अलविदा साथी !
हरिपाल त्यागी नहीं रहे। 20 अप्रैल 1935 में जनमे हरिपाल त्यागी कई दिनों से अस्वस्थ थे। हरिपाल त्यागी का जाना हिंदी समाज के लिए एक बहुत बड़ी घटना है , क्योंकि वे साहित्य और चित्रकला के बीच केवल एक जीवंत कड़ी मात्र ही नहीं थे बल्कि उन्होंने अपनी शर्त पर चित्र बनाये और अपनी ही शर्त पर लिखा भी। उनके चित्रकार दोस्तों की संख्या उतनी नहीं है जितने उनके साहित्यकार दोस्तों की है !
एक ऐसा चित्रकार जिसने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली में बिताया हो जिसने नियमित चित्र बनाये हों , वह कैसे कला कारोबारियों की नज़र से छूट गया , जिसने प्रदर्शनियाँ तो की पर उनके चित्र, कभी भी कला मंडी को समर्पित नहीं रहे और इसी लिए वे बाज़ारू चित्रकारों की सोहबत से दूर रहे।
वास्तव में हरिपाल त्यागी अपनी पूरी जिंदगी अपने सरोकारों के प्रति समर्पित रहे। हिंदी का शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार हो जो हरिपाल जी के नाम से परिचित न हो। उनके नाम से मेरा परिचय अस्सी के दशक में आजमगढ़ में रहते समय कवि श्रीराम वर्मा के माध्यम से हुआ था। बाद में इलाहाबाद के सभी उनकी चर्चा करते थे। हमारे लिए भाऊ समर्थ और हरिपाल त्यागी, अथाह समुद्र में तैरने की कोशिशों में लगे हम युवा चित्रकारों के लिए दो प्रकाश स्तम्भों जैसे थे। उनके बनाये हुए मुक्तिबोध के पोर्ट्रेट ने उन्हें मेरी नज़र में दूसरे समकालीन चित्रकारों से अलग कर दिया था।
2002 में दिल्ली आने के बाद हरिपाल त्यागी जी से मेरी मुलाकात होती रहती थी। ललित कला अकादेमी में आयोजित उनकी एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्रों की श्रृंखला मुझे आज भी याद है। प्रदर्शनी का उद्घाटन कमलिनी (दत्त) जी ने किया था, दिल्ली आने के बाद कुबेर भाई से वह मेरी पहली मुलाकात थी।
कुबेर भाई , हरिपाल जी के चित्रों से बहुत प्रभावित थे, उन्होंने ललित कला समकालीन पत्रिका में हरिपाल जी की कला पर एक लेख भी लिखा था। कुबेर भाई के चित्रों में हरिपाल जी से उनकी नजदीकी का असर दिखता था। कुबेर भाई के चित्रों की प्रदर्शनी (मरणोपरान्त) , हमने आईफैक्स कला दीर्घा में आयोजित की थी।
उद्घाटन के बाद एक दोपहर को हॉल में मेरे साथ केवल हरिपाल त्यागी जी थे , दीवारों पर कुबेर भाई के चित्र खामोश हमें सुन रहे थे। उस दिन हरिपाल जी ने सविस्तार कुबेर भाई के चित्रों पर बात की थी। हरिपाल त्यागी जी चूँकि स्वयं एक साहित्यकार थे और साहित्यकारों के बीच ही जीना उन्होंने पसंद किया था इसलिए उनके चित्रों में कहानियाँ नहीं हैं।
हरिपाल जी ने कुबेर भाई के चित्रों के बारे में बात करते हुए एक बात कही थी जिसका आशय था कि चित्र अपने प्रकृति में अमूर्त ही होते हैं , छायाचित्र या फोटोग्राफ भी मूर्त नहीं होते , शब्दों से की गयी व्याख्यायें उन्हें मूर्त बनाने की बद कोशिश करती रहतीं हैं।
‘संस्मरणों’ पर भारतीय ज्ञान पीठ ने एक नायाब कार्यक्रम का आयोजन किया था। हरिपाल त्यागी जी को सुनना मुझे सदा अच्छा लगता रहा है पर उस शाम उनके संस्मरणों के शानदार जुलूस में उनकी जीवन संघर्ष की तमाम कहानियों साथ चल रहीं थीं। अस्सी साल पूरे होने पर हमने उनका जन्म दिन मनाया था। गाँधी शांति प्रतिष्ठान का सभागार में उपस्थित सभी दोस्तों ने उनके शतायु होने का कामना की थी , किसी को क्या पता था कि जिस दिन पूरे विश्व में पहली मई को ‘मज़दूर दिवस’ मनाया जा रहा है , कलम और कूँची का एक श्रमिक हमारे बीच से उठ कर चला जायेगा।
हम सब जिन्होंने हरिपाल त्यागी को देखा था उन्हें नहीं भूलेंगे , और वे रचनाकार जो आज बड़े हो रहे हैं, उनके लिए हरिपाल जी एक प्रकाश स्तम्भ बन कर राह दिखाते रहेंगे। और इसलिए सौ साल ही नहीं, बल्कि कई सौ सालों तक चित्रकार-साहित्यकार हरिपाल त्यागी इस दुनिया में उनके चित्रों के दर्शकों और उनकी रचनाओं के पाठकों के बीच जिन्दा रहेंगे।
अलविदा कामरेड हरिपाल त्यागी !
हम इस मौके पर हरिपाल जी द्वारा शेखर जोशी की अप्रकाशित किताब ‘मेरा ओलियागांव’ के लिए बनाए कुछ जल रंग चित्र भी साझा कर रहे हैं.
( चित्रकार और कथाकार अशोक भौमिक जन संस्कृति मंच दिल्ली के अध्यक्ष हैं और ग़ाज़ियाबाद के वसुंधरा इलाके में रहते हुए चित्र और कथाओं के सतत सृजन में स्वतंत्र रूप से सक्रिय हैं .)
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