(समकालीन जनमत शिक्षक दिवस के अवसर पर लेखों की एक शृंखला शुरू कर रहा है । प्रस्तुत है इस शृंखला का पहला लेख जिसके लेखक पीटर ग्रे बोस्टन कॉलेज में रिसर्च प्रोफेसर हैं और शिक्षा मनोविज्ञान की अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक हैं ।)
शिक्षा का संक्षिप्त इतिहास
पीटर ग्रे
आज जब हम देखते हैं कि हर जगह बच्चों को स्कूल भेजना कानूनी बाध्यता है, लगभग सभी स्कूल एक ही ढर्रे पर चलाये जाते हैं, और ऐसे स्कूलों को स्थापित करने में हमारा समाज अच्छी खासी मशक्कत और खर्चा करता है, तो हमारा यह सोचना स्वाभाविक है कि इस सब के पीछे कोई नेक और वाजिब वजह जरूर रही होगी. शायद, अगर हम बच्चों को जबरन स्कूल न भेजें, या फिर स्कूल उस तरह काम न करें जैसे वे करते हैं, तो बच्चे समर्थ वयस्क नहीं बन पाएंगे. शायद कुछ बेहद बुद्धिमान लोगों ने यह तरकीब खोज निकली होगी और उसे सही सिद्ध कर दिखाया होगा. या फिर बच्चों के विकास व शिक्षा के वैकल्पिक तौर-तरीके व्यावहारिक परीक्षणों में गलत साबित हो गए होंगे.
अपने पिछले आलेखों में मैंने इसके विपरीत प्रमाण प्रस्तुत किये थे. ख़ास तौर पर तेरह अगस्त वाले आलेख में मैंने सडबरी स्कूल का जिक्र किया था. इस स्कूल में बच्चे पिछले 40 वर्षों से परंपरागत स्कूलों के एकदम विपरीत तौर तरीकों और व्यवस्था के बीच खुद को शिक्षित करते हैं. इस स्कूल और इससे निकले हुए विद्यार्थियों का अध्ययन बताता है कि औसत बच्चे अपने खेलों तथा खोजों से बड़ों के दिशा-निर्देशों और टोका-टोकी के बगैर शिक्षित हो जाते हैं. और एक बड़े सांस्कृतिक परिवेश के भीतर सम्पूर्ण व प्रभावी वयस्क के रूप में खुद को स्थापित करते हैं. दिशा-निर्देश व टोका-टोकी की जगह स्कूल बच्चे को एक समृद्ध वातावरण मुहैया कराता है जिसमें, खेलना, खोजना और लोकतंत्र का स्वाद जैसे तत्वों की भरमार है. मजेदार बात है कि यह सब परंपरागत स्कूल की तुलना में बहुत कम खर्चे और सबको साथ लेकर किया जाता है.
अगर हम ये जानना चाहते हैं की आज के औसत स्कूल ऐसे क्यों हैं, तो हमें इस समझ से बाहर निकलना होगा कि वे एक तार्किक जरूरत व वैज्ञानिक सोच का परिणाम हैं, बल्कि वे इतिहास की देन हैं. वर्तमान स्कूली शिक्षा प्रणाली का तभी कोई औचित्य समझ में आता है, जब हम इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में देखते हैं. इसलिए वर्तमान स्कूलों की आलोचना करने से पहले मैं यहाँ संक्षेप में शिक्षा के इतिहास की रूपरेखा प्रस्तुत करना चाहता हूँ- मानव जाति के आरम्भ से आज तक. शैक्षिक इतिहास के अधिकाँश विद्वान अपनी बातों को अलग शब्दावली में पेश करते हैं. लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरी रूपरेखा से वे काफी हद तक सहमत होंगे.सच कहूं तो इस रूपरेखा को तैयार करने में मैंने इन विद्वानों के लेखों का पर्याप्त उपयोग किया है.
शुरुआत में, सैकड़ों हजारों वर्षों तक, बच्चे स्व-निर्देशित खेलों तथा खोज विधियों से खुद को प्रशिक्षित करते रहे.
मनुष्य प्रजाति के जैविक इतिहास की तुलना में स्कूल एकदम नई संस्थाएं हैं. सैकड़ों हजार वर्षों तक खेती के प्रारंभ से पूर्व, हमारे पूर्वज शिकारी संग्राहक थे. अपने पिछले आलेखों में मैंने मानवशास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि घुमंतू संस्कृतियों के बच्चे किस तरह उन चीजों को अपने खेलों और खोजों के जरिये स्वयं सीख लेते थे, एक समर्थ वयस्क बनने के लिए जिन्हें सीख जाना आवश्यक था. बच्चों में खेलने और खोजने की जबरदस्त इच्छा संभवतः घुमंतू समाज के रूप में हमारे विकास की देन है, जो तात्कालिक समाज में शिक्षा की जरूरतों को पूरा करती थी. शिकारी संग्राहक समाजों के वयस्क अपने बच्चों को खेलना और अपने आस पास को स्वयं खोजने की बेरोकटोक आजादी देते थे. वे जानते थे कि बच्चों की सहज शिक्षा के लिए ये गतिविधियाँ जरूरी हैं.
खेती और बाद में उद्योगों के आगमन के बाद, बच्चे बलात् मजदूर बन गए. खेलने और खोजने की आजादी उनसे छीन ली गयी. मनमर्जी, जो कभी एक गुण मानी जाती थी, अब बुराई में गिनी जाने लगी, जिसका इलाज सिर्फ पिटाई था.
आज से लगभग 10 हजार वर्ष पहले दुनिया के कुछ हिस्सों में खेती की शुरुआत हुई और फिर यह बाकी जगह भी पहुंची. खेती ने लोगों की जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिए. शिकारी संग्राहक जीवन शैली, कौशल एवं ज्ञान केन्द्रित थी, श्रम केन्द्रित नहीं. एक प्रभावी शिकारी संग्राहक बनने के लिए लोगों को उन वनस्पतियों व जीव-जंतुओं के बारे में पर्याप्त ज्ञान हासिल करने की जरूरत पड़ती थी, जिन पर वे निर्भर थे. इसके अलावा उनको अपने आवास क्षेत्र की बारीकियों को भी जानना पड़ता था. शिकार व भोजन संग्रह के लिए उन्हें औजारों को बनाने और इस्तेमाल करने के हुनर में भी महारत हासिल करनी पड़ती थी. भोजन खोजने और उनका पीछा करने की कला तथा इसके लिए पहल करने में भी क्षमतावान बनना जरूरी था. बेशक उन्हें घंटों तक काम करने, खटने की जरूरत नहीं पड़ती थी, और उनके काम बेहद रोमांचक होते थे, उबाऊ नहीं. मानवशास्त्री बताते हैं कि शिकारी संग्राहक समूह काम और खेल के बीच फर्क नहीं समझते थे. दरअसल उनका पूरा जीवन एक खेल की तरह था.
खेती ने जीवन की पूरी तस्वीर बदल डाली. खेती की मदद से लोग ज्यादा भोजन पैदा करने लगे, जिससे ज्यादा बच्चे पैदा करने की छूट मिल गयी. खेती ने लोगों का स्थाई बस्तियों में रहना संभव बनाया (या रहने को मजबूर किया). अब वे इधर उधर घूमने की बजाय अपनी खेती के आस पास रहने लगे. इससे प्रकारांतर में, संपत्ति की व्यवस्था का जन्म हुआ. मगर ये बदलाव मुफ्त में नहीं मिले, इनके लिए भारी श्रम का मूल्य चुकाना पड़ा. शिकारी संग्राहक जहाँ प्रकृति के उगाये हुए को बड़े कौशल से हासिल करते थे, वहीं किसानों को खेत जोतना, निराई करना, फसल काटना और जानवर पालना जैसे अनगिनत श्रमसाध्य काम करने पड़ते थे. खेती की सफलता घंटों के अकुशल व बार बार दोहराए जाने वाले काम पर निर्भर थी, जो अधिकतर बच्चों से करवाए जाते थे. बड़े परिवारों में बच्चे अपने छोटे भाई बहनों का पेट भरने के लिए खेतों में काम करते थे. उन्हें घर पर रह कर इन छोटे छोटे बच्चों की देखभाल भी करनी पड़ती थी. अपनी रूचि का काम करने की आजादी न रहने की वजह से धीरे धीरे बच्चों का जीवन बदलने लगा.अब उनका ज्यादा समय परिवार की जरूरतों को पूरा करने वाले श्रम में खटने लगा.
खेती व उससे जुड़े भू- स्वामित्व तथा संपत्ति संग्रह ने इतिहास में पहली बार आदमी-आदमी के बीच हैसियत का फर्क पैदा कर दिया. जिन लोगों के पास जमीन नहीं थी वे भूस्वामियों पर निर्भर हो गए. इसके अलावा, जमीदारों को यह भी पता चल गया कि वे दूसरों से अपना काम करवा कर अपनी संपत्ति में इजाफा कर सकते हैं. दासप्रथा और गुलामी के कई दूसरे रूप सामने आने लगे. सम्पत्तिवान लोग उन पर निर्भर लोगों की मेहनत की बदौलत और संपत्ति बटोरने लगे. इन सब का परिणाम मध्य युग में सामंतवाद के आगमन में हुआ. समाज पूरी तरह से सत्ता-सोपानों में बाँट गया. सत्ता सोपान के शीर्ष पर राजा और उसके दरबारी थे, जब्क्ली दासों और कामगारों की बड़ी आबादी सबसे निचले पायदान पर थी. समाज की बहुसंख्या, जिनमें बच्चे भी सामिल थे, पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ दिए गए. बच्चों के लिए सबसे बड़ा सबक था आदेश का पालन, अपनी इच्छाओं पर काबू पाना और स्वामियों व सरकार के प्रति सदैव आदरभाव रखना. विद्रोही विचार रखने वालों के लिए मौत तय थी.
मध्य युग में बच्चों को पीट पीट कर अपने सामने झुकाने में शक्तिशाली लोगों को जरा भी संकोच नहीं होता था. उदहारण के लिए, 14 वीं सदी के उत्तरार्ध या 15 वीं सदी की शुरुआत के एक दस्तावेज के मुताबिक एक फ़्रांसिसी काउंट ने शाही लड़ाकों को सलाह दी कि वे नौकर रखने के लिए लड़कों को सात आठ साल की उम्र में ही चुन लें और उसे इतना पीटें कि वह अपने मालिक के आदेश को ठुकराने की बात न सोचे. दस्तावेज आगे बताता है की लड़के से रोजाना क्या क्या काम लिए जाने चाहिए और उसे रात को शिकारी कुत्तों में बाड़े की छत पर सुलाना चाहिए ताकि वह कुत्तों की जरूरतों को पूरा कर सके.
उद्योगों के उदय तथा एक नए शोषक वर्ग के जन्म के साथ सामंतवाद धीरे- धीरे समाप्त हो गया लेकिन इसके बावजूद ज्यादातर बच्चों की जिन्दगी से दुखों का अंत नहीं हुआ. नए व्यापारियों को पुराने जमीदारों की तरह श्रमिकों की जरूरत थी. और वे उन्हें कम से कम मेहनताना देकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते थे. आज हर कोई सामंतवाद के गर्भ से पैदा हुए शोषण तंत्र को जानता है और दुनिया के अधिकांश भाग पर यह आज भी कायम है. लोग, जिनमें बच्चे भी सामिल हैं, जिन्दा रहने की खातिर जागते हुए ज्यादातर वक़्त काम करते रहते हैं. हफ्ते में सातों दिन… जानवरों जैसे हालात में. बच्चों को खुले हवादार खेतों की जगह, जहाँ उन्हें कभी कभार खेलने का मौका भी मिल जाता था, अब अँधेरी, बदबूदार व गन्दी फैक्ट्रीयों में काम करना पड़ता था. इंग्लैंड में गरीब तबकों के ओवर सीयर, कंगाल घरों के बच्चों को फैक्ट्रियों में ले आते थे, जहाँ उनके साथ गुलामों जैसा बर्ताव होता था. ऐसे हजारों बच्चे हर वर्ष बीमारी, भूख और कमजोरी की वजह से दम तोड़ देते थे. 19 वीं सदी तक यह सब चलता रहा, जब तक इंग्लैंड ने बाल श्रम पर कानून नहीं बना दिया. 1883 में एक नया कानून बना, जिसके मुताबिक कपड़ा उद्योग में 9 वर्ष से कम उम्र के बच्चे से काम लेना पर पाबन्दी लगा दी गयी. इसके अलावा 10 से 12 वर्ष के बच्चे के लिए अधिकतम साप्ताहिक कार्य काल 48 घंटे तथा 13-17 वर्ष के लिए 69 घंटे कर दिया गया.
कुल मिलाकर, खेती के आगमन के बाद कई हजार वर्षों के दौरान बच्चों की शिक्षा का लगभग अर्थ था कि उनकी इच्छाओं को तहस- नहस कर उन्हें अच्छा श्रमिक बनाना. एक अच्छे बच्चे का मतलब था- एक आज्ञाकारी बच्चा, जो खेलने और खोजने की अपनी सहज वृत्ति को मारकर वयस्क मालिकों के आदेशों का पालन आँख मूँद कर पालन करे. ऐसी शिक्षा, सौभाग्यवश कभी कामयाब नहीं हो पाई. खेलने और खोजने की मानवीय वृत्तियां इतनी जबरदस्त होती हैं कि इन्हें किसी बच्चे के दिलो-दिमाग से रगेदा नहीं जा सकता. मगर इस पूरे युग का शिक्षा दर्शन शिकारी संग्राहक समाजों के सैकड़ों-हजारों वर्षों की समझ के लगभग पूरी तरह विपरीत था.
अनेक कारणों से- जिनमें कुछ धार्मिक थे और कुछ धर्म निरपेक्ष, बाध्यकारी सार्विक शिक्षा का विचार धीरे धीरे फैलने लगा. शिक्षा ‘दिमागों में ठूंसने’ का पर्याय बन गई.
जैसे-जैसे उद्योगों का विकास होता गया और यह अधिकाधिक स्वचालित होते गए, दुनिया के कुछ हिस्सों में बाल श्रम की ज़रूरत घटती चली गई. इसकी जगह यह विचार जगह बनाने लगा कि बचपन सीखने की उम्र है. और इस तरह सीखने की जगह के बतौर स्कूल खड़े किये जाने लगे. सार्विक एवं बाध्यकारी सार्वजानिक शिक्षा का विचार और व्यवहार 16वीं सदी के पूर्वार्ध में यूरोप में जन्मा और 19वीं सदी तक इसका काफी विस्तार हो गया. यह एक ऐसा विचार था, जिसके समाज में कई पैरोकार थे. बच्चों को कौन से पाठ पढ़ने चाहिए, इसके बारे में भी सबके अपने-अपने एजेंडे थे.
सार्विक शिक्षा के लिए सबसे ज्यादा जोर नए-नए उभरते प्रोटेस्टेंट धर्म ने लगाया. मार्टिन लूथर ने घोषणा की कि किसी व्यक्ति के लिए मुक्ति का मार्ग घर्मग्रंथों को खुद उसके द्वारा पढ़े जाने से ही खुल सकता है. यह सीख लूथर तक ही खत्म नहीं हो जाती, तब की समझदारी यही थी कि हर आदमी को पढ़ना सीखना पड़ेगा और यह जानना होगा कि अंतिम सत्य धर्मग्रंथों में ही बताया गया है तथा मुक्ति का मार्ग एकमात्र इस सत्य को जानने में निहित है. लूथर व दूसरे सुधारवादी नेताओं ने सार्वजानिक शिक्षा को ईसाई धार्मिक कर्तव्य बताते हुए जोर दिया कि नर्क की लपटों से अपनी आत्मा को बचाने का यही एक रास्ता है. १७वीं सदी के अंतिम वर्षों तक जर्मनी, जो अब तक स्कूलों के विकास में सबसे आगे था, के अधिकतर राज्यों में बच्चों को स्कूल भेजना कानूनन अनिवार्य बना दिया गया. लेकिन इन स्कूलों को सरकार नहीं बल्कि लूथरियाई चर्च चलाते थे.
अमरीका में 17वीं सदी के मध्य में मैसाचुसेट्स पहला ऐसा राज्य बना जहाँ स्कूली शिक्षा अनिवार्य बना दी गयी. इसका उद्देश्य घोषित तौर पर बच्चों को धर्मनिष्ठ बनाना था. 1690 की शुरुआत तक मैसाचुसेट्स व इसके आस-पास की कालोनियों के बच्चे न्यू इंग्लेंड प्राइमर (जिसे न्यू इंग्लेंड की लिटल बाइबल भी कहा जाता था) पढ़ना सीख चुके थे. इस पुस्तक में अक्षर ज्ञान सिखाने वाले छोटे-छोटे बाल गीत थे, जो कुछ इस तरह से शुरू होते थे- “इन एडम्स फाल, वी सिन्ड ऑल.” और इस तरह खत्म होते थे- “जाचेयस ही, डिड क्लाइम्ब ट्री, हिज लॉर्ड टू सी.” पुस्तक में ईश प्रार्थना, ईसाई धर्म के सिद्धांत, दस कमांडमेंट (धर्मादेश) और बच्चों में ईश्वर का डर व बड़ों के प्रति आज्ञाकारिता का ज़ज्बा पैदा करने वाले कई पाठ थे.
उद्योगों के मालिकों को भी आज्ञाकारी कामगार तैयार करने में स्कूल की क्षमता का अंदाजा लगाने में देर नहीं लगी. उनके लिए समय की पाबन्दी, आदेशों का पालन, लंबे समय तक कठिन काम करने का धैर्य और पढ़ने-लिखने की न्यूनतम क्षमता जैसे गुण सबसे ज़रूरी पाठ थे. उनकी नज़र में (हालांकि उन्होंने इन शब्दों में इसे कहा नहीं) स्कूल का पाठ जिनता उबाऊ हो, उतना अच्छा.
जैसे-जैसे राष्ट्र जुड़ते और ज्यादा से ज्यादा केंद्रीकृत होते गए, राष्ट्रीय नेता स्कूली शिक्षा को वफादार देशभक्त और भावी सैनिक तैयार करने के माध्यम के रूप में देखने लगे. उनके हिसाब से मातृभूमि की महान गाथाएं, हैरतअंगेज उपलब्धियां और देश के संस्थापकों व नेताओं के नैतिक उपदेश तथा बाहरी दुष्ट ताकतों से देशरक्षा के ज़रूरत जैसे पाठ बच्चों को पढ़ाए जाने चाहिए.
स्कूली इतिहास की इस ऊबड़-खाबड़ राह में कुछ ऐसे सुधारक भी आये जिन्हें बच्चों की सचमुच परवाह थी. उनकी बातें आज भी हमारे कानों में गूंजती हैं. इन लोगों ने स्कूलों को एक ऐसी जगह की रूप में पहचाना, जहाँ बच्चों को बाहर की नुकसानदेह आबो-हवा से बचाया जा सकता है और उन्हें एक समर्थ व सक्षम नागरिक के रूप में विकसित करने के लिए ज़रूरी नैतिक एवं बौद्धिक आधार दिया जा सकती है. उनके मुताबिक बच्चों ने नैतिक पाठ एवं अनुशासन, जैसे- लैटिन व गणित आदि पढ़ना चाहिए ताकि उनके दिमाग की कसरत हो और वे बुद्धिजीवी बनकर निकलें.
इस तरह हर कोई स्कूल की स्थापना के पक्ष में था और बच्चों के लिए ज़रूरी पाठों के बारे में भी उसका स्पष्ट नजरिया था. ऐसे में ज़ाहिर सी बात है, कोई भी बच्चों को अपना रास्ता खुद बनाने देने की इजाजत देने को तैयार नहीं था. यहाँ तक कि सीखने के अत्यंत समृद्ध माहौल में भी बड़े वही पढ़ाना चाहते थे, जो उन्हें बच्चों के लिए ज़रूरी लगता था. सभी तयशुदा मूल्यों और तौर-तरीकों को बच्चों के “दिमाग में बिठाने या रोपने वाली प्रक्रिया” के अर्थ में शिक्षा को देखते थे. तब से आज तक बच्चों के दिमाग में ज्ञान रोपने की बस एक-मात्र विधि चलती आ रही है- जबरन दोहराना (रट्टा मारना) और दिमाग में बैठा कि नहीं, यह जांचने के लिए इम्तहान लेना.
स्कूली शिक्षा के विस्तार के साथ लोगों में यह सोच जड़ जमाने लगा कि सीखना बच्चों का काम है. किसी ज़माने में बच्चों के साथ खेतों और फैक्टरियों में काम करवाने के लिए की जाने जोर-जबरदस्ती अब कुदरतन कक्षाओं में पहुँच गयी.
पाठ को दोहराना और याद रखना बच्चों के लिए एक कठिन काम था. उनकी सहज वृत्ति उन्हें आज़ादी से खेलने और दुनिया को स्वयं अपने प्रयासों से खोजने के लिए प्रेरित करती थी. जिस तरह खेतों व फैक्टरियों में काम करने के लिए बच्चे आसानी से तैयार नहीं हुए, स्कूल जाने के लिए भी उन्होंने वैसे ही प्रतिरोध किया. इस प्रयास में शामिल बड़ों के लिए यह कोई हैरानी की बात नहीं थी. इतिहास के इस मुकाम पर, बच्चों की इच्छा का भी कोई मतलब होता है, यह बात किसी के दिमाग में भला आती भी कैसे! हर कोई यही सोचता था कि बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उनकी मनमर्जी पर सख्ती से लगाम लगानी ही पड़ती है. हर तरह के दंड को शिक्षण प्रक्रिया का हिस्सा समझा जाता था. कुछ स्कूलों में बच्चों के खेलने के लिए अलग से अवकाश (मध्यांतर) की व्यवस्था होती थी लेकिन खेलों को कभी भी सीखने का वाहन नहीं समझा जाता था. कक्षा के भीतर तो खेल शिक्षा का दुश्मन ही समझा जाता था.
अठाहरवीं सदी के स्कूलों में खेलों के प्रति अधिकारियों का रवैया जॉन वैस्ली के स्कूली नियमों कुछ इस तरह प्रकट हुआ: “जैसा कि हमारे यहाँ कोई खेल दिवस नहीं होता, हम खेल के लिए न तो कोई समय तय करते हैं न कोई दिन. क्योंकि जो बच्चा खेलता है वह बड़ा होकर भी खेलता रह जाता है.”
किसी ज़माने में बच्चों से खेतों व फैक्टरियों में ज़बरन काम करवाने के लिए बर्बर तरीके इस्तेमाल किये जाते थे. वही तरीके स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए इस्तेमाल होने लगे. कम पगार पाने वाले, अप्रशिक्षित कई शिक्षक तो साफ़ तौर पर परपीड़क होते थे. जर्मनी में एक शिक्षक अपने 51 वर्ष के कार्यकाल में बच्चों की पिटाई का पूरा रिकॉर्ड रखा, जिसके मुताबिक उसने बच्चों को: लोहे की छड़ से 9,11,526 बार, बेंत से 1,24,010 बार, पटरी से 20,989 बार, हाथ से 1,36,715 बार पीटा, 10,235 बार उनका मुंह तोड़ा, 7,905 बार कान पर मुक्के जमाये और 11,18,800 बार उनकी खोपड़ी ठोकी. जाहिर है शिक्षक को उसकी द्वारा दी गयी शिक्षा पर गर्व भी होगा.
अठाहरवीं सदी में मैसाचुसेट्स में मंत्री रहे एक जाने-माने शख्स जॉन बर्नाड ने अपनी आत्मकथा में बड़े प्रशंसापूर्वक लिखा है कि उन्हें उनके स्कूल टीचर नियमित रूप से पीटते थे. वह खेलने की अपने बेलगाम आदत की वजह से मार खाते थे. इसके अलावा जब वह कक्षा में सीख नहीं पाते थे, तब मार खाते थे. इतना ही नहीं, वह तब भी पिटते थे जब उनके सहपाठी सीखने में नाकामयाब हो जाते थे. क्योंकि वह पढ़ाई में अव्वल थे, इसलिए उन पर औरों को सिखाने की भी ज़िम्मेदारी डाली गयी थी. इसलिए जब भी कोई सहपाठी जवाब नहीं देता था, बर्नाड साहब को मार खानी पड़ती थी. लेकिन उन्हें इस पिटाई से कोई शिकायत नहीं थी, शिकायत थी तो अपने उस शरारती शरारती सहपाठी से, जो उन्हें पिटवाने के लिए जान बूझकर सवाल का जवाब नहीं देता था. उन्होंने इस समस्या का भी तोड़ निकाल लिया. एक दिन स्कूल से बाद उन्होंने इस सहपाठी की जमकर तुड़ाई कर डाली और साथ में यह हिदायत भी दी कि भविष्य में उसकी वजह से उन्हें पिटना पड़ा तो उसकी खैर नहीं. वे शानदार पुराने दिन…!
हाल के दिनों में स्कूली पढ़ाई के तौर-तरीके काफी हद तक बदल गए हैं. लेकिन उनके पीछे का बुनियादी विचार नहीं बदला है. सीखना, आज भी बच्चों का ही काम समझा जाता है और बच्चों से यह काम करवाने के लिए सख्त तौर-तरीके अब भी इस्तेमाल होते हैं.
19वीं और 20वीं सदी में सार्वजानिक शिक्षा उस दिशा की ओर बढ़ी, जैसी आज हम इसे पाते हैं. अनुशासन के तौर-तरीके और मानवीय होते गए. काफी हद तक पिटाई स्कूलों से गायब हो गयी. पाठ्यसामग्री पहले से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष हो गयी. ज्ञान के विस्तार के साथ-साथ पाठ्यक्रम का विस्तार होता गया. विषयों की सूची लगातार लंबी होती चली गयी. इसके अलावा स्कूल के घंटों, दिनों और बाध्यकारी स्कूली वर्षों में भी इजाफा होता चला गया. खेत, फैक्टरी या घर में करवाए जाने वाले काम की जगह अब स्कूल ने ले ली. पढ़ाई करना बच्चे का प्राथमिक काम बन गया. जिस तरह बड़े रोज 8 घंटे अपने रोजगार की जगह जाते हैं, ठीक उसी तरह आज बच्चों को भी रोजाना 6 घंटे स्कूल में बिताने पड़ते हैं. इसके बाद वे एक घंटा या कुछ ज्यादा समय होमवर्क में लगाते हैं और इससे कहीं ज्यादा स्कूल से बहार ट्यूशन पढ़ने में. समय के साथ-साथ बच्चों का जीवन स्कूली पाठ्यक्रम से अधिकाधिक परिभाषित और नियंत्रित होता चला गया है. पूरी दुनिया में आज बच्चों के पहचान उनकी स्कूली कक्षा से की जाने लगी है. ठीक उसी तरह जैसे बड़ों की पहचान उनकी नौकरी या करियर से होती है.
स्कूल आज पहले जैसे कठोर नहीं रहे, लेकिन सीखने के बारे में कुछ प्रस्थापनाएँ आज भी जस की तस हैं. मसलन-सीखना एक कठिन काम है, जिसे बच्चों से पूरी सख्ती से करवाया जाना चाहिए. बच्चों को अपनी मर्जी से तय की गई गतिविधियों से कुदरतन शिक्षा नहीं मिलती, जिसके लिए उन्हें अनुशासित ढंग से पढ़ाया जाना ज़रूरी है. निर्धारित पाठ जिन्हें पढ़ना बच्चे के लिए ज़रूरी है, वे किसी पेशेवर शिक्षाविदों द्वारा ही तैयार किये जाने चाहिए, बच्चों द्वारा नहीं. इसलिए देखा जाय तो शिक्षा आज भी “दिमाग में ठूंसने” जैसी ही चीज़ है (हालांकि शिक्षाविद आज इस शब्द को इस्तेमाल करने से परहेज करते हैं और इसके जगह “डिस्कवरी” जैसे शब्द बोलते हैं).
(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय। प्रारंभिक शिक्षा बेड़ीनाग से एवं नैनीताल से प्रसिद्ध भौतिकविद प्रो देवीदत्त पन्त के शिष्य रहे आशुतोष उपाध्याय कुछ दिन तक राजनैतिक जीवन में रहने के बाद पत्रकारिता की ओर मुड़े । शेखर पाठक के ‘पहाड़’ से शुरुआत करके हिंदुस्तान तक में पत्रकारिता की । सम्प्रति आप शिक्षा की अग्रणी स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ से जुड़े हैं ,पिथौरागढ़ में ‘बाल विज्ञान खोजशाला’ का संचालन करते हैं तथा न्यूनतम संसाधनों से बाल विज्ञान मेलों का आयोजन करते हैं ।)
तस्वीर गूगल से साभार
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