समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

‘ हवा में रहेगी मेरे ख़यालों की बिजली ’

 

आज जब यह पक्तियां लिखी जा रही हैं तो पूरा देश शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को उनके जन्मदिन के अवसर पर याद कर रहा है. भगत सिंह देश की आज़ादी के लिए चले जन-संग्राम के अविस्मरणीय युवा नायकों में से एक रहे हैं—जिनके बलिदान की गाथा देश का बच्चा-बच्चा गाता है. अभी पिछले ही महीने हमने अपने देश में स्वतंत्रता की तिहत्तरवीं वर्षगांठ भी मनाई है और बस कुछ ही दिनों बाद हम राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी का जन्मदिन भी मनाने वाले हैं. शायद यह उचित अवसर है जब हमें एक बार फिर से उन मूल्यों और विचारों का स्मरण करना चाहिए जिनके लिए भगत सिंह जैसों ने युवावस्था में ही फांसी के फंदे को चूम लिया था, जिनके लिए एक बैरिस्टर और आम गृहस्थ मोहनदास करमचंद गाँधी सुविधापरक जीवन त्याग कर जन संघर्षों में कूदे और कालांतर में भारत राष्ट्र के पिता–महात्मा गांघी बन गए.

हम कैसे-कहाँ जन्म लेते हैं, हमारा नाम क्या होता है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि यह कि हम अपना जीवन कैसे जीते हैं? हमारे विचार कैसे होते हैं? हमारे जन-सरोकार क्या हैं? हम किन मूल्यों का समर्थन और सम्मान करते हैं? मानवता के क्या मायने हैं हमारे लिए? हम निर्बलों, पीड़ितों, शोषितों के दुःख-दर्द में कितना शामिल होते हैं? हम कैसा समाज अपने लिए और दूसरों के लिए चाहते हैं ? हम कैसी दुनिया मनुष्यता के लिए चाहते हैं ? या फिर इतना ही कि हम अपना जीवन जीने की कोशिश में दूसरों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं ? अपने परिवार-समाज और परिवेश से हमारा रिश्ता कैसा होता है ? यही सब सवाल हमारे जीवन को समाज के लिए मूल्यवान बनाते हैं और यही तय करते हैं कि आने वाली पीढियां हमें किस तरह याद करेंगी.

यूँ तो हर कोई अपने लिए सुख-सुविधा और शोहरत-सम्मान चाहता है लेकिन हर किसी को यह आसानी से हासिल नहीं होता. बेशुमार धन सम्पदा, अछोर पांडित्य, सत्ता-तंत्र में अपरिमित शक्ति भी हमें समाज में स्थाई और सच्चा सम्मान नहीं दिला सकते. यह सम्मान तो उन्हें ही नसीब है जो अपनी ज़िन्दगी दूसरों का जीवन ख़ुशहाल बनाने में बिताते हैं अथवा ऐसी रचनात्मक गतिविधियों में निरत होते हैं जिससे समाज की सोच और लोगों की ज़िन्दगी बेहतर होती है. इतिहास गवाह है कि ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जा सकने लायक़ ही हैं. वरना हर तरफ़ हर जगह अपने लिए जीने की जद्दो-ज़हद में लगे हुए करोड़ों लोग हैं. आखिर किसको, किससे मतलब है ! अब सम्मान-शोहरत तो बहुत बाद की बात है, देश की एक बड़ी आबादी के लिए तो रोटी-कपड़ा और मकान का सपना ही आजीवन एक मात्र सपना बना रहता है.

हमने जिन दो हस्तियों का ज़िक्र ऊपर किया है उन्होंने कभी यह नहीं सोचा होगा कि यह देश उन्हें इतना प्यार सम्मान देगा. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी इस मक़सद से जी भी नहीं. उनके अपने सपने तो दूसरे तमाम लोगों के सपनों से जुड़ गए और उन सपनों को साकार करने का जो जज़्बा उनके भीतर था उसी ने उन्हें इतना बड़ा बना दिया. जिस विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी का स्वर आज वातावरण में सबसे ज़्यादा गूंजता है और जिस पर अंकुश लगाने की मांग हमेशा सत्ता प्रतिष्ठानों की तरफ़ से उठाई जाती है, शहीद भगत सिंह ने उसी विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए पूरे होशो-हवास में अग्रेज़ी हुकूमत को चुनौती दी और ख़ुशी-ख़ुशी मात्र तेईस वर्ष की उम्र में फांसी की सज़ा कुबूल की.

जिसे हम सहज ही अपना हक़ मान बैठे हैं उसके लिए कितने लोगों ने कुर्बानियाँ दी हैं, यह शायद ही हमें ज्ञात हो. जिस स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की बात हम चलते-फिरते करते रहते हैं उसे हासिल करने के लिए कितना त्याग और बलिदान इतिहास ने देखा है और वर्तमान में भी कितने संघर्ष कहाँ-कहाँ चल रहे हैं उससे हम बेफ़िक्र बने रहते हैं. हमें उनका ख़याल तब आता है जब हमसे यह आज़ादी छीनी जाती है या हमारी इच्छाओं पर अनायास पाबंदियां लगाईं जाती हैं. हमें यह पता होना चाहिए कि आज़ादी कोई एक चीज़ नहीं है जिसे हमारे पूर्वजों ने कभी हासिल कर लिया था और अब यह हमेशा के लिए देश के सभी नागरिकों को नसीब है.

आज़ादी स्वस्थ, सुविधापरक और सम्मानजनक जीवन की पहली और आख़िरी शर्त है जिसकी ज़रूरत हमें रोज़ पड़ती है, हर पल पड़ती है. आज़ादी उन मूल्यों का नाम है जो सार्वभौमिक हैं और पूरी मनुष्यता के लिए ज़रूरी हैं. आज़ादी अन्याय, अत्याचार, भय, उलाहना, अपमान से मुक्ति है. आज़ादी प्रेम करने में है. आज़ादी अपनी बात कहने में, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक खाने-पीने-पहनने, आचरण करने में है जब तक हम दूसरों के इन अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते. हमारी आज़ादी दूसरों को किसी प्रकार नियंत्रित करने में नहीं है. भूख, बेकारी, जिहालत, बेबसी अगर कहीं भी बची हुई है तो हम समझ सकते हैं कि समाज के उस हिस्से में आज़ादी की बयार अभी नहीं पहुंची है. आज़ादी एक एहसास या ख़याल बाद में है, पहले तो यह जीवन में उन तमाम ठोस सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों की मौजूदगी है जिनकी वजह से यह एहसास या ख़याल मुमकिन होता है.

अग्रेजों के भारत छोड़कर जाने भर से हम आज़ाद नहीं हुए. जिस सपने को आज़ादी ने करोड़ों देश वासियों की आँखों में रोपा था उस सपने पर बात होनी चाहिए. जॉन के बाद गोविन्द ने शासन सम्हाला तो हमें खुश होने की ज़रूरत नहीं है. शासन तो हमारा होना था. ताक़त तो ‘हम भारत के लोगों’ के हाथ आनी थी. क्या यही वह समाज था जिसके लिए एक पूरी सदी तक अनगिनत सेनानियों ने, मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, महिलाओं ने आततायी-बेईमान अग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, लाखों देश वासियों ने अपना बलिदान दिया. काला पानी सहा ? क्या हिंसा, बलात्कार, उन्माद, दिमाग़ी कट्टरता, असमानता, अत्याचार, वर्चस्व—यही आज़ादी का हासिल है ? क्या पीढ़ी दर पीढ़ी कुंडली मारकर बैठी ग़रीबी, जिहालत और बेकारी का यही भविष्य पाने के लिए अतीत में हमारे पूर्वज अंग्रेजों से लडे थे ?

यह सही है कि इसी देश में दुनिया के कई शीर्षस्थ धनाढ्यों में शामिल सेठ भी रहते हैं, इसी देश में दुनिया को ज्ञान देने वाले मनीषी भी हैं, इसी देश में तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी मेधा रखने वाले भी हैं, इसी देश में कुछ प्रतिशत लोगों के हिस्से में जीवन की बेहतरीन सुख-सुविधाएँ भी हैं लेकिन क्या इस देश के आम नागरिक के हिस्से उतना संसाधन, वैसी सुविधाएँ हैं कि वह उपेक्षा रहित गरिमामय जीवन बिता सके? आज़ादी का वादा तो देश के आम नागरिकों के लिए था, कुछ गिने चुने लोगों और परिवारों के लिए नहीं ? देश के आम नागरिकों के लिए आज़ादी क्या होती है, इसका ज़िक्र संविधान के खंड तीन के मौलिक अधिकारों वाले अध्याय में किया गया है और उस पर अक्सर हम चर्चा भी करते हैं क्यूंकि उसकी सुरक्षा के लिए हम न्यायलय जा सकते हैं और न्यायलय ने अपने अनगिनत निर्णयों से देश के नागरिकों को संविधान में दी गई आज़ादी को परिभाषित किया है और अनेकों बार इसकी सत्ता-प्रतिष्ठानों से रक्षा भी की है लेकिन इस आज़ादी को बनाये और बचाए रखने का वातावरण कैसे सृजित किया जाना है इसका नुस्खा भी

संविधान के ही चौथे अध्याय में दिया गया है जिसे हम ‘राज्य के नीति निदेशक तत्व’ के रूप में जानते हैं. शायद ही हम कभी इस अध्याय को गौर से देखते हैं या इस पर चर्चा करते हैं. शायद इसलिए यह अध्याय हमारी चर्चा के केंद्र में नहीं आता कि इसे लागू करने के लिए हम न्यायलय नहीं जा सकते. इसे संविधान-निर्माताओं ने आने वाली सरकारों की सदिच्छा पर छोड़ दिया था. मेरे विचार से यह वे मार्गदर्शी सिद्धांत हैं जिनके हिसाब से देश का शासन-प्रशासन चलना था और जब मौजूदा हालात को हम इन सिद्धांतों की कसौटी पर कसेंगे तो पाएंगे कि राजनीतिक आज़ादी पाने के तीन चौथाई सदी बीतने के बाद भी हम एक राष्ट्र के रूप में ज़्यादा दूर नहीं आ सके हैं.

अभी तो हमें बहुत दूर जाना है. और जिस धीमी रफ़्तार से हम चल रहे हैं उससे तो आज़ादी और उससे जुड़े हुए ख़याल को देश के आख़िरी नागरिक तक पहुँचने में कई सदियाँ गुजरने वाली हैं. इन परामर्शी सिंद्धांतों में राज्य से अपेक्षा की गई है कि वह जन-कल्याण के लिए देश की समस्त संस्थाओं में ऐसा वातावरण सृजित करेगा जिससे सभी के लिए सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित हो सके. राज्य को यह भी ज़िम्मेदारी निभानी होगी जिससे नागरिकों के बीच आमदनी, जीवन-स्तर, सुविधाओं और अवसरों के लेकर असमानताएं न बढ़ने पाएं. सभी लोगों—महिलाओं और पुरुषों के पास जीवन जीने के पर्याप्त संसाधन मौजूद हों. आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों का वितरण समाज में ऐसे किया जाय जिससे आम जन के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. ऐसी नीतियाँ बनाई जाएँ जिससे देश का पैसा और उत्पादन के संसाधन कुछ चंद लोगों, घरानों, समूहों और वर्गों आदि के पास इकठ्ठा न हो सके. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, सामाजिक, सांप्रदायिक सौहार्द्र आदि को लेकर भी राज्य की ज़िम्मेदारी तय की गई है.

कहने की ज़रूरत नहीं है कि नागरिकों की आज़ादी को संभव बनाने वाली जो परिस्थितियां हैं उनका काफी विस्तार से संविधान में वर्णन किया गया है लेकिन हम जब आज़ादी का जश्न मनाते हैं या उसे अपने जीवन के लिए ज़रूरी मानते हैं तो इस परिस्थितियों के अस्तित्व और महत्त्व को नज़र अंदाज़ कर देते हैं.

हम क्या यही समाज बनाना चाहते थे ? वह समाज जहाँ देश की सत्तर फ़ीसदी आमदनी पर सिर्फ़ एक फ़ीसदी आबादी का क़ब्ज़ा हो. जहाँ किसी भी वक़्त तकरीबन बीस फ़ीसदी कामकाज़ी लोग बेकार हों. जहाँ बीस फ़ीसदी से ज़्यादा लोग सरकार द्वारा ही तय की गई ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे हों. जहां पढ़ाई और दवाई के लिए आम आदमी परेशान घूमे. जहाँ खेती-किसानी दिन-द-दिन घाटे का सौदा होती जा रही हो. जहाँ महिलायें आज भी खुद को सुरक्षित महसूस न कर पा रही हों. संविधान ने देश के समस्त नागरिकों के लिए गरिमामय और शानदार जीवन जीने लायक परिवेश सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सरकारों को सौपी थी लेकिन अभी आज़ादी के इतने बरस बाद हम लगभग एक चौथाई आबादी के लिए जीवन की बुनियादी सुविधाएँ भी सुनिश्चित नहीं कर सकें हैं. उच्च शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान-तकनीक और ख़ुशहाल जीवन की बात तो बहुत दूर की है.

इसी क्रम में मुझे हमारे समय के बेहतरीन कवि वीरेन डंगवाल की कविता ‘हमारा समाज’ याद आ रही है. यह कविता देश के आम आदमी के बुनियादी सपने का ज़िक्र करती है—“यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार/यह कौन नहीं चाहेगा भोजन वस्त्र मिले/यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर/बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से…..पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है/इसमें जो दमक रहा शर्तिया काला है/….किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है/जिसमें बस वही चमकता है जो काला है…..”

आम आदमी की इच्छाएं भी आम होती हैं लेकिन उसे पूरा करना भी उसके लिए आसान नहीं होता. हमारा देश जल-ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज से आज भी समृद्ध है अगर इन संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा हो तो आज़ादी का स्वप्न साकार हो सकता है लेकिन उसके लिए ठोस नीतियां चाहिए होंगी और जाति-धर्म और लैंगिक आग्रहों से ऊपर उठकर सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने की साफ़ नीयत भी. सिर्फ़ बातों से आज़ादी को साकार नहीं किया जा सकता. हमें यह समझना होगा कि जन-कल्याण और आर्थिक विकास में सरकारों को समाज की तरफ़ से बाज़ार को नियंत्रित करना होगा. हम गरीबों को सेठों की मर्ज़ी और दया पर नहीं छोड़ सकते. जो पीने का पानी प्रकृति की तरफ़ से सबके लिए मुफ्त में उपलब्ध था वह अब बाज़ार में ऊंचे दामों पर बोतल में बंद मिलता है. ज़मीन और संपत्ति तो कब की पूँजी के अधीन हो चली थी. हरियाली और धूप भी गरीब-कमज़ोर तबके को आसानी से नसीब नहीं है. अब तो बस साँस लेने वाली हवा बची है उस पर भी तमाम मुनाफ़ाखोर पूँजीपतियों की नज़र है. अगर बाज़ार को खुला छोड़ दिया गया—जिसे हम पढ़ी-लिखी भाषा में आर्थिक उदारीकरण कहते हैं—तो वह दिन दूर नहीं जब बिजली-पानी-गैस के साथ हवा भी हमें सीमित मात्र में पैसा देकर मिलेगी.

आज़ादी का जश्न मनाना ज़रूरी है लेकिन उससे ज़्यादा ज़रूरी उसके मायने समझना है. साहित्य, संगीत और कलायें तब बचेंगी जब जीवन में सुख और शान्ति बचेगी. आज़ादी के नाम पर हम अक्सर आज़ाद विचारों, अन्याय-अत्याचार के विरोध और सत्ता प्रतिष्ठानों की जन-विरोधी नीतियों के सन्दर्भ में प्रतिरोध की बात करते हैं लेकिन आज़ादी के मायने इससे कहीं बहुत ज़्यादा बड़े हैं. इसके मायने शिक्षा की रौशनी में हैं, तहज़ीब में हैं, आर्थिक तरक्की में हैं, ख़ुशहाली में हैं और सबसे बढ़कर इंसानियत में हैं. भगत सिंह ने आज़ादी के इसी सपने के लिए युवावस्था में ही आत्मोत्सर्ग किया. गांधी जी ने अपनी पूरी ज़िन्दगी और अंत में अपनी मृत्यु से भी इसी सपने का बीज करोड़ों देश-वासियों की आँखों में बोया. हम खुशनसीब होंगे अगर अपनी ज़िन्दगी में हम उस सपने को साकार होते हुए देख पाएंगे और अपनी आने वाली पीढ़ियों को वास्तव में एक आज़ाद भारत का उन्मुक्त वितान सौपकर जाएंगे.

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