समकालीन जनमत
जनमतशख्सियत

राहुल का सपना और सच

(राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893-14 अप्रैल 1963)को उनकी पुण्यतिथि पर समकालीन जनमत टीम की ओर से श्रद्धांजलि।)

अवधेश प्रधान


राहुल जी ने पचीस साल की उम्र में आज से सौ साल पहले एक सपना देखा था- बीसवीं सदी में बाईसवीं सदी का सपना।

बागमती के किनारे नेपाल की एक गुफा में दो सौ वर्षों की नींद के बाद विश्वबंधु जी जागते हैं और बदली हुई दुनिया को देखने निकल पड़ते हैं।

गंगा के किनारे पहुँच कर नहा-धोकर कुछ फल खाकर आगे बढ़े तो उन्हें ऊपर से जाते हुए ताँबे के तार दिखाई दिए जिनसे बिजली गुजरती थी। केले और नारंगी के बगीचे पार करने के बाद उन्हें सेबों के बगीचे मिले जो ऊपर पर्वत की चोटी तक चले गए थे।

‘‘यह बात नेपाल के लिए मुझे नई मालूम पड़ी।’’ नलों में पानी सब जगह पहुंचने का इंतजाम था। कहीं-कहीं पीने के पानी के भी नल थे। चार कोस और चलने के बाद लोग मिले-स्त्री पुरुष सभी स्वस्थ, पैन्ट पहने हुए, हाथ और पैर दस्तानों और मोजों से ढंके हुए।

उनमें से एक आदमी ने बताया- यह ईसवी सन् 2124 चल रहा है। पहले पहाड़ी झरनों का पानी इकट्ठा करके बिजली पैदा की जाती थी, पहाड़ों और जंगलों को काटकर खेत बनाए गए थे, उससे धीरे-धीरे पहाड़ सूख गए। खेती उजड़ गई। अब बिजली का कारखाना बंद करके हर तरफ सेब, नासपाती, अंगूर के बाग तैयार किये गए, पहाड़ तर हो गए, अब हरियाली ही हरियाली है, झरने भी बहुत हैं।

नदियों के जल- प्रपात से प्रचुर बिलजी पैदा की जाती है; बिजली से ही रेलें मोटरें चलती हैं; विदेह, मल्ल और कोसल तक को बिजली यहां से जाती है, भेंड़े हैं, कंबल के कारखाने हैं, आधे से अधिक भारत को गर्म कपड़े नेपाल देता है। ‘‘आजकल जो वस्तु जहाँ अच्छी हो सकती है वही वहां पैदा की जाती है।

प्रायः एक गांव एक ही चीज पैदा करता भी है। वहां जरूरत की दूसरी-दूसरी चीजें और जगहों से पहुँचती हैं।’’वनस्पति विज्ञान की सहायता से फलों में मनचाहा रूप, रस, गंध, आकार विकसित कर लिया जाता है।
विश्वबंधु जिस बस्ती में पहुँचे थे उसका नाम था सेबग्राम।

वह कदली ग्राम और नारंगी ग्राम से होते हुए यहाँ पहुँचे थे। सेबग्राम के साथी सुमेध ने उनका स्वागत किया, उन्होंने समकालीन सामूहिक जलपान गृह में निश्चित समय पर एकत्रित वहां के श्रमिक साथियों से परिचय कराया, वर्तमान जगत् की प्रगति का संक्षिप्त परिचय दिया।

सुमेध के पिता काठमांडो के थे लेकिन नालंदा में पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने गया के शाकग्राम को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। सुमेध नालंदा से पढ़े लेकिन उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र सेबग्राम को बना लिया। इसी प्रकार सेबग्राम की 5 हजार की आबादी में आधे स्त्री-पुरुष दूसरी जगहों के हैं- कोई काशी का, कोई अनुराधपुर का, कोई काश्मीर का आदि।
नेपाल में राजा और उसका शासन किताबों की चीज हो गई। घर-बार, बाग-बगीचे, कल-कारखाने, फर्नीचर, खेती-बारी, स्त्रीपुरुष सभी राष्ट्र के हैं। गांव, जिला, प्रांत, देश और अखिल भूमंडल सबका शासन चुने हुए पंचों की पंचायतों से होता है। सुमेध ने सेबग्राम के ग्रामणी देवमित्र से बात कराई-‘रेडियो-फोन’ के माध्यम से। शीशे पर उनका प्रतिबिम्ब और टेलीफोन से आवाज। घंटे भर के भीतर सारे संसार में इसी माध्यम से नालंदा के पूर्व आचार्य विश्वबंधु के दो सौ बरस बाद जीवित लौटने का समाचार प्रसारित हो गया। आचार्य को भारी आश्चर्य हुआ, फिर मन को समझाया, ‘‘यह सब विज्ञान के चमत्कार हैं।’’
सेबग्राम के पुस्तकालय में नालंदा के इतिहास-प्राध्यापक विश्वमित्र की एक पुस्तक थी-‘‘सार्वभौम राष्ट्र संगठन का इतिहास।’’ यह पुस्तक पढ़ते हुए विश्वबंधु ने 1924 के बाद की कुछ प्रमुख घटनाएं विशेष रूप से नोट कीं- ब्रिटिश छत्रछाया में भारत को स्वराज 1940 तक, संयुक्त एशिया राष्ट्र 1990 तक, संयुक्त एशिया-अफ्रीका-आस्ट्रेलिया राष्ट्र 2000 तक, संयुक्त यूरोप अमेरिका राष्ट्र 2010 तक, भूमंडल का एक राष्ट्र 2024 तक। उसी समय से ईसवी सन् के साथ सार्वभौम संवत चला। इस हिसाब से 2124 में 100 वां सार्वभौम संवत् चल रहा था। उस समय अखिल भूमंडल के राष्ट्रपति भारत के श्रीदत्त चुने गए थे, प्रधान मंत्री जापान के ओहारा, शिक्षा मंत्री रूसी महिला मोनोलिन, स्वास्थ्यमंत्री अमेरिका के डेविड। सेनामंत्री (रक्षामंत्री) का पद 2024 में ही समाप्त हो गया था। अब कहीं न सेना है, न सेनापति।
गांव के ‘अतिथि विश्राम’ में विश्वबंधु की भेंट विश्वमित्र से हो गई जो तिब्बत की अनुसंधान-यात्रा से लौटकर आज ही आए थे। वहीं उन्हें रेडियो फोन से नालंदा विद्यालय के आचार्य वशिष्ठ ने उन्हें नेपाल से सीधे नालंदा आने का निमंत्रण दिया। विश्वबंधु को यह सब देख-सुन-जानकर आश्चर्य के साथ साथ आनंद भी हो रहा था। बीसवीं सदी में ‘‘समानता की धीमी सी आवाज उठी थी किन्तु यह रूपरेखा स्वप्न में भी कहां मालूम होती थी ?… मुझे यह देखकर प्रसन्नता हो रही है कि तुम्हारे संसार ने आशातीत उन्नति की है।’’
विश्वबंधु को नालंदा विद्यालय की प्रगति जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। विश्वमित्र ने उन्हें बताया कि नालंदा दर्शन और इतिहास के अध्ययन का संसार में सबसे बड़ा केन्द्र बन गया है। वहां यूरोप, अमेरिका, जापान, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया से विद्यार्थी आते हैं। प्राचीन वस्तुओं का सबसे बड़ा संग्रहालय वहां है। प्राचीन भाषाओं और लिपियों का सबसे बड़ा अध्ययन केन्द्र है। राजगृह के वैभार गिरि पर यहां की वेधशाला स्थापित है। ज्योतिष के विकास में भी इसकी बड़ी भूमिका है। तक्षशिला मुख्य रूप से आयुर्वेद, वनस्पति, प्राणी विज्ञान आदि के लिए विख्यात है। सारे संसार में 17 वर्ष का अध्ययन सबके लिए अनिवार्य है। 3 वर्ष की उम्र में बालक बालोद्यान में, 6 वर्ष तक शिशु कक्षा में, 6 से 14 तक बालकक्षा में, फिर 14 से 20 तक युवा-कक्षा में शिक्षा पाता है। फिर बच्चे अपनी प्रवृत्ति और योग्यता के अनुसार भिन्न भिन्न व्यवसायों में लग जाते हैं। जिनकी प्रवृत्ति ज्ञान के क्षेत्र में होती है, उन्हें आगे भी पढ़ने का अवसर दिया जाता है।
सड़क के दोनों ओर पक्के मकान। तीन कमरों का एक घर। ऐसे सौ घरों की एक श्रेणी। प्रत्येक श्रेणी का एक बड़ा हाल जिसमें पुस्तकें, वाद्य और मनोरंजन की वस्तुएं, टेलीफोन आदि। सेबग्राम में ऐसी 25 श्रेणियां थीं। सड़कों पर स्त्री-पुरुष बात करते साथ-साथ चल रहे थे। भोजनगार में पुरुषों के साथ स्त्रियों को भी निः संकोच भोजन करते देखकर विश्वबंधु ने मन में कहा, ‘‘बीसवीं शताब्दी के भारतीय ऐसा स्वप्न कब देख सकते थे।’’ शिक्षा, सभ्यता, शुद्धता में सभी स्त्री-पुरुष उच्च वर्ण के मालूम होते थे। एकवर्णमिदं सर्वम्। संस्थागार में लोगों का जमावड़ा था, न वहां कोई कृश था, न मलिन। विश्वबंधु ने पहले ही देख लिया था कि लोग घरों में ताले भी नहीं लगाते। संस्थागार में आयोजित अपनी स्वागत सभा में विश्वबंधु ने लोगों को संबोधित करते हुए बीसवीं सदी के भारत की गरीबी, निरक्षरता, पिछड़ेपन, गंदगी, असभ्यता, रोग-व्याधि आदि के बारे में विस्तार से बताया- लोगों को पेट भर अन्न और तन ढकने को वस्त्र तक सुलभ न थे, 1918 के दिसंबर में सिर्फ इन्फ्लुएन्जा की बीमारी में 4-5 सप्ताह के अंदर 60 लाख आदमी मर गए थे, ‘‘ वह पशु जीवन नहीं, नरक का जीवन था’’। कुछ मुट्ठी भर नवाब राजा, बाबू, तालुकेदार, बड़े-बडे़ जमींदार, सेठ-साहूकार, महाजन कारखानेदार थे जिन्हें सब सुख सुविधा सुलभ थी। इनकी हवेलियों में सैकड़ों लौंड़ियाँ रहती थीं, रनिवास में सैकड़ों युवतियां। ये लोग बलात्कार, व्यभिचार, अत्याचार की मूर्ति होते थे लेकिन पंडित, मौलवी सभी इन्हें धर्ममूर्ति मानते थे। जात-पाँत का भेदभाव इतना गहरा था कि श्रमजीवी वर्ग के लोग भी ऊँची और नीची श्रेणियों में विभाजित थे। अंत में विश्वबंधु ने श्रोताओं को नए युग की प्रशंसा करते हुए अपना संदेश दिया, ‘‘मनुष्य कहां तक उन्नति कर सकेगा, यह असीम है। आपका समाज बहुत सुरक्षित और सभ्य है, किन्तु आप उन्नति करके आज के अंत को कल का आरंभ बना सकते हैं।…… उन्नति की आकांक्षा और ज्ञान का अधिक से अधिक प्रसार यही दो मूल बातें हैं जिनसे आप ने अब तक उन्नति की है और आगे भी इसके लिए असीम क्षेत्र पड़ा हुआ है।’’
विश्वबंधु ने नालंदा के लिए प्रस्थान करने से पहले कुछ और व्यवस्थाएँ देखीं-पाखाने का सारा काम मशीन से होता है, भंगी नाम की जाति ही उठ गई। पान, तंबाकू, बीड़ी-सिगरेट, शराब-गांजा, अफीम का रिवाज उठ गया है। मजहब नहीं रह गए। हिंदू-मुसलमान की पोशाक, बातचीत, आचार व्यवहार में कोई फरक नहीं रहा। समूचे भारत की एक ही भाषा है ‘‘भारती’’ और एक ही लिपि है नागरी। बन्दर, सूअर, कुत्ता, बिल्ली सभी का जाति उन्मूलन हो गया; प्राणी विज्ञान की पढ़ाई के लिए कुछ पालकर रखे गए हैं। मांसाहार उठ गया। न पशु हैं, न पशुआें की हिंसा है। कोढ़, बवासीर, उपदंश, राजयक्ष्मा, मृगी, दमा आदि रोग होते ही नहीं। सामान्य ज्वर, सिर दर्द, अजीर्ण, चोट-फाट जैसे मामूली रोग होते हैं। उन्हें बताया गया- ‘‘अब चिकित्साशास्त्र की बहुत सी पढ़ाई सिर्फ पढ़ने ही के लिए होती है, औषधि चिकित्सा का तो यह हाल है ही, शल्य चिकित्सा की और भी कम आवश्यकता पड़ती है। शिशु उद्यान में माताएँ अपने और दूसरों के बच्चों का समान स्नेह से पालन-पोषण-शिक्षण करती हैं। वहां बच्चों को जो सुख-सुविधाएं सुलभ हैं वे पुराने सम्राटों के राजकुमारों को भी नसीब न थीं।’’
नालंदा जाते समय विश्वबंधु ने देखा कि कहीं पुलिस नहीं है, बस ‘सेवक’ किस्म के कर्मचारी हैं। रेल में न टिकट लगता है, न फर्स्ट सेकेन्ड थर्ड क्लास होते हैं। अखबारों में विज्ञापन नहीं होते। रास्ते में ‘कागज ग्राम’ मिला जहां कागज का कारखाना है। ‘गोग्राम’ में गाएं और ‘भैसग्राम’ में भैसें पाली जाती हैं और उनके दूध का रोजगार होता है। ‘शालिग्राम’ में धान और चने की खेती होती है, ‘गेहूं ग्राम’ में गेंहू की। ऐसे ही बेरग्राम, तेलग्राम, दालग्राम, दर्जी ग्राम आदि। अचार ग्राम में कटहल, आम, आंवला, आदि के अचार बनते हैं। सब जगह बिजली और नहरों का जाल। मानव श्रम के साथ-साथ मशीनों का उपयोग। सामूहिक उत्पादन, सामूहिक स्वामित्व।
नालंदा स्टेशन पर उतरते ही आचार्य विश्वमित्र ने 50 प्रमुख उपाध्यायों के साथ विश्वबंधु का स्वागत किया। परिसर में उन्होंने ‘वसुबंधु भवन’ का परिदर्शन किया जिसमें सवा लाख आदमियों के बैठने का स्थान है। पाँच तलों के ’अतिथि विश्राम’ में हजार आदमी ठहर सकते हैं। बिजली के पंखे, पानी के नल। अतिथि विश्राम के द्वार पर ट्राम है जो राजगृह तक फैले हुए तमाम कालेजों तक जाती है। विश्वबंधु ने शिशु-कक्षा की सुशिक्षा की सुव्यवस्था देखी और उन दिनों को याद किया जब स्त्रियों और अस्पृश्य जातियों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। उन्होंने मन ही मन कहा- ‘‘वह भी एक स्वप्न का समय था, यद्यपि वह स्वप्न हजार वर्षों लंबा-चौड़ा था। आखिर मनुष्यों ने समझा- एक दूसरे को छोटा बनाने से हमें स्वयं नीच बनना पड़ता है। संसार फिर उस स्वप्न को न देखे, उस नशे या मोह-निद्रा में न पड़े।’’ शिशु-कक्षा उम्र के चौथे वर्ष से छठे वर्ष तक चलती है और बाल कक्षा सातवें वर्ष से शुरू होकर 14 वें वर्ष में समाप्त होती है, फिर तरुण कक्षा 15 वें वर्ष से 20 वेंं वर्ष तक चलती है। शिशु कक्षा में अक्षरों और अंकों की पहचान करा दी जाती है। लेकिन ज्यादातर शिक्षा मौखिक रूप से, कथाओं, गीतों और खेलों के माध्यम से दी जाती है। बालकक्षा में साहित्य, गणित, भूगोल, व्याकरण, संगीत, आलेख्य, कृषि, गोरक्षा आदि विषय हैं। बालक की स्वाभाविक रुचि और प्रवृत्ति का ध्यान रखा जाता है। बालकक्षा में ही उन्हें समूचे संसार में चलने वाली ‘सार्वभौमी’ भाषा का ज्ञान करा दिया जाता है। बालकों-बालिकाआें की शारीरिक, मानसिक बौद्धिक उन्नति देखकर विश्वबंधु ने लक्ष्य किया कि ‘पारस्परिक असमानता’ उठा देने और ऐसी ‘सर्वगुण भूषित शिक्षा’ की व्यवस्था करने के ही कारण यह मनुष्य लोक ‘पुराने खयाली देव लोक से भी अच्छा’ हो गया है। बालकक्षा की शिक्षा मिश्रित और सर्वतोमुखी प्रकार की है लेकिन तरुण कक्षा की शिक्षा विद्यार्थी की प्रवृत्ति के अनुसार किसी एक विषय पर केन्द्रित होती है। नालंदा में भाषा- पुरातत्व, ज्योतिष, दर्शन, विज्ञान, साहित्य, संगीत, आलेख्य, वास्तु, आयुर्वेद, वनस्पति, प्राणि, कृषि, यांत्रिक एवं शिक्षण के 15 विद्यालय हैं। यहाँ सारे संसार से विद्यार्थी आते हैं और छात्रावासों में रहकर पढ़ाई करते हैं। लड़के लड़कियों के विद्यालय और छात्रावास इकट्ठे हैं क्योंकि ‘ स्त्री पुरुष का भेद ही उठा-सा दिया गया है।’
विश्वबंधु ने नालंदा में पंद्रह दिन रहने के बाद भारत के समस्त प्रजातंत्रों की यात्रा की, गांव से लेकर जिला, प्रांत, देश और सार्वभौम स्तर तक की शासन प्रणाली की जानकारी प्राप्त की। उन्होंने लक्ष्य किया कि समानता के आदर्श को व्यावहारिक जमीन पर उतारने के कारण न पुराने पेशे रह गये हैं, न भेदभाव ; न सामाजिक बुराइयां रह गयी हैं, न पुरानी बीमारियां। स्त्री-पुरुष दोनों प्रेम के बंधन से बंधे हैं, पहले की तरह गुप्त व्यभिचार की भरमार नहीं रही। ‘यह राष्ट्र के प्रयत्न का फल है कि पृथ्वी पर अंधे, लूले, लगंड़े, बहरे, गूंगे, काने, बुद्धिशून्य तथा विकृत-इन्द्रिय व्यक्ति खोजे नहीं मिलते।’ विश्वबंधु का सपना क्या है-पूरा रामराज्य का नक्शा है! दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज काहुहिं नहिं ब्यापा। यह सपना चाहे जितना सुन्दर हो लेकिन इसमें कुछ भयावनी कल्पनाएं भी हैं जैसे गाय और भैस जैसे उपयोगी पशुओं को छोड़कर अनेक अनुपयोगी और जंगली जीवों को योजनापूर्वक खत्म कर देना और जीव विज्ञान की पढ़ाई के लिए उनके कुछ इने-गिने नमूनों को संग्रहालयों और प्रयोगशालाओं में रखना। जब उन जीवों की ही जरूरत नहीं रही तो फिर उनके वैज्ञानिक अध्ययन की क्या उपयोगिता ? इसी प्रकार भारत भर में केवल ‘भारती’ भाषा और नागरी लिपि का और संसार के सभी देशों में आपसी सम्पर्क के लिए केवल ‘सार्वभौमी’ का प्रयोग तथा शेष सभी भाषाओं का उन इने-गिने जीवों के नमूनों जैसा उपयोग! इसी प्रकार मानव समाज से सभी धर्मों का उठा दिया जाना भी बेहद अस्वाभाविक और असंगत कल्पना है। यह समस्या के समाधान का बेहद सरलीकृत और तानाशाही तरीका है। इसी क्रम में राहुल जी ने कभी लिख मारा था कि एकता का निर्माण होगा मजहबों की चिता पर! असली बात है मानव समाज को समानता के आदर्श के अनुरूप गढ़ना। विश्वबंधु ने लक्ष्य किया था कि ‘‘भूमण्डल में सभी जगह अब समता का राज्य है। धर्म के नाम पर, ब्राह्मण-राजपूत, शेख-सैयद के नाम पर, धन और प्रभुता के नाम पर, गोरे और काले के नाम पर जो अत्याचार पहले होते थे, कितनी मानव-संतानें दूसरों के पैरों के नीचे आजन्म कुचली जाती थीं, उन सब का अब नाम नहीं। अब मनुष्य मनुष्य बराबर हैं, स्त्री-पुरुष बराबर हैं।’’
राहुल जी ने यह जो मानव समाज में बराबरी का सपना देखा था इसके पीछे 1917 की रूसी क्रान्ति की प्ररेणा थी। उन्हें खबरों से बस इतना ही पता चला था कि रूस में राजा और धनियों का शासन खत्म कर दिया गया और अब वहाँ गरीबों का राज है। बस इतनी सी सूचनात्मक पूंजी पर उन्होंने ‘बाईसवीं सदी’ का खाका बना लिया, हांलाकि उसे पुस्तकाकार लिखित रूप पांच-छह वर्षों बाद मिला और सोवियत भूमि का प्रथम दर्शन करने का अवसर तो उन्हें 1935 में मिला जब जापान और कोरिया की यात्रा के बाद मंचूरिया पार कर रेल द्वारा उन्होंने 29 अगस्त से 21 सितम्बर तक रूस के विभिन्न स्टेशनों से गुजरते हुए सोवियत भूमि की पहली झांकी देखी। राहुल जी ने लक्ष्य किया कि यहां की स्त्रियां लंदन और पेरिस की स्त्रियों जैसी ही गोरी हैं, ‘‘किन्तु यहां उनमें वह अन्तर नहीं था जो यूरोप के भिन्न-भिन्न वर्गों की स्त्रियों में पाया जाता है। ‘‘(मेरी जीवन यात्रा भाग-2, अध्याय-18) 1930 में जैसा रवीन्द्रनाथ ने देखा था, 1935 में वैसा ही राहुल जी ने भी देखा कि ‘‘लोगों के शरीर पर मजबूत कपड़े थे लेकिन शौकीनी सफेदपोशी नहीं थी।’’ (वही) मंगोल स्त्री-पुरुष भी रूसियों जैसे ही थे, उनमें कोई चोटी वाला नहीं था। पंचायती खेत (कलखोज) में उन्होंने टै्रक्टर चलते देखा, गांवों में बिजली की रोशनी और रेडियों के तार खम्भे देखे। ‘‘मैंने एक गांव में गुलाबी गालों वाली एक तरुण सुन्दरी को बहंगी पर पानी भर कर लाते देखा। मुझे कहावत याद आ गयी, रानी भरै पानी। किन्तु उन रानियों का जमाना तो दुनिया के इस षष्ठांश से उठ गया, यहां अब पानी भरना शरम की बात नहीं रही।’’ (वही)
उनके डिब्बे में एक लिथुआनियन सज्जन थे जो ‘‘बोलशेविकों को गाली देने में ही संतोष प्राप्त करते थे।’’ एक क्रान्तिपूर्व अभिजात वर्ग की पली-बढ़ी मिसेज मोलेर थीं जो रूसी की तरह अंग्रेजी और फ्रेंच भी बोल रहीं थी और बोलशेविकों को दिल खोलकर गाली दे रही थीं। राहुल जी ने सोचा, ‘‘ करोड़पति सेठ की बेटी अपने पिता की सम्पत्ति छीन लेने वाले बोलशेविकों को गाली नहीं देगी तो आशीर्वाद देगी?……. उन्होंने कोई नई बात नहीं कही जिसे मैं पढ़ चुका न होऊं। अफसोस कि मेरे दिल में इस वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखलाने की जरा भी प्रेरणा नहीं रह गयी थी। अभी मैंने उस वर्ग का नाम जोंक नहीं रखा था किन्तु उसे सांप जरूर कहता था।’’ (वही) गांवों में गिरजों की अच्छी स्थिति देखकर और नई कब्रों में क्रास देखकर मालूम होता था कि ‘‘धर्म मानने वाले भी काफी हैं।’’ (वही) बाकू की गाड़ी में उनकी सहयात्री एक टाइपिस्ट प्रौढ़ा थी जिसने बताया कि वह हवाई जहाज भी चलाती है और बंदूक भी। उसने कहा-हिटलर इधर मुँह करेगा तो दिखला दूंगी कि सोवियत स्त्रियां कैसी होती हैं। उसने अपनी कड़ी हथेली दिखाते हुए कहा- मैं टै्रक्टर भी चला सकती हूँ। ‘‘मैंने समझ लिया, यहां मक्खन सी हथेली वाली पद्मिनियों का मान नहीं है।’’ (वही) काकेशस से गुजरते हुए उन्होंने कुछ ताशकंदी सवारियों को देखा, लड़कों और स्त्रियों के गले में ढेर सारी ताबीजें बधी थीं, ‘‘बोलशेविक इन ताबीजों को जबरदस्ती तोड़कर नहीं फेंकना चाहते थे।’’ बाकू शहर में उन्होंने एक यहूदी मंदिर को क्लब में परिणत देखा, एक ईसाई गिरजा भी दूसरे रूप में था। बाकू में उन्होंने हिन्दुओं की बड़ी ज्वाला माई के दर्शन किये। एक चौकोर आंगन के चारों ओर पक्की कोठरियां थी जिनमें नागरी के कई लेख थे। उनमें से एक को राहुल ने पढ़ा- ‘‘1160 ओं श्री गणेशाय नमः स्वस्ति श्री नरपति विक्रमादित साके……..संवत् 1866….।’’
बाकू में राहुल जी ने स्तालिन कमकर सांस्कृतिक प्रासाद देखा। एक पंच महला इमारत। दो सभाभवन जिनका उपयोग नाटक, सिनेमा, व्याख्यान और सोवियत चुनावों के लिए होता था। मिट्टी के तेल का म्युजियम देखा। पुस्तकालय में 5 हजार पुस्तकें थीं। पंचायती भोजनशाला देखी जहाँ 7 हजार से अधिक लोग नाश्ता और भोजन करते थे। रसोई घर में सब कुछ के लिए मशीनों की व्यवस्था थी। स्तालिन प्रासाद स्कूल में 7 से 17 वर्ष के 1800 लड़के-लड़कियाँ एक साथ पढ़ती थीं, इनमें तुर्क, तातार, आरमेनियन और रूसी जाति के बच्चे थे। स्कूल में भोजन और शिक्षा सब कुछ मुफ्त। पूछा गया-यहाँ धर्म के विरुद्ध शिक्षण किस तरह देते हैं? अध्यापक ने बतलाया-‘‘धर्म के विरुद्ध क्या, हम तो अपनी पुस्तकों में धर्म का नाम भी आने नहीं देते हैं, कोई घर से सुन-सुनकर कुछ पूछता है तो उसका साइंस के सहारे समाधान करते हैं।’’ (वही)
वागीरोफ शिशुशाला में 4 से 6 वर्ष के डेढ़ सौ बच्चे रहते हैं। उनके लिए नल, रूमाल टाँगने की खूँटियाँ, खाने के कमरे में छोटी-छोटी मेजें, छोटी-छोटी कुर्सियाँ, छोटे-छोटे कप-प्लेट, खिलौने आदि की व्यवस्था थी। बच्चे कागजों पर जो भी तस्वीरें बनाते हैं उनकी फाइल बना कर रखी जाती है। जिनमें चित्रकला की प्रतिभा होती है उन्हें विशेष विद्यालयों में भेजा जाता है। ‘‘संगीत, अभिनय, गणित आदि कलाओं के भी असाधारण प्रतिभाशाली इसी तरह अलग करके सुशिक्षित किए जाते हैं।’’ बाकू में इस तरह की 100 से भी अधिक बालशालाएँ हैं। शहर में सभी छोटी-बड़ी दूकानें राष्ट्रीय हैं, व्यक्तिगत कोई नहीं।
राहुल जी ने सोवियत भूमि की दूसरी यात्रा सोवियत अकादमी के निमंत्रण पर 1937 में की। महीने-डेढ़ महीने ईरान में रहकर पानी के जहाज से 12 नवंबर को बाकू के बंदरगाह पर उतरे। बाकू में बहुत परिवर्तन हो गया था, बड़े-बड़े मकान बन गये थे। मास्को में पौलीतेकनीक म्यूजियम देखा। वहाँ खेती, बागवानी, पशु पालन, कारखाने और खानों के उपयोग में आने वाले यंत्रों और पंचवर्षीय योजनाओं की सफलता के नक्शे रखे थे। गोपालन का दृश्य एकदम वास्तविक मालूम पड़ता था। विश्वविद्यालय, लेनिन पुस्तकालय और सांस्कृतिक उद्यान भी देखा। लेनिनग्राद में उनकी मुलाकात आचार्य श्चेरवात्स्की से हुई। उनके विद्यार्थी राविनोविच ने हरमीताज म्युजियम दिखलाया। कला और अन्य ऐतिहासिक वस्तुओं का बहुत विशाल संग्रह वहाँ था जिसे एक दिन में देखना संभव न था। वहाँ मध्य एसिया से प्राप्त मूर्तियों, भित्तिचित्रों, काष्ठ फलकों, वस्त्रों और बर्तनों को बहुत अच्छे ढंग से सजाकर रखा गया था। एक जगह तुड.गुत और मंगोल साम्राज्य की ऐतिहासिक चीजें एकत्र की गई थीं। वहाँ सोवियत तुर्किस्तान की खुदाई से निकली यवन-वाह्लीक कला की वस्तुएँ भी रखी थीं। ईरान की प्राचीन कला के जितने नमूने यहाँ सुरक्षित हैं उतने किसी और म्युजियम में न होंगे। ई0 पू0 5वीं सदी से 7वीं सदी की बहुत सी चीजें यहाँ जमा थीं। एक प्राचीन गिरजे को भी म्युजियम का रूप दे दिया गया था। गिरजा में भगतों की संख्या नाम मात्र को रह गई है। आधुनिक भारतीय भाषाओं के विद्वान वारान्निकोव से राहुलजी की मुलाकात हुई। उन्होंने प्रेमसागर का रूसी अनुवाद किया है, अभी तुलसीकृत रामायण का रूसी अनुवाद पूरा करने में लगे हैं। सोवियत सिनेमा घर दर्शकों से भरे रहते हैं। दिसंबर से राहुल जी इंडो-तिब्बती विमाग की सेक्रेटरी लोला को संस्कृत पढ़ाने लगे और बदले में उनसे रूसी सीखने लगे। 22 दिसंबर को दोनों एक दूसरे के जीवन साथी बन गए। डेढ़ महीने साथ रहकर वे 13 जनवरी को वहाँ से बिदा हुए। मास्को से लौटते समय मध्य एसिया क्षेत्र में स्टेशनों पर उन्होंने बाल कटाए यूरोपीय वेश में कजाक तरुणियों को देखा, ‘‘उनको देखने से क्या पता लगता था कि यह उस देश की लड़कियाँ हैं जहाँ वे 20 साल पहले पूरा बोराबंदी के साथ घर से निकलती थीं।’’ (मेरी जीवनयात्रा भाग 2, अध्याय 23) ताशकंद में देखा कि स्त्रियों में पर्दा नहीं था। तेरमिज में उतरकर वे पास के गाँव में घूमे, कलखोज की व्यवस्था और स्कूल भी देखा। उन्होंने लक्ष्य किया कि क्रांति के बाद नई पीढ़ी के मुसलमानों ने मुल्ला मुजावरों को विदा कर दिया है। सभी जातियों के बीच शादी-ब्याह हो रहा है और गोरे-काले का भेद खत्म हो गया है।
तीसरी बार राहुल जी 1945 में जब रूस पहुँचे तब फसिस्ट जर्मनी रूस के आगे आत्मसमर्पण कर चुका था और विश्वयुद्ध में सोवियत भूमि सुर्खरू होकर उभरी थी। स्तालिनग्राद में जहाज उतरा तो राहुल जी का मन आनंद-विह्वल हो उठा, ‘‘स्तालिनग्राद सारे विश्व के लिए एक पुनीत ऐतिहासिक स्थान है। सारे विश्व पर जर्मन जाति के विजयी झंडे के साथ दासता के भी झंडे को गाड़ने के लिए आगे बढ़े अपराजेय समझे जाने वाले जर्मन फासिस्तों को यहीं पर सबसे पहले करारी हार खानी पड़ी थी।’’ (रूस में पच्चीस मास, पृ0 46) स्तालिनग्राद में चारों ओर युद्ध की बर्बादी के चिह्न दिखाई देते थे,

‘‘स्तालिनग्राद में देखने को क्या था? उसकी तो ईंट से ईंट बज गई थी। जर्मनों को पराजित हुए एक महीना भी नहीं बीता था।….अधिकांश घर धराशायी थे, किसी-किसी के कंकाल कुछ-कुछ दिखाई पड़ते थे। दूर तक हजारों ध्वस्त मोटरों और विमानों का ढेर लगा हुआ था।…..कहीं-कहीं एकाध कारखाने आहत और सुप्त से पड़े थे, उनकी चिमनियाँ मृत थीं।’’ (वही)

3 जून को तेहरान से चलकर बाकू और स्तालिनग्राद होते हुए उसी दिन शाम को मास्को पहुँचे तो पाया कि युद्ध के कारण चीजें बहुत महंगी हैं ‘‘लेकिन सड़कों पर भीड़ में मैंने किसी के शरीर पर फटे कपड़े नहीं देखे और न ही चेहरों पर चिन्ता की छाप थी।’’ (वही, पृ0 49) रेल से लेनिनग्राद जाते हुए रास्ते में युद्ध के मारे उजड़े हुए गाँव दिखे, देवदार के जंगलों की जगह केवल ठूंठ दिखाई दे रहे थे।

युद्ध में लेनिनग्राद को जर्मन सेनाओं ने 900 दिनों तक घेर रक्खा था; उपनगर में ईंट से ईंट बज गई थीं। दीवारें थीं, तो छतें उड़ गई थीं। मालगाड़ियाँ और डब्बे उलटे पड़े थे। सात बरस पहले जिस लोला को युवती देखा था, वह ‘‘बूढ़ी मालूम होती थी।’’‘‘लेनिनग्राद के नौ सौ दिनों के घिरावे का प्रभाव पुराने परिचित प्रायः सभी चेहरों पर दिखाई पड़ता था।’’

1941-42 के जाड़ों में सितंबर में प्रति व्यक्ति 300 ग्रा0 रोटी मिली, अक्टूबर में 200 ग्रा0 और नवंबर में पहले 150 ग्रा0 और फिर 125 ग्रा0। लोग जूतों के तल्ले उबाल कर खाते थे। लोला की बहन और बहनोई भूखों मर गए। लोग घर के पास की जमीन में साग-सब्जी की खेती करते थे, युनिवर्सिटी के लोग भी खाना घर में ही बनाते खाते थे, वैसे राशन कार्ड पर कोई भी 38-40 रूपये में महीने पर भोजन कर सकता था। मिलावट और चोरबाजारी नहीं थी। जनता पुनर्निर्माण के कार्य में लगी हुई थी। खेती की उपज बढ़ाने के लिए कई नहरें खोदी गईं।

फरगाना के इलाके की नहर की खुदाई के समय सरकार ने वहाँ इतिहास और पुरातत्त्व के विद्धान भी भेजे और ध्यान रखा गया कि खुदाई में निकली कोई ईंट, मृत्पात्र, मूर्ति या पुरातात्त्विक महत्त्व की कोई चीज टूटने न पाए।
लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर के बतौर रहते हुए राहुल जी ने लक्ष्य किया कि कक्षाओं में लड़कों-लड़कियों का अनुपात 5 : 4 है, पढ़ाई का आधार मातृभाषा है, यद्यपि छात्रों को फ्रेंच, जर्मन और इंगलिश में से एक युरोपीय भाषा भी लेनी पड़ती थी। परीक्षा केवल मौखिक हुआ करती थी। हाईस्कूल के बाद छात्र विश्वविद्यालय के किसी पाँच वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश लेते हैं।

बड़े-बड़े प्रोफेसर और रेक्टर मजूरिन स्तर की स्त्री के आगे भी टोप उतार कर शिष्टाचार का बर्ताव करते थे। सबको घर के ईंधन के लिए लकड़ी फाड़ना, बर्तन मलना, झाड़ू-बुहारू और कपड़ों की धुलाई स्वयं करना पड़ता था। ‘‘राशन की दूकान से बीस-पच्चीस सेर सामान पीठ पर ढोकर लाना भी प्रोफेसर के लिए हतक-ईज्जत नहीं थी।’’

घर में नौकर रखना बहुत महँगा पड़ता था। पुस्तकों के प्रति प्रेम इतना है कि 50 हजार और एक लाख का संस्करण भी हाथों हाथ बिक जाता है। राहुज जी ने वहाँ अपने छात्रों को हिन्दी, उर्दू, संस्कृत के साथ तिब्बती भी पढ़ाई।
राहुल जी पूँजीवादी पत्रों और लेखकों के इस प्रचार से सहमत नहीं हैं कि रूस में विचार-स्वातंत्र्य नहीं है और वहाँ के लोगों का गला घोंट दिया गया है।

‘‘इसमें संदेह नहीं कि पुराने स्वार्थों के प्रतिनिधियों के लिए समाचार पत्रों का दरवाजा वैसा ही खुला नहीं है जैसे कि बिड़ला आदि के पत्रों में हमारे जैसे स्वतंत्र चेता लेखकों के लिए। इतना अंतर जरूर है कि जहाँ यहाँ के पत्रों को दस पाँच करोड़पति-अरबपति अपने हाथ में करके स्वतंत्र विचारों का गला घोंटे हुए है, वहाँ रूस में विरोधी प्रोपेगंडा के लिए यदि स्थान नहीं दिया जाता तो किसी करोड़पति मालिक के कारण नहीं।’’ (वही, पृ0 84)

वहाँ ज्यादातर पत्र या तो सरकार के हैं या किसी किसान, मजदूर या छात्र संगठन के। सामूहिक खेती (कलखोज) वाले गाँव भी छोटे-छोटे अखबार निकालते हैं। उनमें समाजवाद या सरकार की आलोचना संभव नहीं। 95 फीसदी लोग सोवियत शासन के अंध भक्त हैं, ‘‘स्तालिन तो उनके लिए सजीव भगवान है जिसके विरूद्ध वह एक शब्द भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं।’’ अपनी मित्र मंडली में लोग अपने विचार ख्ुलकर प्रकट करते हैं।

पुराने सामंत या उच्च वर्ग के लोग या कुछ मध्यम वर्ग के भी लोग जो पुराने ख्याल के हैं वे कम्युनिस्टों की, समाजवाद की, सोवियत शासन की या फिर किसानों -मजदूरों की निंदा करते हैं। लेकिन सोवियत सरकार योग्य नागरिकों-वैज्ञानिकों या इंजीनियरों की निंदा-आलोचना का ख्याल न करके उनके अनुभव का फायदा उठाने का प्रयास करती है। ‘‘क्रेमलिन की घड़ी’’ नामक सोवियत नाटक में इसी प्रकार लेनिन एक इंजीनियर के पुराने मनोभाव को बदलने में सफल होते हैं।

मास्को में एक पखवारा रहने के दौरान उन्होंने लेनिन म्यूजियम देखा, नाट्यशालाओं में नाटक देखे और उपनगरीय क्षेत्र में अपने पुराने मित्र प्रमथनाथ दत्त से मिलने अकेले घूमते-घामते प्राच्य प्रतिष्ठान में पहुँचे तो नोट किया कि ‘‘रूस वाले हरेक विदेशी के पीछे अपना जासूस नहीं भेजते, अगर भेजते होते तो मुझे तो इस यात्रा में कृतज्ञ होना पड़ता।’’ (वही, पृ0 101) एक दिन उन्होने ‘‘दोम सुयूज’’ में रेजान जिले के दो जनगीत सुने जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के अहीरों के बिरहे जैसे मालूम हुए। ’’भाषा रूसी अवश्य थी लेकिन राग बिलकुल बिरहा जैसा। अहीर भी शकों का ही एक कबीला था जिन्ही शकों की औलाद आज के रूसी हैं।… इसलिए रेजान के जनसंगीत में बिरहा का आना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।’’ (वही, पृ0 107) वहाँ की विश्व प्रसिद्ध त्रेतियाकोव चित्रशाला में कभी रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी गए थे, इस प्रवास में राहुल जी ने भी वहाँ जाकर चित्रों का परिदर्शन किया।
रूस की तीसरी यात्रा में राहुल जी का धर्म-द्वेष कुछ कम हो गया मालूम पड़ता है।

पहले बात-बात में धर्म की हानि होते देख कर खुशी से उछल पड़ते थे, अबकी बार लिखा, ‘‘यह तो केवल पूँजीवादी ही देशों का प्रोपेगंडा है कि कम्युनिस्तों ने धर्म को अपने यहाँ से उठा दिया। रूस में रविवार को गिरजे और धर्म स्थान जितने भरे रहते हैं उतने चतुर्थांश भी भगत पश्चिमी यूरोप के गिरजों में नहीं देखे जाते।

वस्तुतः संस्कृति, साहित्य और कला के क्षेत्र में किसी धर्म ने देश की जितनी सेवा की है, उसकी जड़ भी उस देश में उतनी ही मजबूत होती है। इसी कारण मंगोल लोग बौद्ध धर्म को वैसे ही अपना राष्ट्रीय धर्म समझते हैं जैसे ही रूसी लोग ग्रीक चर्च को।’’ (वही, पृ0 118) सोवियत रूस में किसी धार्मिक पर्व के दिन छुट्टी नहीं होती, सरकार पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है लेकिन ‘‘वहाँ की जनता व्यक्तिगत तौर से धर्मनिरपेक्ष नहीं है।

आज भी रूसी गिरजे अतवार के दिन भक्तों से भरे रहते हैं। क्रिसमस के लिए हरी देवदार की शाखा खूब बिकती है।’’ (वही, पृ0 150) क्रिसमस का उत्सव अपने घर में और नगर में उत्साह से मनाते देखकर राहुल जी ने निष्कर्ष निकाला, ‘‘कम्युनिज्म का दर्शन भले ही ईश्वर और धर्म का विरोधी हो, लेकिन लोगों के लिए धर्म का छोड़ना उतना आसान नहीं है। सोवियत के तजर्बे से यह मालूम होता है।

जिन लोगों को मसीह के भगवान होने पर विश्वास नहीं वह भी जब अपनी कला, संस्कृति और इतिहास देखते हैं तो पिछले सात-आठ सौ वर्षों से ईसाई धर्म के साथ उसका घनिष्ठ संबंध पाते हैं। हरेक आदमी की सहानुभूति और रुचि सदा अपनी परंपरा के साथ होती है। बचपन के संस्कार मनुष्य के मन से सहज धुलने वाले नहीं है।’’ (वही, पृ0 158) उन्होंने रोमनी रूसी-पुरूषों को जहाँ-तहाँ घूम-घूम कर लोगों का हाथ देखते नाचते-गाते देखा था। पुलिस की आँख बचाकर छुपते-छुपाते किसी-किसी औरत को भीख माँगते भी देखा था और मन को समझा लिया था कि कामचोर होगी।
राहुल जी ने रूस में पचीस मास रहते हुए एक से एक म्यूजियम देखे; सिनेमा, नाटक, आपेरा और बैले देखे, शिशुगृह और बालोद्यान देखे, पुस्तकालय और विश्वविद्यालय देखे, अनेक विद्वानों से मुलाकात की अस्पतालों और अदालतों का निकट से निरीक्षण किया; शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कृति संबंधी सुव्यवस्था से गहरे प्रभावित हुए, तिरयोकी और विपुरी की यात्रा की, कलखोज और सोवखोज (पंचायती और सरकारी खेती) के प्रयोग देखे और युद्ध की बर्बादी के बाद पुनर्निर्माण में लगे हुए रूस की थोड़ी-बहुत असुविधाएँ भी उन्हें कष्टकर प्रतीत नहीं हुईं।

मई दिवस और क्रांतिदिवस के समारोहों में सुरक्षा कारणों से जो भी तकलीफ उठानी पड़ी, वह उन्हें तकलीफ जैसी नहीं लगी। बाकू के हवाई हड्डे का फर्श कच्चा था तो भी उन्हें युद्ध-जर्जर रूस से कोई शिकायत न थी। उसका प्रत्येक अभाव उनकी दृष्टि में अपने ही घर का अभाव था। महंगाई के बावजूद वहाँ की राशनिंग प्रणाली जनसाधारण के लिए बहुत बड़ी राहत थी।

लेनिनग्राद के एक मुहल्ले के अस्पताल का शानदार इंतजाम देखकर उन्हें लगा कि सोवियत सरकार लेनिनग्राद के अस्पतालों पर जितना खर्च करती होगी उतना तो उत्तर प्रदेश का कुल बजट होगा। (वही, पृ0 340)
लेनिनग्राद को सोवियत पुनर्निमाण के हाथों तेजी से सँवरते वे देख आए थे इसीलिए वापसी के रास्ते में लंदन के युद्ध जर्जर भवन वैसे के वैसे देखकर उन्हें पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद के जादू का रहस्य साफ समझ में आया। वे मध्य एशिया से संबंधित ढेर सारी साहित्य सामग्री एकत्र कर रहे थे, पढ़ रहे थे, नोट ले रहे थे, उनकी बड़ी इच्छा थी कि एक बार वहाँ जाकर अपनी आँखों मध्य एशिया का परिदर्शन कर लें लेकिन उन्हें इसकी अनुमति न मिली।

इसका उन्हें बहुत दुख हुआ। वहाँ रहते हुए उन्होंने केवल दो पुस्तकों (दाखुन्दा और गुलामान) का अनुवाद किया। मध्य एशिया पर बहुतेरी सामग्री सामने रहते हुए भी कुछ लिखने की हिम्मत न होती थी-पता नहीं, सोवियत सेन्सर के कारण यह सामग्री भारत ले भी जा पाएंगे या यहीं रोक ली जाएगी। (पृ0 210) उन्हें पछतावा था कि भारत में रहते तो इतने दिनों में ढाई-तीन हजार पृष्ठ लिख चुके होते! बिना कुछ साहित्यिक लेखन किए, लेनिनग्राद की प्रोफेसरी करते हुए, आराम की जिन्दगी बिताना उन्हें ‘जीवन-मृत्यु’ मालूम पड़ी। उन्होंने भारत लौट आने का निश्चय किया।

लेनिनग्राद के सबसे बड़े प्रभावशाली नेता को लोगों ने गदहे का खिताब दे रखा था। ‘‘न जाने कैसे वह ऐसी जिम्मेदारी के पद पर पहुँचा था। जैसा बड़ा नेता होगा, वैसे ही छोटे नेता भी हो जाएंगे इसलिए पपोफ के कारण बड़ी अव्यवस्था थी।’’(वही, पृ0 302) यह बात अलग है कि राहुल जी के वहाँ से आ जाने के बाद पपोफ का पतन हो गया था।

राहुल जी ने लिथुवानियन भाषाओं के एक बड़े विद्वान् डॉ0 सिलवोचिकस की जो दुख भरी कहानी लिखी है उससे भी पार्टी तंत्र के अत्याचारी स्वरूप का पता चलता है। डॉ0 सिलवोचिकस यूरोप की अनेक नई-पुरानी भाषाओं और इबरानी और उससे संबंधित भाषाओं के विद्धान् थे।

जब लिथुवानिया पर जर्मनों ने हमला किया, वे वहाँ से भागकर सोवियत की ओर आ गए। चार-पाँच साल तक शरणार्थी की तरह घूमते-घामते युनिवर्सिटी की ओर इस आशा से आए कि शायद वहाँ कोई काम मिल जाए।

युनिवर्सिटी के अनेक विद्धान् चाहते भी थे लेकिन विभाग का पार्टी सेक्रेटरी मूर्ख था, उसने मना कर दिया-डॉ0 सिलवोचिकस लंदन से पी-एच0डी0 थे, कौन जाने, अंग्रेजों का गुप्तचर हों! इस विद्वान को न कोई काम मिला, न राशन कार्ड, बिना राशन के मंहँगा खाना खरीद कर पत्नी को खिलाए, कि बच्चे को खिलाए।

उतना भारी विद्वान् एक मूर्ख पार्टी-सेक्रेटरी के चलते भूखों मर गया। लेकिन राहुल जी इसका दोष सरकार या पार्टी को नहीं देते, ‘‘सिलवोचिकस का खून किसी के सिर पर तो जरूर पड़ना चाहिए। लेकिन उसका दोषी हम साम्यवाद या रूस की कम्युनिस्ट पार्टी को नहीं कह सकते।

लेनिनग्राद में कुछ मूर्ख उस समय पार्टी के सर्वेसर्वा हो गये थे जिन्हें दो साल बाद दंड अवश्य मिला लेकिन उस वक्त तो वह अपनी हरकतों से अनर्थ कर डालने में समर्थ थे।’’ (वही, पृ0 330) इसी प्रकार एक मंगोल विद्वान् ‘‘पिछले षड़यंत्रों में जौ के साथ घुन की तरह पिस गया था और कुछ साल जेल में रहकर अभी-अभी छूटा था।’’ तिब्बती भाषा पर उसका अच्छा अधिकार था और युनिवर्सिटी में लोग उन्हें अध्यापक नियुक्त भी करना चाहते थे लेकिन ‘‘सिलवोचिकस के साथ अन्याय करने वाला वही मूर्ख फिर बाधक हुआ।

कहा-राजद्रोह में जिसको सजा हुई हो उसे कैसे नौकर रखा जा सकता है।’’ (वही, पृ0 330) राहुल जी जैसे बहुत कम विद्वान् होंगे जिन्होंने समाजवाद के सपने के साथ-साथ वास्तविकता को भी इतने निकट से देखा होगा। उन्होंने वास्तविकता की कडुवाहट को भी अनुभव किया लेकिन उनमें रवीन्द्रनाथ की वह अन्तर्दृष्टि नहीं थी जो सोवियत रूस की शानदार उपलब्धियों के साथ-साथ उसकी तह में मौजूद अन्तरविरोधों को भी लक्ष्य कर ले! या यह मान लिया जाय कि सोवियत निष्ठा ने उनकी अन्तर्दृष्टि को आच्छादित कर रखा था?

(उपरोक्त लेख प्रो. अवधेश प्रधान द्धारा लिखित है, जसम के संस्थापकों में से एक अवधेश जी हिंदी साहित्य जगत का स्थापित नाम हैं। वर्तमान में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापनरत हैं)

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