समकालीन जनमत
शिक्षा

गुनता है गुरु ज्ञानी

डॉ.अंबरीश त्रिपाठी


माता-पिता की महती इच्छा और महत्वाकांक्षाओं के साथ बच्चा पाठशाला में प्रवेश करता है । परीक्षा में अव्वल आने की प्रेरणा से वह बच्चा पढ़ना शुरू करता है । बच्चे पास हो जाएँ इस बड़ी जिम्मेदारी के साथ शिक्षक अपना कर्तव्य निभाता है । 10वीं 12वीं के बोर्ड का डर बच्चे को कोचिंग दर कोचिंग भटकाता है। इन 4 सालों में अच्छे नंबर प्राप्त करने की तरकीब सीखने और उत्तर रटने में छात्र जीवन व्यतीत होता जाता है। (इंजीनियरिंग, मेडिकल की तैयारी जिसे आजकल फाउंडेशन कोर्स कहते हैं करने वाले कतिपय छात्रों को छोड़ दें तो, ये अलग ही रेस में हैं। )।

महाजनो येन गतः स पन्थाः और बहुजन हिताय सूक्ति में थोड़ी माफी के साथ फेरबदल कर दें तो सफलो ये न गतः स पन्थाः और बहुजन दिखाए के हिसाब से लाखों भारतीय परिवार में प्रायः यह तय होता है कि बच्चा आगे किस फील्ड में जाएगा । ठीक इसी समय निम्न मध्य वर्ग के कला वर्ग वाले बच्चे बहुधा upsc की परीक्षा का पता लगते ही सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में जाने का अटल निर्णय कर लेते हैं । विज्ञान वाले छात्र लैब में समय बिताते हुए अपने को एक सफल वैज्ञानिक के रूप में देख रहे होते हैं। इस दिवास्वप्न के रेस में विद्यार्थियों के सबसे मददगार होते हैं उनके सीनियर्स । सफलता-असफलता के लंबे अनुभव को रखने वाले ऐसे मार्गदर्शक विद्यार्थियों की दुविधाओं को बेतहाशा बढ़ाते हैं (कभी कभी राह भी दिखाते हैं) । परिणाम स्वरूप तैयारी के अटल निश्चय के साथ मेहनत करने वाले विद्यार्थी इसी दौरान शिक्षा स्नातक, स्नातकोत्तर और यूजीसी सीएसआइआर नेट आदि की उपाधि प्राप्त कर लेते हैं, तैयारी में लीन ऐसे ही छात्र दुर्घटना बस किसी विद्यालय महाविद्यालय या विश्वविद्यालय चाहे वह शासकीय हो या निजी संस्थाओं में शिक्षक बन जाते हैं । इन शिक्षकों को देखकर अनुभवी गुरु जन टिप्पणी करते हैं कि आजकल दो तरह के शिक्षक पाए जाते हैं । एक वह है जो जिस दिन सरकारी शिक्षक बनते हैं उसी दिन सेवानिवृत्त हो जाते हैं अर्थात उनके जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो चुका रहता है । ऐसे शिक्षक अपने चारों तरफ आपको खूब मिलेंगे । इनकी पहचान बेहद आसान है। प्रत्येक स्कूल या महाविद्यालय में अथवा अन्य शिक्षण संस्थानों में ये जमीन,फ्लैट ,गाड़ी आदि का सौदा कराने तो कभी किसी का ट्रांसफर कराने में व्यस्त नज़र आएंगे। दूसरे वे जो शिक्षक बनने के बाद भी छात्र बने रहते हैं। अर्थात पढ़ने लिखने की उनकी रुचि बनी रहती है । आजकल यह प्रजाति दुर्लभ होती जा रही है। तार्किक रूप से देखें तो शिक्षक बनने की यह प्रक्रिया बहुत हास्यास्पद लगेगी पर आधुनिक भारत का यही दारुण यथार्थ है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों का रोल मॉडल बनने में प्रायः असफल होता जा रहा है। समाज गुरु के प्रतिष्ठा की अवहेलना करता जा रहा है। शिक्षण संस्थाएं आज समाज में डिग्री देने वाले निकाय मात्र समझे जा रहे हैं। और कोचिंग के शिक्षक व्यावसायिक व्यापारी मात्र। उन शिक्षकों के लिए विद्यार्थी और अभिभावक भी एक ग्राहक से ज़्यादा अहमियत नहीं रखते। शिक्षा का ज्ञान से संबंध छीजता जा रहा है। वर्तमान समाज भी शिक्षा की गुणवत्ता के निकष को बहुत तेजी से बदल रहा है। माता पिता के लिए पढ़ाई के मायने बच्चे के नौकरी से है तो बच्चे के लिए पैसा कमाना। शिक्षक के लिए बेहतर परिणाम देकर संस्थान की रैंकिंग बेहतर करने में मदद करना है। प्राचीन काल से शिक्षा व्यवस्था में सर्वाधिक महत्व गुरु और शिष्य का था। यह व्यवस्था सत्ता के प्रभाव और हस्तक्षेप से मुक्त थी।

आधुनिक शिक्षा की पूरी प्रणाली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका सत्ता या शासन व्यवस्था की हो गई । हमारे देश में औपनिवेशिक शासन से शिक्षा प्रणाली के संचालन में सत्ता का बहुत दख़ल रहा है। इसीलिए पाठ्यक्रम निर्माण से लेकर बच्चे के प्रवेश तक शासन हस्तक्षेप करती है ।
अंग्रेजों के माध्यम से आई आधुनिकता ने तो हमारे समस्त ज्ञान को खारिज़ कर हमारे ग़ुलाम बनने की भूमिका ही रच दी। इस बात को के.दामोदरन ने बड़ी बारीकी से रेखांकित किया है- ” शिक्षा एक ऐसा सूक्ष्म अस्त्र था, जिसे अंग्रेजों ने भारत में अपने प्रभुत्व को सुदृढ़ बनाने के लिए इस्तेमाल किया।यह एक साथ ही भारत के निवासियों को ब्रिटिश सम्राट के प्रति वफादारी में प्रशिक्षित करने और साथ ही जीवन के संबंध में पश्चिमी विचारों और पद्धतियों को प्रचारित करने की एक व्यवस्था की। अंग्रेजों ने सोचा कि अंग्रेजी शिक्षा की नई प्रणाली, जिसके अंतर्गत साहित्य, इतिहास तथा विज्ञानों की शिक्षा देने की व्यवस्था थी, भारतवासियों में अपने ओछेपन की भावना को जागृत करेगी। और स्वयं अपनी संस्कृति तथा परंपराओं के प्रति उनमें घृणा पैदा करेगी, जो ब्रिटिश शासन के गौरव से जनता के मस्तिष्क को प्रभावित करने के लिए जरूरी है।(भारतीय चिंतन परंपरा,पृष्ठ341)।
शासन के चरित्र पर आज तक भी औपनिवेशिक सत्ता का यह साया बना हुआ है। इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए 1920-25 के मध्य ब्रिटिश गाँधीवादी स्वo माज़री साइक्स के उस अनुभव को देखें जिसका हवाला प्रोफेसर कृष्ण कुमार देते हैं। उन्होंने एक उदाहरण के माध्यम से उपनिवेश बनाने वाले देश और उपनिवेश बनने वाले देश के शासन व्यवस्था के फ़र्क़ को बताया। साइक्स बताती हैं कि जब इंग्लैंड में स्कूल की जाँच करने इंस्पेक्टर साहब आते हैं तो प्राचार्य सहित सभी शिक्षक भवन की कमियों को चिन्हित करते हैं। वो छतों, दीवार या फ़र्श के टूटे हुए भाग को चॉक से घेरकर उभारते हैं कि इंस्पेक्टर की नज़र पड़े और उसको सरकार सुधारे। वहाँ इंस्पेक्टर को अपनी बात/समस्याएं ऊपर तक पहुंचाने का माध्यम समझा जाता है। वह स्कूल व्यवस्था का शासन में नियुक्त प्रतिनिधि माना जाता है । इससे ठीक विपरीत भारत में इसी समय समस्याओं को बताने वाले प्राचार्य या शिक्षकों को इंस्पेक्टर द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। उपनिवेश बने राज्य में इंस्पेक्टर प्राचार्य और अध्यापक पर धौल ज़माने, रौब गाँठने वाला शासन का प्रतिनिधि होता है। आज आज़ादी के इतने सालों बाद इस मानसिकता को आधार बनाकर हम अपनी शिक्षा व्यवस्था पर नज़र डालें तो हम अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता से परे नहीं दिखेंगे।

सरकार के लिए आज रोजगारोन्मुखी शिक्षा व्यवस्था ही वाँछनीय है। स्किल डेवेलोपमेंट, आत्मनिर्भर, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की प्रचुरता, अप्रेंटिस बनाने की मुहीम ,डिप्लोमा और सर्टिफिकेट पाठ्यक्रमों को शुरू करने का चौतरफ़ा दबाव शासन की मंशा को ठीक ठीक परिलक्षित करता है। और शिक्षक की इसमें भूमिका ‘फैसिलिटेटर’ की बना दी गई है। सत्ता अपने इन प्रयासों से तत्कालीन बेरोजगारी की बड़ी चुनौती से तो निपटना चाहती है । पर इन उपायों से युवाओं को सक्षम ,स्वतंत्र तथा स्वावलंबी बनाने का कोई रोडमैप नहीं दिखता।बहुधा यही लगता है कि सरकार की कोशिश एक ऐसी व्यवस्था बनाने की है जिसमें युवा आसानी से भीड़ का हिस्सा बन सके। ऐसे में सत्ता के लिए आज शिक्षा की गुणवत्ता का आशय स्वतंत्र चेतस ,आत्मनिर्भर और विवेकवान युवाओं/नागरिकों का निर्माण नहीं रह गया है।
ऋग्वेद के प्रसिद्ध सूक्त ‘ऋते ज्ञाना: ना मुक्ति ‘ का उस समय जो भी आशय रहा हो पर स्वतंत्रता आंदोलन के उन्नायकों और संविधान निर्माताओं ने इसका व्यापक अर्थ लिया। उनके लिए भी शिक्षा मुक्ति का ही मार्ग था।पर यह मुक्ति निरी मोक्ष वाली न होकर शिक्षा- असमानता, भेदभाव, बाह्याचार,आडंबर, ग़रीबी और किसी भी प्रकार की ग़ुलामी से मुक्ति का साधन था। ज्योतिबा फूले, सावित्री बाई फूले, ठाकुर रवींद्र नाथ, बाबा साहब अंबेडकर, गिजुभाई बधेका आदि भारतीय विचारकों ने इसी शिक्षा के महत्व को समझा और अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए इस मुक्तिकामी शिक्षा की नींव तैयार की। आज़ादी मिलने के बाद 2 नवंबर1947 को स्वयं महात्मा गाँधी ने अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को खारिज़ करते हुए हरिजन में लिखा-“विश्वविद्यालय चोटी पर होता है। शानदार चोटी तभी कायम रह सकती है जब बुनियाद अच्छी हो।..हम राजनीतिक दृष्टि से तो स्वतंत्र हो गए परंतु पश्चिम के सूक्ष्म प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं। ”
इस परिप्रेक्ष्य में यहाँ संविधान निर्माताओं की दृष्टि को देखना दिलचस्प होगा। हम ये भी समझ पाएंगे कि हमारी शिक्षा का वह काम्य मॉडल/निकष क्या था जो भारत के उन्नायकों ने हमारे समक्ष संविधान के माध्यम से रखी। संविधान की आत्मा उसकी उद्देशिका में निहित है। इस उद्देशिका में जिस भारत को बनाने की कल्पना की गई है वो भारत ‘सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ होगा। और इस भारत के समस्त नागरिक न्याय, स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता सम्पन्न होंगे। इस पूरी उद्देशिका में शिक्षा शब्द कहीं नहीं आया है। किंतु अगर हम गौर से देखें तो इन उद्देश्यों को पूर्ण कराने में शिक्षा की ही महत्तम भूमिका नज़र आएगी। फूले और बाबा साहब के समतामूलक भारत बनाने के माध्यम की धुरी शिक्षा ही थी। आज़ादी के 70 सालों बाद आज भी हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही समझने में भिड़े हुए हैं। समाज की विषमता को दूर करने में तथाकथित शिक्षित समाज बुरी तरह असफल दिख रहा है। जिस देश में शिक्षा स्वतंत्र और स्वायत्त व्यक्तित्वशाली युवा के निर्माण को सुनिश्चित नहीं कर पा रही वहाँ लोकतंत्र या गणराज्य पर खतरे की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। जहाँ के युवा कानून के डर से आज भी नागरिक धर्म का पालन करते हैं वहाँ हम शिक्षा व्यवस्था की स्थिति, उसकी उपयोगिता को सहज ही जान सकते हैं।

अतः आज हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है। शिक्षा को चिंतन और चिंता के केंद्र में लाने की जरूरत है । सरकार , शिक्षक, विद्यार्थी और समाज को एक साथ मिलकर शिक्षा के इस बड़े संकट से जूझना होगा। राह तलाशनी होगी । संकटों से मुक्त कराने वाली शिक्षा आज स्वयं सतत संकट से घिरती जा रही है।

(डॉ.अंबरीश त्रिपाठी छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में प्राध्यापक हैं,
संंपर्क: amba82@gmail.com
7489164100
R-13, गणपति विहार कॉलोनी ,दुर्ग ,छत्तीसगढ़.)

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