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दलित-बहुजन बौद्धिकता के विमर्श का दमन है प्रो. कांचा इलैया की पुस्तकों को पाठ्यक्रम से हटाना

नई दिल्ली. जन संस्कृति मंच ने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्टैंडिंग कमिटी द्वारा प्रो. कांचा इलैया की पुस्तकों को एम.ए राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से हटाए जाने की निंदा करते हुए इसे भारत में उभर रही दलित-बहुजन बौद्धिकता के विमर्श का दमन बताया है.

जसम की ओर से रामनरेश राम द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय कि स्टैंडिंग कमिटी ने अपनी मीटिंग में यह प्रस्ताव पास किया है कि कांचा इलैया की तीन किताबें ‘मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ ’, ‘ पोस्ट हिन्दू इंडिया’ , ‘ गॉड एज पोलिटिकल फिलासफर’ एम ए राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से हटा दी जाय. कमिटी ने हटाने के प्रस्ताव का तर्क दिया है कि ये किताबें हिन्दू आस्था की गलत समझ को प्रस्तुत करती हैं और दिए गए मत का कोई अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं देती हैं.

दरअसल पुस्तकों को हटाए जाने के प्रस्ताव के इस तर्क के पीछे कुछ और ही मंशा काम कर रही है. किसी अकादमिक संस्थान में पाठ्यक्रम निर्धारण का पैमाना पुस्तकों की गुणवत्ता होनी चाहिए न कि किसी धर्म विशेष की आस्था. यह निर्णय अकादमिक जगत में बहुजन और वंचित तबकों के विमर्श की मजबूत उपस्थिति से ‘ हिन्दू एकता ’ के आस्थाजन्य आधार की हिलती नींव के भय से उपजा हुआ है.

कांचा इलैया की किताबें हिंदुत्व की अवधारणा को ख़ारिज करती हैं और इस बात को तमिल भाषी समाज की संरचना की व्याख्या के माध्यम से सिद्ध करती हैं. उनकी व्याख्याएं बहुजन आधारशिला पर खड़ी ‘हिन्दू एकता’ की राजनीतिक अभिव्यक्ति की आलोचना प्रस्तुत करती हैं.

उनकी किताबों पर यह विवाद कोई नया नहीं है. पिछले साल 2017 में वैश्य समुदाय के कुछ लोगों ने उच्चतम न्यायालय में ‘ पोस्ट हिन्दू इंडिया ’ पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की याचिका डाला था लेकिन न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध की मांग के खिलाफ़ यह कहते हुए निर्णय दिया था कि ‘ किताबों पर प्रतिबन्ध लगाना उसकी क्षमताओं में नहीं आता. ये लेखक के उसके आस-पास समाज के बारे में विचार हैं जिसे व्यक्त करने के लिए वे स्वतंत्र हैं. कोर्ट से किसी मुक्त अभिव्यक्ति को रोकने के लिए नहीं कहा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को हमेशा सबसे ऊपर रखा है ’.

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के आलोक में अगर देखें तो भी दिल्ली विश्वविद्याल की स्टैंडिंग कमिटी का यह प्रस्ताव अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध है. यह निर्णय विशवविद्यालयों में विभिन्न तरह के मतों पर विचार-विमर्श और बहसों की संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास है. हम लेखकों, बुद्धिजीवियों , कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने कांचा इलैया की किताब पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग का विरोध किया था और पाठ्यक्रम से किताबों के हटाए जाने के दिल्ली विश्वविद्याल की स्टैंडिंग कमिटी के इस प्रस्ताव का भी विरोध करते हैं.

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