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स्मृति

गुरशरण सिंह होने का मतलब ‘ हिन्दुस्तान को इंकलाब की शक्ल में देखना ’

16 सितम्बर प्रसिद्ध नाटककार और क्रांतिकारी रंगमंच के प्रणेता गुरशरण सिंह का जन्मदिन है। इस मौके पर पंजाब की जनवादी संस्थाएं उन्हें याद करेंगी। वे अमृतसर में जुट रही हैं। इसकी थीम ब्रेख्त की यह पंक्तियां हैं ‘ज़ुल्मतों के दौर में क्या गीत गाए जाएंगे ? हां, ज़ुल्मतों के दौर के ही गीत गाए जाएंगे’। ज्ञात हो कि भगत सिंह के जन्म दिवस 27 सितम्बर के दिन ही 2011 में गुरशरण सिंह का निधन हुआ। यह संयोग है कि शहीद भगत सिंह के जन्मदिन के दिन ही गुरशरण सिंह का निधन हुआ। कई बार इस तरह के संयोग आ जाते हैं जो ऐतिहासिक संयोग बन जाते है। इसे भी तो संयोग ही कहा जाएगा कि शहीद भगत सिंह के शहादत दिवस यानी 23 मार्च के दिन ही पंजाबी के क्रान्तिकारी कवि अवतार सिंह पाश आतंकवादियों की गोलियों के निशाना बनाये गये थे, वे शहीद हुए थे।

यह सब संयोग हो सकता है। लेकिन पंजाब की धरती पर पैदा हुए पाश और गुरशरण सिंह के द्वारा भगत सिंह के विचारों और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना कोई संयोग नहीं है। भगत सिंह ने शोषित उत्पीड़ित मेहनतकश जनता की मुक्ति में जिस नये व आजाद हिन्दुस्तान का सपना देखा था, उसी संघर्ष को आगे बढ़ाने वाले ये सांस्कृतिक योद्धा रहे हैं। भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचारों व संघर्षों को आगे बढ़ाना इनके कलाकर्म का मकसद रहा है। भले ही भगत सिंह ने इस संघर्ष को राजनीतिक हथियारों से आगे बढ़ाया, वहीं पाश ने यही काम कविता के द्वारा तथा गुरशरण सिंह ने ताउम्र अपने नाटकों से किया। गुरुशरण सिंह के निधन पर उनकी बेटियों की प्रतिक्रिया थी कि उन्हें अपने पिता पर गर्व है। उन्होंने अपने उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। कला को हथियार में बदल देना तथा सोद्देश्य संस्कृति कर्म का बेहतरीन उदाहरण बन जाना – गुरशरण सिंह होने का मतलब भी यही है।
गुरशरण सिंह का जन्म 16 सितम्बर 1929 को मुल्तान हुआ। अपने छात्र जीवन में ही वे कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये थे। लेकिन एक नाटककार व संस्कृतिकर्मी के रूप में उनके रूपान्तरण की कहानी बड़ी दिलचस्प है। वे बुनियादी तौर पर विज्ञान के विद्यार्थी थे। सीमेन्ट टेक्नालाजी से एम0एस0सी0 किया। पंजाब में जब भाखड़ा नांगल बाँध बन रहा था, उन दिनों वे इसकी प्रयोगशाला में बतौर अधिकारी कार्यरत थे। वहाँ राष्ट्रीय त्योहारों को छोड़कर किसी भी दिन सरकारी छुट्टी नहीं दी जाती थी। उन्हीं दिनों लोहड़ी का त्योहार आया जो पंजाब का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। मजदूरों ने इस त्योहार पर छुट्टी की मांग की और प्रबंधकों द्वारा इनकार किये जाने पर मजदूरों ने हड़ताल कर दी।
गुरशरण सिंह ने मजदूरों की भावनाओं को आधार बनाकर एक नाटक ‘लोहड़ी दी हड़ताल’ तैयार किया। इसे मजदूरों के बीच जगह जगह खेला गया। इस नाटक ने अच्छा असर दिखाया। यह नाटक काफी लोकप्रिय हुआ। इसमें गुरशरण सिंह ने भी बतौर कलाकार भूमिका की। और अंततः प्रबन्धकों को झुकना पड़ा। मजदूरों की मांगें मान ली गई। इसने नाटक और कला की ताकत से गुरशरण सिंह को परिचित कराया और इस घटना ने उन्हें नाटक लिखने, नाटक करने वालों का ग्रूप बनाने, दूसरों के लिखे नाटकों को करने या कहानियों का नाट्य रूपान्तर आदि के लिए प्रेरित किया। इसके बाद गुरशरण सिंह ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
नागभूषण पटनायक के साथ गुरशरण सिंह
गुरशरण सिंह पंजाब में इप्टा के संस्थापकों में थे। नाट्य आंदोलन को संगठित व संस्थागत रूप देने के लिए उन्होंने 1964 में अमृतसर नाटक कलाकेन्द्र का गठन किया ताकि कलाकारों को शिक्षित प्रशिक्षित किया जाय, शौकिया कलाकार की जगह उन्हें पूरावक्ती कलाकार में बदला जाय तथा उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए उनके पलायन को रोका जाय। गुरशरण सिंह के नाटको की खासियत है कि यह अपनी परम्परा के प्रगतिशील विचारों को, संघर्ष की विरासत को आगे बढ़ाता है, उसे विकसित करता है। वह इतिहास के सकारात्मक पहलुओं को तात्कालिक परिस्थितियों से जोड़ता है। यही कारण है कि इनके नाटक तात्कालिक होते हुए भी तात्कालिक नहीं होते बल्कि उनमें अतीत, वर्तमान और भविष्य आपस में गुथे हुए हैं। भगत सिंह के जीवन और विचारधारा पर आधारित नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की कहानी इससे अलग नहीं है। न सिर्फ पंजाब में बल्कि देश के शहरों से लेकर गांव गांव में इसके मंचन हुए। उनके नाटकों में लोक नाट्य रूपों व लोक शैलियों का प्रयोग देखने को मिलता है। वे मंच नाटक और नुक्कड़ नाटक के विभाजन को कृत्रिम मानते थे तथा इस तरह के विभाजन के फलसफे को नाटककारों व रंगकर्मियों की कमजोरी मानते थे।
गुरशरण सिंह उन लोगों में रहे जो लगातार सत्ता के दमन को झेलते हुए सांस्कृतिक आंदोलन को आगे बढ़ाया। अपने नाटक ‘मशाल’ के द्वारा उन्होंने इंदिरा तानाशाही का विरोध किया था। इसकी वजह से उन्हें इमरजेन्सी के दौरान दो बार गिरफ्तार भी किया गया। अपनी प्रतिबद्धता की कीमत अपनी नौकरी गवाँकर चुकानी पड़ी। अस्सी के दशक में पंजाब के जो हालात थे तथा गुरशरण सिंह को आतंकवादियों की ओर से जिस तरह की धमकियाँ मिल रही थी, उसने हम जैसे तमाम लोगों को गुरशरण सिंह के जीवन की सुरक्षा को लेकर चिन्तित कर रखा था। पर गुरशरण जी उनकी धमकियों से बेपरवाह काम करते रहे और अपनी मासिक पत्रिका ‘समता’ में आतंकवाद के विरोध में लगातार लिखते रहे। उन्हीं दिनों आतंकवाद के विरोध में उनका चर्चित नाटक ‘बाबा बोलता है’ आया। उन्होंने न सिर्फ इसके सैकड़ों मंचन किये बल्कि भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च पर आतंकवाद के विरोध में भगत सिंह के जन्म स्थान खटकन कलां से 160 किलोमीटर दूर हुसैनीकलां तक सांस्कृतिक यात्रा निकाली जिसके अन्तर्गत जगह जगह उनकी टीम ने नाटक व गीत पेश किये। यह साहस व दृढता जनता से गहरे लगाव, उस पर भरोसे तथा अपने उद्देश्य के प्रति समर्पण से ही संभव है। यह गुण हमें गुरशरण सिंह में मिलता है। अपने इन्हीं गुणों की वजह से सरकारी दमन हो या आतंकवादियों की धमकियां, उन्होंने कभी इनकी परवाह नहीं की और सत्ता के खिलाफ समझौता विहीन संघर्ष चलाते रहे।
गुरशरण सिंह ने करीब पचास के आसपास नाटक लिखे, उनके मंचन किये। ‘जंगीराम की हवेली’, ‘पंजाब दी कोलाज’, ‘हवाई गोले’, ‘हर एक को जीने का हक चाहिए’, ‘इक्कीसवीं सदी’, ‘तमाशा’, ‘गड्ढ़ा’ आदि उनके चर्चित नाटक रहे हैं। नाटक के अलावा उन्होंने विविध विषयों पर तेरह पुस्तके लिखीं। टीवी के लिए उन्होंने दो सीरियल भी बनाये – ‘भाई मन्ना सिंह’ व ‘दास्ताने पंजाब’। इन सीरियलों की लोकप्रियता थी कि लोग उन्हें ‘ भाई मन्ना सिंह’ उपनाम से जानने लगे। एक पंजाबी फिल्म ‘मन जीत जग जीत’ के लिए उन्होंने पटकथा लिखी। इस तरह कला के विभिन्न क्षेत्रों में उनका काम था।
भले ही उनके सांस्कृतिक कर्म का क्षेत्र पंजाब रहा हो, पर गुरशरण सिंह का दृष्टिकोण व्यापक व राष्ट्रीय था। वे एक ऐसे जन सांस्कृतिक आंदोलन के पक्षधर थे जो अपनी रचनात्मक ऊर्जा संघर्षशील जनता से ग्रहण करता है। इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए जनवादी व क्रान्तिकारी संस्कृतिकर्मियों के संगठन की जरूरत को वे शिद्दत के साथ महसूस करते थे। यही कारण था कि जब क्रान्तिकारी वामपंथी धारा के लेखकों व संस्कृतिकर्मियों को संगठित करने का प्रयास शुरू हुआ तो उनकी भूमिका नेतृत्वकारी थी। इसी प्रयास का संगठित स्वरूप 1985 में जन संस्कृति मंच के रूप में सामने आया। मंच का सम्मेलन दिल्ली में 25 से 27 अक्टूबर 1985 को सिटी सेंटर ऑडिटोरियम में आयोजित हुआ था। गुरशरण सिंह अपने नाट्य दल के साथ सम्मेलन में आए। सम्मेलन का उदघाटन भी उन्होंने किया। हमारे सामने यह संकट था कि मंच का राष्ट्रीय अध्यक्ष किसे बनाया जाय। महासचिव की समस्या तो बड़ी मशक्कत के बाद हमने हल कर ली थी लेकिन अध्यक्ष वाली समस्या बनी हुई थी। ले देकर हमारी पसन्द प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय पर टिक जाती थी लेकिन वे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं थे। वे कार्यकारिणी में रह कर अपनी भूमिका निभाना चाहते थे। हम इस संकट से जूझ रहे थे तभी सम्मेलन के दूसरे दिन यानी 26 अक्टूबर को गुरशरण सिंह ने अपनी संस्था अमृतसर नाट्य कला केन्द्र के साथ मंच में शामिल होने की घोषणा की। यह घोषणा क्या हुई, हमारी समस्या ही हल हो गई। गुरशरण सिंह इस मंच के संस्थापक अध्यक्ष बने। उन्होंने चण्डीगढ़ में 25 व 26 अक्तूबर 1986 को मंच का पहला सालाना समारोह आयोजित किया जो सत्ता के दमन और आतंकवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक हस्तक्षेप था। गुरशरण सिंह मंच के पटना में हुए दूसरे सम्मेलन में भी अध्यक्ष चुने गए।
गुरशरण सिंह क्रान्तिकारी राजनीतिक आंदोलनों से भी घनिष्ठ रूप से जुड़े थे। कहा जा सकता है कि इन्हीं आंदोलनों ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था। वामपंथ की क्रान्तिकारी धारा इण्डियन पीपुल्स फ्रंट से उनका गहरा लगाव था तथा उसके सलाहकार परिषद के सदस्य थे। भाकपा (माले) के कार्यक्रमों में वे गर्मजोशी के साथ शामिल होते थे। वे संस्कृति कर्म तक अपने को सीमित कर देने वाले कलाकार नहीं थे। इसके विपरीत उनकी समझ संस्कृति और राजनीति की अपनी विशिष्टता, सृजनात्मकता तथा स्वायत्तता पर आधारित उनके गहरे रिश्ते पर जोर देती है।
1980 के दशक में गुरशरण सिंह ने सांस्कृतिक आंदोलन को संगठित करने तथा उसे आगे बढ़ाने के प्रयास में उत्तर प्रदेश, बिहार सहित कई राज्यों का दौरा किया। उनकी नाटक टीमें बिहार  के पटना व भोजपुर के किसान आंदोलन के संघर्ष के इलाकों में गईं। किसान जनता के बीच नाटक किये। उत्तर प्रदेश के तराई के क्षेत्र जैसे पूरनपुर, पीलीभीत, बिन्दुखता, हल्द्वानी, काशीपुर तथा गोण्डा में उनके नाट्य प्रदर्शन हुए। इसी क्रम में वे कई बार लखनऊ भी आये। उन्होंने लखनऊ के एवेरेडी फैक्ट्री गेट, उत्तर रेलवे के मंडल कार्यालय के प्रांगण व रेलवे इंस्टीच्यूट, जनपथ मार्केट सहित सड़को व नुक्कड़ों पर ‘गड्ढा’, ‘जंगीराम की हवेली’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और फैज व जगमोहन जोशी के गीतों के द्वारा जो सांस्कृतिक लहर पैदा की, वह आज भी हमें याद है।
गुरशरण सिंह सही मायने में जनता के सच्चे सांस्कृतिक योद्धा थे, ऐसा योद्धा जो हिन्दुस्तान की शक्ल बदलने का सपना देखता है, इंकलाब के लिए अपने को समर्पित करता है और अपनी ताकत शहीदों के विचारों व संघर्षों से तथा लोक संस्कृति से ग्रहण करता है। गुरशरण सिंह अक्सरहाँ कहा करते थे ‘हमारी लोक संस्कृति की समृद्ध परम्परा नानक, गुरु गोविन्द सिंह और भगत सिंह की है। दुल्हा वट्टी एक मुसलमान वीर था जिसने मुसलमान शासकों के ही खिलाफ किसानों को संगठित किया था – हमारी लोकगाथाएँ यह है। आज के पंजाब और हमारे वतन हिन्दुस्तान को आशिक-माशूक के रूप में न देखा जाय, बल्कि आज के हिंदुस्तान को, जालिम और मजलूम की शक्ल में देखा जाए, इंकलाब की शक्ल में देखा जाय।’
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