास एक पढ़ा लिखा भूमिहीन गरीब किसान है जो रोजगार के अभाव में अपने पिता की ही तरह बंटाई पर खेती करने को मजबूर है। अतिवृष्टि से तबाह हो चुकी फसल को लेकर पहले से चिंतित धर्मदास के लिए छठ का त्योहार एक अलग ही परेशानी लेकर आता है। पत्नी की जिद के आगे उसे अंततः झुकना पड़ता है और अपने भूस्वामी के पास पैसे मांगने जाना पड़ता है। भूस्वामी की कुदृष्टि धर्मदास की एकमात्र पूंजी उसकी गाय पर लगी रहती है और वह अपनी कुटिल साजिश के तहत काफी बहस के बाद पैसा देता है। पैसा देते समय कहता है कि तुम्हारी जरुरत पर मैं तुम्हारा काम कर रहा हूं, मेरी जरूरत पर तुम्हें भी मेरे काम आना पड़ेगा।
ज्यों ही त्योहार खत्म होता है भूस्वामी अपने आदमियों के साथ आता है और धर्मदास व उसकी पत्नी के लाख गिड़गिड़ाने के बावजूद उसकी गाय खोल ले जाता है। यदि हम समूचे हिंदी पट्टी खासतौर से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि इन इलाकों की पूरी कृषि व्यवस्था इन्हीं गरीब भूमिहीन, बंटाईदार किसानों पर निर्भर है। ये कठिन कठोर मेहनत कर उत्पादन करते हैं और पैदावार का आधा हिस्सा या जैसा भूस्वामी से तय हो, उनके घर पहुंचा देते हैं। इन इलाकों में कहीं आधा, कहीं तिहाई, कहीं चौथाई तो कहीं एकमुश्त तय मात्रा पर बंटाईदारी खेती की जाती है। सोनभद्र, मिर्जापुर, गाजीपुर सहित कई जिलों में तय धनराशि पर खेत लेकर खेती करते हैं गरीब भूमिहीन किसान। इतना ही नहीं, पूर्वी उत्तर प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में बसी अधिकांश दलित गरीब बस्तियों की जमीनें भी सरकारी कागजातों में भूस्वामियों के ही नाम दर्ज हैं और वे समय-समय पर इसी की आड़ में गरीबों को उत्पीड़ित करते रहते हैं और अवैध धन उगाही करते रहते हैं। बाढ़/सूखा राहत की राशि हो, किसान सम्मान निधि, किसान क्रेडिट कार्ड हो या सरकारी/सहकारी समितियों के जरिए मिलने वाली खाद बीज सहित अन्य कृषि लागत सामग्री, उन्हें ही मिलती है जिनके नाम जमीन है। खेती गरीब भूमिहीन बंटाईदार किसान करते हैं लेकिन इन्हें किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल पाता।
कुल मिलाकर कहें तो आज 21 वीं सदी में भी गरीब भूमिहीन किसानों के पास न तो खेती लायक पर्याप्त जमीन है और न ही उनकी रिहायशी बस्तियों की भूमि ही उनके नाम हैं। असलियत यह है कि सरकारों की कारपोरेट परस्त नीतियों और महामारी व लॉकडाउन के चलते शहरों में भी रोजगार के अवसर खत्म होते जा रहे हैं और गरीबों के जीवन निर्वाह का समूचा भार कृषि पर आ गया है। इसलिए हालत यह है कि आज भी वे भूस्वामियों के रहमो करम पर ही जी रहे हैं। कहानी उपरोक्त स्थितियों को सटीक तौर पर सामने लाती है। कहानी इस द्वंद्व को भी उजागर करती है कि आज का भूमिहीन गरीब किसान अपनी जमीन व आवास हासिल कर आजाद होना चाहता है लेकिन पुराने सामंती दबदबे को बनाए रखने की चाहत आज भी भूस्वामियों में मौजूद है। आज की राजनीतिक गोलबंदी में यह जद्दोजहद नजर आती है।
कहानी में इस द्वंद्व को देंखे-
“मलिकार ने आसन बदला , ”धरमू ! मैंने कल एक बात सुनी । तुम गांव के बटाईदारो को एकजुट करके हमारे खिलाफ कोई संगठन बना रहे हो ? ”
धरमू के कान खड़े हो गये । वह यह सोचकर चौंक गया कि इतनी गोपनीय बात मलिकार को कैसे पता चल गयी। जरूर किसी अपने ने भेद खोला है ।
”यह भी सुना कि अबकी तहसील दिवस को जिला कलक्टर के यहां आपदा राहत के लिए मांग भी रखने वाले हो ।”
धरमू चुपचाप मलिकार के अनुलोम – विलोम आसन को देखता रहा । उसने सोचा कि जब इन्हें सब कुछ मालूम ही हो गया है तो बता ही देना उचित रहेगा , ”मालिक, यदि न्याय की बात की जाय तो आपदा राहत पर हमारा ही हक बनता है । आखिर सारा कुछ हमारा ही बर्बाद हुआ । खेती हम कर रहे हैं, किसान निधि का पैसा आप लोग ले रहे हैं । खेती हर साल मंहगी होती जा रही है । हम कितनी मुश्किल से कर रहे हैं । कभी आप लोगों ने उस निधि से एक पैसे की हमारी मदद भी नहीं की ।
योगासन करते हुए मलिकार की देह धीरे – धीरे सुलगने लगी । धरमू को इसका एहसास था । फिर भी आज वह अपनी काफी पुरानी भड़ास निकाल देना चाहता था , ”सब कुछ छोड़ दीजिए मलिकार । इस साल रबी की बुआई कैसे होगी । इसको कभी आप लोगों ने सोचा ? डीजल का दाम बेतहाशा बढ़ने पर ट्रैक्टर का भाड़ा काफी बढ़ गया । खाद गोदामों में है ही नहीं । आप कहते हैं कि हर साल खेत मे बीज नया पड़ना चाहिए । इस साल तो बीज के दाम सुनकर कलेजा बैठा जा रहा है ।”
मलिकार के योगासन का क्रम एकाएक टूट गया । वह क्रोध से पालथी मार कर बैठ गये । धरमू को बोलने का जुनून था , ”मालिक ! आप लोग एक काम तो कर ही सकते हैं । पूरे गांव के बटाईदारो के पूर्वजों को आप लोगों ने कुछ जमीने दे रखी हैं । उसे देकर आप लोग भूल भी गये है । उसके बावजूद उस जमीन का मलिकाना आप लोगों के पास है । यदि उस जमीन को आप लोग हमारे नाम कर देते तो हम भी किसान निधि के हकदार हो जाते । उस पैसे को हम खेती में लगाते तो हमारे साथ आप लोगों का भी फायदा होता ।”
”चुप ।” मलिकार क्रोध से डपट पड़े , ‘मेरे सामने तेरे बाप की कभी बोलने की हिम्मत नहीं पड़ी । तुम दो अक्षर पढ़ क्या लिए ऊंच – नीच का भेद ही भूल गये ।
मैं अपने हलवाहे को खेत लिखकर अपने कुल मे कलंक लगाऊं । वही पांच बिस्वा खेत और तुम्हारा घर तुम्हारी नाक की नकेल है और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हे नकेल मुक्त कर दूं । ऐसा कभी नहीं हो सकता ।”
कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि क्या आज के आधुनिक दौर में कोई इतनी दबंगई से किसी गरीब आदमी की गाय उसके दरवाजे से खोल ले जा सकता है? यदि आज ग्रामीण क्षेत्रों को गहराई से समझें तो ब्याज पर कर्ज देने वाली कुछ निजी कंपनियों के अलावा बड़ी संख्या निजी सूदखोरों की दिखेगी। इन सूदखोरों का बड़ा हिस्सा पुराने जोतदारों का है जो दबंगई के साथ ब्याज वसूलते हैं और नहीं मिलने पर गरीबों की सम्पत्ति तक हड़प लेते हैं। मेरी समझ से कहानी इसी सवाल की ओर संकेत करती है। कहानी बेलगाम होती मंहगाई, विस्फोटक बेरोज़गारी व त्योहारों, परंपराओं और रीति रिवाजों पर बाजार अर्थव्यवस्था के प्रभाव को भी रेखांकित करती है किन्तु मेरी समझ में इसका केन्द्रीय प्रश्न एक मुकम्मल भूमि सुधार के अभाव के कारण भूमिहीन गरीब किसानों की संकटपूर्ण स्थिति ही है। ऐसे में कहानी यह हमारे आपके विवेक पर छोड़ती है कि बंटाईदार किसानों के रजिस्ट्रेशन व उन्हें बंटाईदारी का प्रमाण पत्र देने, किसानों के नाम पर चलने वाली योजनाओं-किसान क्रेडिट कार्ड, किसान सम्मान निधि, सस्ती लागत सामग्री और सूखा/बाढ़ राहत राशि के संघर्ष को कैसे संगठित करें? यह भी कि एक मुकम्मल भूमि सुधार की लड़ाई कैसे आगे बढ़े ।