(यह लेख भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार ‘मुकुल केसवन’ का है जो मूल रूप से अंग्रेजी अख़बार ‘द टेलीग्राफ’ में 26 अप्रैल, 2020 को छपा था. मुकुल केसवन दिल्ली के जामिया मिलिया में सामाजिक इतिहास पढ़ाते हैं. यह लेख भारतीय समाज में पहले से ही व्याप्त जाति व्यवस्था और कोविड -19 के दौरान हमारे सामाजिक व्यवहारों में आने वाले तमाम बदलावों को चिन्हित करता है और सामाजिक वर्गों के नए हाशियाकरण की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है. भारत के सन्दर्भ में यह लेख कोरोना संकट से उपजी परिस्थिति को नए ढंग से समझने की दिशा दे सकता है. इसलिए यह लेख हिंदी के पाठकों के बीच प्रस्तुत किया जा रहा है. समकालीन जनमत के लिए इसका चयन और अनुवाद युवा लेखक और हिंदी अध्यापक राम नरेश राम ने किया है .)
जाति और छुआछूत की बीमारी
मुकुल केसवन
मैसूर में रहने वाले मेरे परदादा दक्षिण भारतीय ब्राह्मण थे, पक्के जातिवादी और धर्म-कर्म की शुचिता को लेकर निहायत मुस्तैद। अपनी पत्नी को दहेज़ में मिले चाँदी के बर्तन-भाँडे बेच कर उन्होंने ग्रामोफ़ोन की एक आधुनिक दुकान खोली। दुकान चली नहीं क्योंकि वे इस पर बहुत कम बैठते थे। घर छोड़ने से पहले वे पूरे आडंबर से स्नान-ध्यान करते थे। सब करते-कराते सुबह के 11 बज जाते थे। अमूमन ऐसा होता था कि घर से दुकान के लिए निकले तो सही लेकिन उल्टे पाँव वापस आ गए, क्योंकि रास्ते में किसी न किसी मलिन इंसान का साया उन पर पड़ जाता था और अपने आप को पुनः पवित्र करने के लिए उन्हें अपना स्वच्छता-व्यायाम पूरा दुहराना पड़ता था।
क्वारंटीन के इस दौर में मैं अपने पूर्वजों की दिनचर्या के बारे में सोच रहा हूँ। ख़ास तौर पर तब और सोचता हूँ जब हमारे लिए दुकानों से ख़ुद सामान लाना कठिन हो गया है। जब सामान लेकर आया आदमी दरवाज़े की घंटी बजाता है तो मैं उसको इशारा करता हूँ कि वह पार्श्व द्वार पर आए और उस मेज़ पर सामान रख दे, जिसे हाल में इसी काम के लिए रखा गया है। नज़दीक आने का मौक़ा न बने, इसलिए बख़्शीश के तौर पर 20 रुपये का नोट मैंंने टेबल पर पहले ही रख छोड़ा है। इस कहानी में अहम चीज़ वह दूरी है जिसे सामान पहुँचाने वाला और मैं तय करते हैं, ताकि हम एक-दूसरे के बीच का सुरक्षित दायरा न लाँघ पाएँ। यह हमारी नियमित दिनचर्या बन गयी है, हैरत है कि कितनी तेज़ी से और कितनी सहज। इसके पालन में किसी अतिरिक्त प्रयास की ज़रुरत नहीं पड़ी, ऐसा लगता है गोया मेरे भीतर कोई चिप पहले से पड़ी हो, जिसकी वजह से मैं इस अस्वाभाविक और असामाजिक दिनचर्या को अनायास अपना लेता हूँ। बारंबार मल-मलके हाथ धोना, सैनिटाइज़र छिड़कना, नक़ाब लगाना और अजनबियों से बचना जैसे मेरी आदत हो।
क्या ब्राह्मणवादी समाज में पले लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग वाक़ई घुट्टी में मिलती है? क्या शुचिता-अशुचिता के हमारे पुरातन संस्कार, जिन्हें हम आधुनिक बनने की प्रक्रिया में भूलना सीखते हैं, हमारे शालीन आचरण के ठीक नीचे दुबके हुए ऐप की तरह हैं, जिन्हें लॉन्च होने के लिए बस एक क्लिक का इंतज़ार हो? जब भारतीय ऐसे मंज़र देखते हैं कि पाश्चात्य देशों की मध्यवर्गीय जनता को सामाजिक या दैहिक दूरी बरतने का मतलब समझ नहीं आ रहा है, तब वे सोचते हैं कि या तो वे लापरवाह हैं या निपट मूर्ख। मुमकिन है कि वे न लापरवाह हैं न बेवक़ूफ़। शायद उनका क़सूर यह है कि वे हिन्दुस्तानी नहीं हैं, उनके पास हमारी सांस्कृतिक सहजवृत्तियों का अभाव है।
इंग्लैण्ड में स्नातक की पढ़ाई के दौरान तो मैं देखता था कि सामान ख़रीदने वाला व्यक्ति पैसा सीधे कैशियर या ख़ज़ांची के हाथ में देता था। चूँकि मैं आदतन अपना पैसा काउंटर पर रख देता था, इसलिए कोई शारीरिक संपर्क नहीं होता था। मेरे लिए साफ़ था कि असंपर्क ही नित्य नियम है न कि दैनंदिन संपर्क। कोरोना वायरस के कारण अस्तित्व में आयी क्वारंटीन की व्यवस्था मध्यवर्गीय भारतीयों के लिए सुसाध्य है; सवर्ण उच्चासीनता के एक भिन्न अध्याय का अभ्यास, बस।
सवर्ण ही हैं जो मज़े-मज़े ख़ुद को अलग-थलग रख सकते हैं। चूँकि ज्ञान-कर्मी ही नए ब्राह्मण हैं, चूँकि पुरानी उच्च जातियों के लोग ही नए क़िस्म के ज्ञान-कर्मी हैं, इसलिए भारत में डिजिटल कामकाज पर बहुत हद तक सवर्णों का एकाधिकार है। शारीरिक श्रम करने वालों, रेहड़-पटरी के विक्रेता, शिल्पकार, कृषि मज़दूर, निर्माण मज़दूर और स्वरोज़गारी लोगों को अपनी आजीविका के लिए काम पर सदेह उपस्थित होना पड़ता है। महात्मा ज्योतिबा फुले के शब्दों में कहा जाय तो क्वारंटीन के इस दौर की ऑनलाइन कामकाज की दुनिया में आज यही लोग शूद्र और अतिशूद्र हैं।
यह नया कोविड ब्राह्मणवाद सामाजिक आचार-व्यवहार की पुरानी प्रौद्योगिकी का ही इस्तेमाल कर रहा है: अस्पृश्यता और सामाजिक बहिष्कार का हमारे पूर्वजों का संस्कार संक्रमण के इस दौर में उनके कितना काम आता! अजनबियों से छुआछूत बरतने के लिए उनको अलग से किसी निर्देश की आवश्यकता नहीं पड़ती। जाति-व्यवस्था एक ऐसा पद है जिसका इस्तेमाल भारत में व्याप्त ऊँच-नीच और भेदभाव की विशिष्ट सामाजिक संरचना की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है। यह कोई अपरिवर्तनशील व्यवस्था नहीं है: पूंजीवादी आधुनिकता से प्रेरित सामाजिक, राजनीतिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप इसमें बदलाव होते रहे हैं। अगर आज की तारीख़ में सभी ऑफ़लाइन ग़रीब लोगों को शूद्र मान लिया जाय तो ग़रीब मुसलमान, जिनके ऊपर भीषण ग़रीबी और बज़िद मुसलमान बने रहने की वजह से दोहरी मार पड़ रही है, यही दरअसल आज के नए दलित हैं। अगर दलित जातिगत समाज के दायरे से बाहर रहने वाले अछूत थे, तो आज के मुसलमानों को आर्थिक रूप से हाशिए पर ढकेल दिया गया है तथा राजनीतिक और अस्तित्व के स्तर पर अलगाव में डाल दिया गया है। समाज की सबसे निचली, वर्गन्यून हैसियत पाया हुआ ये तबक़ा नया पंचम वर्ण है।
पिछले महीने से कोविड-19 की वजह से उत्पन्न संकट की चिंताओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। वायरस को फैलाने की भूमिका के रूप में निज़ामुद्दीन में मार्च में हुए तबलीग़ी जमात के कार्यक्रम का बहाना बनाकर भारत की सोशल और मुख्य धारा की मीडिया, राजनीतिक दलों, वेलफ़ेयर एसोसिएशन के निवासियों, यहाँ तक कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पूरे समुदाय के विरुद्ध खुल्लमखुल्ला जंग का ऐलान कर दिया गया है। एक राष्ट्रीय अख़बार ने लिखा कि अहमदाबाद के एक अस्पताल में धर्म के आधार पर अलग-अलग इलाज हो रहा है और मुसलमानों के लिए अलग वॉर्ड भी बनाया गया है। मुख्यधारा के समाचार चैनलों पर यह व्यापक रूप से प्रचारित किया गया कि द्वेष में मुसलमानों द्वारा एक नए तरह का युद्ध, ‘कोरोना जिहाद’, शुरू किया गया है।
मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ मध्यवर्गीय लोगों और आरडब्यूए चलाने वालों ने पूछना शुरू कर दिया है कि क्या कॉलोनी में आने वाले मुसलमान विक्रेताओं से सामान खरीदना सुरक्षित है? एक पड़ोसी ज़ोर से पूछते हैं कि क्या दशकों से कॉलोनी में फल बेचने वाले मुसलमान को आने की इजाज़त दी जानी चाहिए क्योंकि ‘हमें क्या पता कि ये लोग कहाँ रहते हैं.’ ये है मध्यवर्ग की चिंता जो ग़रीब लोगों की सघन आबादी के कारण संक्रमण फैलने की आशंका से उपजी है। यह उस पूर्वग्रह पर आधारित है जिसके अनुसार ग़रीबों में मुसलमान ख़तरनाक और अजनबी लोग होते हैं जिनको ख़ास तौर पर क्वारंटीन में रखे जाने की ज़रुरत है। आज के अजीबोग़रीब माहौल में हम उस भेदभाव को देख पा रहे हैं जो मुसलमानों का रोज़ाना का तजुर्बा है जो बनते-बनते औपचारिक भेदभाव और संगठित किनाराकशी के क़रीब पहुँच चुका है।
भारत में कोरोना एक छुआछूत वाली बीमारी है जिसको कुछ आनुष्ठानिक सजगता से ठीक करने की कोशिश की जा रही है। दैहिक निकटता से परे रहकर और निरंतर शुद्धिकरण से इस मर्ज़ की रोकथाम की जा रही है. जातिगत समाज तो इस चुनौती के लिए बना ही था. ज़रा सोचिये, नमस्ते करना कोरोना के युग में अभिनन्दन का सर्वोत्कृष्ट तरीक़ा है कि नहीं! ऐसा करके हाथ मिलाने, गले मिलने या चुंबन लेने जैसी अनचाही हरकतें किए बग़ैर भी आप विनम्र और पुरख़ुलूस दिख सकते हैं. मेरे परदादा जानते थे जिस प्रदूषण का चौतरफ़ा प्रसारण दलित करते चलते थे, उससे बचने के लिए उनसे कितना फ़ासला बनाके रखना हैृ. इस पैन्डेमिक में न्यूनतम दूरी 1.8 मीटर निर्धारित की गई है. आशीष नंदी ने क्रिकेट पर एक मशहूर जुमला कहा था जिसे वे आज के संदर्भ में भी कह सकते थे (भले कहा नहीं हो) : कि कोविड-19 असल में देसी बीमारी है जिसका आविष्कार चीनियों ने धोखे से कर लिया !
साभार : द टेलीग्राफ़