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कविता

कोरोना समय में कविता :  ‘लहू से सनी रोटियां दुनिया देख रही है ’

लखनऊ. यह समय अभिधा का है। जो व्यंजना में कविता की बात करते हैं, कहीं न कहीं उनके अवचेतन में डर है। सत्ता का आतंक काम कर रहा है। यह क्रूर और हिंसक समय है और इस समय को रचना ही सबसे बड़ी कला है।

जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित ‘कविता संवाद-6’ में कोरोना काल में रची जा रही ऐसी ही कविताओं का फेसबुक पर लाइव पाठ हुआ। संयोजक थे कवि और जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर। हिन्दी के आठ कवियों की कविताएं सुनायी गयी। इसमें युवा कवि के साथ वरिष्ठ कवि भी शामिल थे। 


शुरुआत युवा कवि शंकरानन्द की कविता ‘रोटी की तस्वीर’ से हुई। यह कविता हाल में औरंगाबाद में रेल हादसे  का शिकार हुए मजदूरों की कथा कहती है। रेल की पटरियों पर जो रोटियां बिखरी हैं, वह इसी बर्बर समय की जिन्दा गवाह हैं – ‘इस खाई अघाई दुनिया के मुंह पर/ये सबसे बड़ा तमाचा है/लहू से सनी उनकी रोटियां दुनिया देख रही है’। 

इसी पीड़ा और भाव का विस्तार उमेश पंकज की कविता में था, जिसका पाठ हुआ ‘सपने में वह अभी मां के पांव छू ही रहा था/कि गुजर गई एक मालगाड़ी दनदनाते हुए/कटी गर्दनें, कटे हाथ और कटे पांव/रेल पटरियों पर उछलते हुए/पूछ रहे हैं अभी कितना दूर है मेरा गांव’।

विनीताभ कुमार की कविता ‘यह अप्रैल है’ सुनायी गयी जिसमें वे कोरोना वायरस के कारण आये प्रभाव के चित्र अपनी कविता में उकेरते हैं ‘हाथ ने हाथों से दूरी बढ़ा ली/प्रेम सुनसान सड़कों पर/अपनी प्रिया की प्रतीक्षा कर रहा है/बागों में फूलों का लावण्य मुरझाने लगा है’।

शंभु बादल की कविता में यह भाव उभरता है कि कोरोना के संकट ने धर्म, अराधना, ईश्वर जिस पर मनुष्य की गहरी आस्था रही है, वे निरर्थक साबित हुए हैं। उनका कहना है-
‘अंधेरा भयावह हो रहा है/ कोई धर्म काम नहीं आया/ईश्वर हार गया, अस्तित्वहीन/चढ़ावा बेकार हुआ/आराधना का अर्थ क्या?’

इस मौके पर सुभाष राय की कविता का पाठ हुआ जिसमें वे कोरोना से प्रकृति और पर्यावरण में आये सकारात्मक परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की लोभ व लाभ वाली संस्कृति पर चोट करते हैं। अमानवीयता बढ़ी है, परमाणु अस्त्र हो या पूजा-पाठ हो या धर्म यह सब निरर्थक हुए हैं, ऐसे में मनुष्यता ही मनुष्य को बचा सकती है। वे कहते हैं ‘जीतेंगे वे जो लड़ेंगे/युद्ध टालने के लिए/भूख, बीमारी और मौतों से/लोगों को बचाने के लिए/कल सिर्फ वही जियेंगे/जो आज मरेंगे दूसरों के लिए’।
‘मुसलमान’ अनीता वर्मा की कविता थी जो सुनाई गयी। वे  कहती हैं ‘क्या यह महज  एक  शब्द  है/या हाड़-मांस का पुतला, नमाज, खतना, दाढ़ी और टोपी/या इसके अर्थ  की  कई  परतें  हैं/इसे जानने के  लिए  तारीख  की/एक लंबी  सुरंग  से  गुजरना  होगा/दूर  की  यात्राएँ  करनी  होंगी/जो बाहर से ज्यादा भीतर की ओर होंगी’।

मदन कश्यप की कविता ‘जब हम घरों में बंद थे’ में लाॅक डाउन की अचानक घोषणा के बाद प्रवासी मजदूरों को जिस दर्द व संकट से गुजरना पड़ा उसका सजीव बयान है। भले ही वे आपस में एक दूसरे से अपरिचित हों पर उनका दुख एक जैसा है, यह कुछ यूं व्यक्त होता है ‘वे अलग-अलग लोग/अलग-अलग कुनबे/अलग-अलग दिशाओं से आये थे/…..कोई किसी को नहीं जानता था/बस एक दुःख था जो सबको पहचानता था’।

असद जैदी मानते हैं कि कोरोना जैसी महामारी को लोग झेल लेंगे, यह कठिन समय गुजर जाएगा पर राजनीतिक महामारी जो अपने ही नागरिकों को अनागरिक बनाने पर तुली है, उससे कैसे निपटा जाएगा। क्या यह मात्र कविता का सवाल है ‘2021 में कौन पूछेगा आज की सरकार से/वाम नहीं पूछेगा मध्य नहीं पूछेगा तो क्या/दक्षिण पूछेगा दक्षिण से कि तुम कौन होते हो/कहने वाले कि कौन नागरिक है कौन अनागरिक/क्या बस कविता पूछेगी यह सवाल, क्या वही अरजी देगी….’। आज जब बर्बरों के हाथ में सबकुछ है तो क्या वह इतिहास नहीं दोहराया जाएगा जिसके दंश से अभी तक उबरा न जा सकता है। कविता अपने सवाल से असहज और बेचैन करती है।

‘कविता संवाद’ के कार्यक्रम का समापन कैफ़ी आज़मी के नज्म की इन पंक्तियों से हुआ 

‘आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी’।

 

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