समकालीन जनमत
जनमतशख्सियतसाहित्य-संस्कृति

त्रिलोचन की याद : बज़िद अपनी राह चलने वाला कवि

(आज त्रिलोचन का जन्मदिन होता है । इस मौके पर प्रस्तुत है ‘समकालीन जनमत’ के प्रधान संपादक रामजी राय का यह संस्मरण ।)


“पथ पर
चलते रहो निरन्तर
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है
गत-स्वन हो
पथिक,
चरण-ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरन्तर” (त्रिलोचन)
जनसंस्कृति मंच का त्रिलोचन के साथ यही संबंध सूत्र था और मेरे ख़याल से त्रिलोचन शास्त्री का जनसंस्कृति मंच से सम्बन्ध का सूत्र भी यही था. जसम के तृतीय राष्ट्रीय सम्मलेन, (19-20 नवम्बर, 1994) बनारस में अध्यक्ष चुने जाने के बाद पत्रकारों द्वारा जसम से जुड़ने के कारण पूछे जाने पर त्रिलोचन जी का बहुत संक्षिप्त सा जवाब था- ‘पहली बात की यहाँ (जसम में) कोई आशीर्वादीलाल, आशीर्वाद चाहने वाला नहीं है, कठिन स्थिति में भी काम करने वाले लोग हैं. और दूसरी बात कि ये देशभक्त हैं.’

मैंने एकबार त्रिलोचन जी से पूछा कि ‘आप कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे या नहीं?’ त्रिलोचन का जवाब था –‘नहीं.’ मैंने पूछा क्यों? त्रिलोचन जी ने मुस्कुराते हुए कहा ‘जब मैं सदस्य बनना चाहता था तब उन्होंने नहीं बनाया. (बात के बीच में मैंने पूछा क्यों?) (हंस कर) क्योंकि मेरे नाम के साथ शास्त्री लगा हुआ था, और जब वे बनाना चाहे तो मैं नहीं बनना चाहा.’ (मैंने फिर पूछा आप क्यों नहीं बनना चाहे?) क्योंकि तब तक कम्युनिस्ट पार्टी वह कम्युनिस्ट पार्टी नहीं रह गई थी, जैसा मैं सोचता था.’

चन्द्रबली सिंह ने समकालीन जनमत के लिए हुई मुझसे एक बातचीत में बताया कि “मेरे बनारस आने के पहले त्रिलोचन कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर नहीं थे. मैंने उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर बनाया था. वैसे वे बंधकर रहने वाले व्यक्ति नहीं थे. अनुशासित जीवन वे नहीं जी सकते थे. जनसंस्कृति मंच में वर्षों तक वे कैसे अनुशासित रहे, बंध कर रहे यह आश्चर्य ही था. वे तो घर से गेहूं पिसाने निकलते थे, तो पता नहीं चलता था कि कब लौटेंगे.”

एक और बात का ज़िक्र करना शायद मुनासिब हो. अपनी बातचीत में चन्द्रबली सिंह ने यह भी कहा कि “त्रिलोचन ने संभवतः मार्क्सवाद को बहुत पढ़ा नहीं था. साधारण मनुष्य के साथ वह हृदय से जुड़े थे. यह हृदय से  जुड़ना उनके विचारों में आ गया था. बहुत से लोग मार्क्स की पुस्तकें नहीं पढ़ते, लेकिन आप उनसे बात करें तो उन्हें आप मार्क्स के नज़दीक पायेंगे.” हो सकता है त्रिलोचन ने मार्क्स को बहुत न पढ़ा हो लेकिन साधारण मनुष्य के साथ उनका हृदय से जुड़ाव असाधारण था. इस जुड़ाव के कारण त्रिलोचन को मार्क्सवाद का जितना और जो भी ज्ञान रहा हो, विलक्षण था. महाकुम्भ-1953 पर लिखे उनके 25 सानेट इसके अन्यतम उदाहरण हैं-

जनता में कब होगा जनता का अधिकारी,
कब स्वतंत्र होगी यह जनता टूटी-हारी ।
………..
अगर स्वतन्त्र राज भी
जनता की जीवन-रक्षा का प्रथम काज भी
न कर सके तो किस मतलब के लिए राज है?
(प्रयाग में लगे 1953 के महाकुम्भ में भगदड़ मच जाने से सैकड़ों की  जानेें गई थीं और बदइन्ताजामी के चलते वे कई एक दिनों तक वहीँ पड़ी रही थीं.)

इससे भी बढ़ कर त्रिलोचन की चिन्ता-धारा में मौजूद जिस विलक्षण बात का ज़िक्र मैं करना चाहता हूँ वह है देशों के बीच अक्सर होने वाले युद्ध के बारे में त्रिलोचन के विचार की. एकबार मैंने त्रिलोचन जी से पूछा कि आपने भारत-पाकिस्तान के बीच, यहाँ तक कि 1962 के भारत-चीन युद्ध को लेकर कोई कविता क्यों नहीं लिखी है. त्रिलोचन ने प्रतिप्रश्न करते हुए कहा-युद्ध कौन लड़ता है? आमतौर पर युद्ध किस लिए लड़े जाते हैं? और वे तो आपस में युद्ध कर के फिर एक समय के बाद आपस में हेलमेल कर लेते हैं लूटा-मारा कौन जाता है? यह सब आप जानते हैं. इसलिए मैंने किसी युद्ध पर कोई कविता नहीं लिखी, 62 के युद्ध पर भी.

यह सुन कर मैं दंग था, जब कि उस समय शायद ही कोई प्रमुख प्रगतिशील कवि यहाँ तक कि मुक्तिबोध भी नहीं बचे जिन्होंने और पर नहीं भी तो 62 के युद्ध पर कविता न लिखी हो या कुछ कहा न हो.

आप प्रथम विश्वयुद्ध को लीजिये जिसमें मार्क्सवाद के बड़े-बड़े पंडित पितृ-देश (फादर लैंड) की रक्षा का नारा देते हुए लेनिन का विरोध इसलिए कर रहे थे कि लेनिन ने इस युद्ध का विरोध करते हुए जारशाही को उखाड़ फेंकने का नारा दिया. शायद यह अकारण नहीं था कि त्रिलोचन लेनिन को बहुत मान देते थे. आप चाहें तो दिल्ली यूनिवर्सिटी की उस छात्रा गुरुमेहर कौर को याद कर ले सकते हैं जिसने कहा कि मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने मारा है, जिस पर तथाकथित ‘देशभक्तों’ ने न जाने कितना और कैसा-कैसा बवेला मचाया. त्रिलोचन देशभक्ति को यहाँ तक उठा ले गए थे शायद. इस नज़रिए का नजारा उनकी एक कविता से करना ज़्यादा सही होगा-
भूख और प्यास
आदमी से वह सब कराती है
जिसे संस्कृति कहा जाता है।

लिखना, पढ़ना, पहनना, ओढ़ना,
मिलना, झगड़ना, चित्र बनाना, मूर्ति रचना,
पशु पालना और उन से काम लेना यही सारे
काम तो इतिहास है मनुष्य के सात द्वीपों और
नौं खंडों में।

आदमी जहाँ रहता है उसे देश कहता है। सारी
पृथ्वी बँट गई है अनगिनत देशों में। ये देश अनेक
देशों का गुट बना कर अन्य गुटों से अक्सर
मार काट करते हैं।

आदमी को गौर से देखो। उसे सारी कलाएँ, विज्ञान
तो आते हैं। जीने की कला उसे नहीं
आती।

चकित करते थे त्रिलोचन

त्रिलोचन तब ए-13, दैनिक जनयुग अपार्टमेंट्स, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली में सुशील श्याम के साथ रहते थे. और इरानी कल्चरल हाउस, नई दिल्ली में फारसी-अंग्रेज़ी-हिंदी डिक्शेनरी परियोजना में सहायक सम्पादक के रूप में (1992-95) कार्यरत थे. मेरी वहीँ पर उनसे मुलाकात हुई. समकालीन जनमत भी उस समय दिल्ली से ही निकल रही थी.
त्रिलोचन जी अपने दफ्तर से छूटने पर लगभग नियमित रूप से समकालीन जनमत के दफ्तर में आ जाया करते थे या कभी हममें से कोई उधर गया रहता तो उसके साथ आ जाते थे. वहां रुकते चाय-पानी के साथ देर तक बातें होतीं, फिर उन्हें हमलोग बस स्टॉप जाकर जहां वे रहते थे वहां की बस पर चढ़ा आते.

एकबार उनके पास किताबों का एक बण्डल था. बसों में भीड़ बहुत थी और चढ़ना मुश्किल था. सो हाथ में किताबों का बण्डल लिए वे अपने दफ्तर से बसुन्धरा एन्क्लेव पैदल ही चले गये. नतीजा हुआ कि उनके दाहिने हाथ की नस खिंच गई और उसे ठीक होने में महीने लग गए.
जब दिल्ली में जसम का राष्ट्रीय सम्मलेन हो रहा था, त्रिलोचन जी जेएनयू के गेस्ट हाउस में ठहरे थे. वहां शाम को साहित्यकारों, साहित्यिक-पत्रकारों का जमावड़ा जमा था. साहित्य की हस्तियों पर बातें चल रही थीं. लोग त्रिलोचन जी का इनके-उनके बारे में राय-विचार पूछ रहे थे, कुछ अपनी भी राय रख रहे थे. इसी बीच किसी ने पूछा- ‘त्रिलोचन जी विनोद मिश्र के बारे में आपकी क्या राय है?’ त्रिलोचन ने कहा- ‘कौन विनोद मिश्र!?’ इसपर जोर का ठहाका लगा. शायद इसलिए कि जसम जिस राजनितिक धारा के विचार से अपने को करीब पाता है, जसम के अध्यक्ष को उसके बारे में कुछ पता ही नहीं. लेकिन त्रिलोचन ने उनकी इस खुशफहमी को टिकने नहीं दिया पूछा –‘किस विनोद मिश्र के बारे में आपलोग पूछ रहे हैं; कथाकार विनोद मिश्र के बारे में या सीपीआइ(एम.एल.) के नेता विनोद मिश्र के बारे में.’ अब सब सन्न और चुप. बात फिर कहीं दूसरी ओर मुड़ गई.

ऐसे और कई संस्मरण हैं लेकिन उन सबमें न जा कर एक-दो और प्रसंगों के साथ इस प्रसंग को समाप्त करूँगा. जनमत कार्यालय आवास भी था. त्रिलोचन जी हमेशा की तरह आये हुए थे. चंद्रभूषण ने बात शुरू की, पूछा- ‘आपकी आधुनिकता और अज्ञेय की आधुनिकता में क्या फर्क है?
त्रिलोचन ने कहा- ‘जो मेरी दाढ़ी और अज्ञेय की दाढ़ी में फर्क है.’
चंद्रभूषण- ‘मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ सीरियसली पूछ रहा हूँ.’
मैं भी कहाँ मज़ाक कर रहा हूँ भाई साहब! मैं कह रहा हूँ उनकी आधुनिकता उनकी दाढ़ी की तरह कटी-छंटी, सजाई-संवारी आधुनिककता है और मेरी; मेरी दाढ़ी की तरह प्राकृतिक रूप की.
चंद्रभूषण को शायद अपने सवाल का उत्तर मिल गया था. आगे चंद्रभूषण ने कहा मैं आपको एक कविता सुनाना चाहता हूँ और उसपर आपकी राय जानना चाहता हूँ लेकिन कविता अच्छी खासी लम्बी है. कविता प्रसन्न कुमार चौधरी की ‘सृष्टिचक्र’ थी, जो उन्हीं दिनों प्रकाशित हुई थी और चर्चा में थी. त्रिलोचन ने कहा कोई बात नहीं आप कविता सुनाइये पहले. पूरी कविता पढ़ कर सुनाई गई. त्रिलोचन ने कहा कविता अच्छी है लेकिन इसमें कुछ दोष भी हैं. त्रिलोचन जी ने फिर पूरी कविता पर अपनी बात किंचित विस्तार से रखी. उनकी बात ख़त्म होते ही चंद्रभूषण ने एक अजीब सवाल पूछा -अच्छा त्रिलोचन जी आपने कविता सुनी, आप बता सकते हैं कि कवि की उम्र क्या होगी? हम सब इस सवाल पर हैरान थे लेकिन त्रिलोचन नहीं. वे बोले कवि की उम्र यही कोई 42-44 वर्ष की जान पड़ती है. इसे सुन मैं और भी चकित था, लेकिन दूसरी वज़ह से चुप था. चंद्रभूषण ने कहा त्रिलोचन जी आप यहाँ गच्चा खा गए. कवि की उम्र 50 वर्ष के ऊपर है. त्रिलोचन जी बिना विचलित हुए और बिना झिझके बोले, नहीं भाई साहब यह नहीं हो सकता. कवि की उम्र हर हाल में पचास के नीचे ही होगी, आप फिर से तस्दीक कर लीजिये. मैं प्रसन्न जी के साथ रहा था, सो चंद्रभूषण ने मेरी तरफ़ देखा, मैंने कहा त्रिलोचन जी का अनुमान सही है. अब हैरान होने की बारी उनकी थी. लेकिन मैंने पूछा, त्रिलोचन जी इतने आत्मविश्वास से ये बात आपने किस आधार पर कही? त्रिलोचन ने कहा ‘कवि यह; पुराना नहीं, नया है. और इसकी यह पहली कविता है. लम्बी कविताओं के लिए लम्बी सांस चाहिए और यह लम्बी सांस 50 के पार साधना मुश्किल होता है. वह सधती है 50 से पहले ही नहीं तो फिर नहीं सधती या विरले ही सधती है. इस आधार पर मैं अपनी बात कह रहा हूँ. यह भी कि यह कवि आगे संभव है अब और कोई दूसरी ऐसी लम्बी कविता न लिख पाए.
एक बार ट्रेन में त्रिलोचन जी, कामरेड विनोद मिश्र और मैं एक साथ एक कार्यक्रम में लखनऊ जा रहे थे । मैंने इस प्रसंग को कामरेड विनोद मिश्र को सुनाया. प्रसन्न जी पार्टी में कामरेड विनोद मिश्र के साथ लम्बे समय तक रहे थे. कामरेड विनोद मिश्र ने त्रिलोचन जी की ओर देखा और उनसे जानना चाहा, त्रिलोचन ने कुछ और विस्तृत आधार देते हुए अपनी बात कही. कामरेड विनोद मिश्र चकित थे, बोले आपने कवि की उम्र का बिलकुल सही अनुमान लगाया है लेकिन मैं दंग हूँ कि कविता पढ़ कर उम्र का अनुमान भी लगाया जा सकता है और इतना सटीक!? अपनी हैरानी उन्होंने दो-तीन बार दुहराई, त्रिलोचन शांत चुप बैठे थे.

त्रिलोचन जी जनमत के आवास पर आते थे तो कई बार हम सब लोग एक साथ खाना खाते थे. मान लीजिये रोटी, चावल, दाल, सब्जी बनी है, तो हम लोग प्लेट-कटोरी में सब एक साथ ले कर खाने बैठते. मैंने कई बार गौर किया कि त्रिलोचन जी पहले केवल छूछे रोटी खाते, फिर छूछे चावल, फिर सब्जी खाते और अंत में दाल पी जाते. एक दिन मैंने उनसे पूछा इस तरह क्यों खाते हैं, जैसे खाया जाता है वैसे क्यों नहीं खाते!? त्रिलोचन ने कहा- ‘जीवन में इनमें से एकाध ही मिलता रहा, अमूमन एक ही. तो ऐसे ही खाना पड़ता रहा है. (मुस्कुराते हुए) क्या ठिकाना आगे कभी भविष्य भी वैसा ही मिले, तो अपनी खाने की यह आदत मैं क्यों छोड़ूं.’ कहीं बहुत अन्दर मेरी आँख नम हो आई. मुझे त्रिलोचन की उस मुस्कराहट में अतीत से लिपटी भविष्य के अनिश्चितताओं की सघन सांवली छायाएं दिखीं. जिन्हें त्रिलोचन मूलतः आत्मपरक कवि लगते हैं उन्हें यह देखना चाहिए कि त्रिलोचन का जो जीवन रहा वही हमारे देश की बहुसंख्यक जनता का वस्तुगत जीवन है. त्रिलोचन की आत्मपरकता बहुसंख्यक जीवन की वस्तुपरकता है. उससे एकमएक-

पूरे दिन मशीन पर खटना,
बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई
का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना।
इस उस पर मन दौड़ाना। फिर उठकर रोटी
करना । कभी नमक से कभी साग से खाना ।
आरर डाल नौकरी है। यह बिलकुल खोटी
है। इसका कुछ ठीक नहीं है आना जाना।
और न जाने क्यूँ त्रिलोचन की “स्पष्टीकरण” कविता को यहाँ पूरा का पूरा देने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ. –
स्पष्टीकरण
मित्रों, मैंने साथ तुम्हारा जब छोड़ा था
तब मैं हारा थका नहीं था, लेकिन मेरा
तन भूखा था मन भूखा था। तुम ने टेरा,
उत्तर मैंने दिया नहीं तुम को : घोड़ा था

तेज़ तुम्हारा, तुम्हें ले उड़ा। मैं पैदल था,
विश्वासी था ‘‘सौरज धीरज तेहि रथ चाका।’’
जिस से विजयश्री मिलती है और पताका
ऊँचे फहराती है। मुझ में जितना बल था

अपनी राह चला। आँखों में रहे निराला,
मानदंड मानव के तन के मन के, तो भी
पीस परिस्थितियों ने डाला। सोचा, जो भी
हो, करुणा के मंचित स्वर का शीतल पाला

मन को हरा नहीं करता है। पहले खाना
मिला करे तो कठिन नहीं है बात बनाना।

त्रिलोचन से आखिरी मुलाक़ात

अक्टूबर 31, 2007 को हमलोग त्रिलोचन जी से मिलने, वैशाली, गाजियाबाद (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली) में उनके बेटे अमित के यहां गए थे।
मिलने गए लोगों में भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, पॉलित ब्यूरो सदस्य प्रभात चौधरी, इरफान, संजय जोशी, प्रमोद सिंह, उमा गुप्ता, इंडिया टुडे के कला संपादक सुवाचन यादव आदि भी थे।
यह हम सबकी उनसे अंतिम मुलाकात साबित हुई। बातें बहुत हुईं लेकिन जो त्रिलोचन ने बीच-बीच में बारहा बात कही वह कचोट सी सीने में आज भी रह-रह उठ आती है। त्रिलोचन बनारस जाने की अपनी इच्छा व्यक्त करते। उस वक़्त वो भोली निर्मल आंखें न जाने कैसी निरीहता से भर आती थीं। खैर, उन्हें हम सब भी आश्वस्त करते रहे कि आप बनारस चलेंगे जरूर।
बातों के दौरान उन्होंने नागार्जुन को भी याद किया- कि उनको ज़िन्दगी के आखिरी वर्षों में मछली खाने का जुनून सा था, कि उनको मछलियों की जितनी किस्मों के नाम मालूम थे उतने शायद ही किसी को मालूम होंगे.
त्रिलोचन जी थके और बीमार तो थे लेकिन हम लोगों की उपस्थिति के दौरान उन्होंने लेटना गवारा नहीं किया. जब तक हम लोग रहे वे बैठ कर ही बात करते रहे. उनके बेटे अमित का कहना था कि हम लोगों के आने और हमारी बातों ने उन्हें थोड़ी ताज़गी दे दी है.

बनारस जा कर अवधेश प्रधान और बलिराज पांडेय से बात हुई और त्रिलोचन को बनारस ले आना तय भी हो गया। लेकिन ..!
लाने के लिए हुआ तो वे बीमार पड़े, यात्रा की स्थिति में न थे। और भाकपा (माले) के कोलकाता में हो रहे 8वें महाधिवेशन के ऐन बीच खबर आई – त्रिलोचन जी नहीं रहे। कहां हमें उन्हें बनारस ले आना और उनका वहां जनसंस्कृति-सम्मान करना था और कहां अधिवेशन के बीच उन्हें श्रद्धांजलि देनी पड़ी। मन में हूक सी उठ रही थी – हम लोग उन्हें बनारस नहीं ला पाए।
बनारस आज भी उनकी राह निहारता रहता है और त्रिलोचन की बनारस जाने की निरीहता भरी आंखें आज भी मन में अहरह गड़ती हैं!

(साभार : त्रिलोचन पर केन्द्रित लोकचेतना वार्ता पत्रिका में प्रकाशित लेख के कुछ अंश)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion