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किसान के क्रमिक दरिद्रीकरण की शोक गाथा है ‘गोदान’

सन 1935 में लिखे होने के बावजूद प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ को पढ़ते हुए आज भी लगता है जैसे इसी समय के ग्रामीण जीवन की कथा सुन रहे हों. इसकी वजह बहुत कुछ यह भी है कि बीते पचहत्तर सालों में परिस्थितियों में बदलाव तो हुआ लेकिन देहाती जीवन ठहरा ही रहा है. बल्कि ठीक ठीक कहें तो बदलाव खराब हालात की दिशा में हुआ. प्रेमचंद ने जिस गाँव का चित्रण किया उसे आप समूचे किसानी समाज के लघु संसार की तरह से पढ़ सकते हैं.

यह समाज अंग्रेजी उपनिवेशवादी शासन के तहत टूटकर बिखर रहा था । इसका केंद्र किसान थे जिनका प्रतिनिधि होरी उपन्यास का हीरो है ; लेकिन कैसा हीरो ? जो लगातार मौत से बचने की कोशिश करता रहता है लेकिन बच नहीं पाता और साठ साल की उम्र भी पूरी नहीं कर पाता. इसी ट्रेजेडी को रामविलास शर्मा ने धीमी नदी का ऐसा बहाव कहा है जिसमें डूबने के बाद आदमी की लाश ही बाहर आती है.

किसान का जीवन सिर्फ़ खेती से ही जुड़ा हुआ नहीं उसमें सूदखोर, पुरोहित जैसे पुराने जमाने की संस्थाएँ तो हैं ही नए जमाने की पुलिस, अदालत जैसी संस्थाएँ भी हैं. यह सब मिलकर होरी की जान लेती हैं.

आज भी किसान बहुत कुछ इन्हीं की गिरफ़्त में फँसकर जान दे रहा है. असल में खेती के सिलसिले में अंग्रेजों ने जो कुछ शुरू किया था उसे ही आज की सरकार आगे बढ़ा रही है और होरी की मौत में हम आज के किसानों की आत्महत्याओं का पूर्वाभास पा सकते हैं .

हम सभी जानते हैं कि अंग्रेजों ने जो इस्तमरारी बंदोबस्त किया उसी के बाद किसानों और केंद्रीय शासन के बीच का नया वर्ग जमींदार पैदा हुआ. इस व्यवस्था के तहत तब गाँवों की जो हालत थी उसे प्रेमचंद के जरिए देखें ‘ सारे गाँव पर यह विपत्ति थी. ऐसा एक भी आदमी नहीं जिसकी रोनी सूरत न हो मानो उसके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो. चलते फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था. जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो . ‘

उस समय भारत के अर्थतंत्र के सबसे प्रमुख क्षेत्र के उत्पादकों की यही हालत थी । थोड़ी ही देर में इसकी वजह का भी वे संकेत करते हैं -‘ अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है पर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है । बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है । भविष्य अंधकार की भाँति उनके सामने है । उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता । उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गई हैं . ‘

गौर करने की बात है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में कर्ज़ का 70% हिस्सा इन्हीं सूदखोरों से किसानों को मिलता है और उन्हें सदियों पुरानी एक व्यवस्था की जकड़बंदी में फँसाए रखता है. किसानों की आत्महत्याओं के पीछे इन्हीं सूदखोरों की मनमानी देखी गई है.

उपन्यास के नायक ‘ होरी ’  पर यह विपत्ति जिस घटना के कारण टूटती है वह है उसके बेटे का अंतर्जातीय विवाह और दोबारा हम इस मामले में हाल के दिनों में उभरी एक और हत्यारी संस्था का पूर्वाभास पा सकते हैं .

होरी के बेटे गोबर को दूसरी जाति की एक विधवा लड़की से प्रेम हो जाता है . वह गर्भवती हो जाती है. गोबर लाकर उसे घर में रख देता है. गर्भवती बहू को माँ बाप घर से नहीं निकालते. आज की खाप पंचायतों की तरह ही धर्म और मर्यादा के रक्षक पंचायत करते हैं और होरी को जाति बाहर कर देते हैं. सामुदायिकता पर आधारित ग्रामीण जीवन में दूसरों के सहयोग के बिना किसान का जीना असंभव हो जाता है. इसलिए जब वह जाति में आने के लिए गाँव के बड़े लोगों के पैर पकड़ता है तो वे पंचायत कर साजिशन उस पर अस्सी रुपये का जुर्माना लगा देते हैं.  जुर्माना अदा करने में उसका सारा अनाज पंचों के घर पहुँच जाता है.

यह उपन्यास किसान के क्रमिक दरिद्रीकरण की शोक गाथा है.  पाँच बीघे खेत की जोत वाला किसान सामंती वातावरण में क्रमश: खेत गँवाकर खेत मजूर हो जाता है . इस प्रक्रिया में जो सामंती ताकतें किसान को लूटती हैं उन्हीं का साथ शासन की आधुनिक संस्थाएँ भी देती हैं.  उपन्यास का एक जालिम पात्र झिंगुरीसिंह कहता है ‘ कानून और न्याय उसका है जिसके पास पैसा है.

कानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई जमींदार किसी कास्तकार के साथ सख्ती न करे; मगर होता क्या है . रोज ही देखते हो . जमींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है . जो किसान पोढ़ा है, उससे न जमींदार बोलता है, न महाजन . ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं .’

जिस इलाके की कहानी इस उपन्यास में कही गई है वहाँ अन्य फ़सलों से अधिक गन्ने की खेती होती थी . गन्ने की पेराई से पारंपरिक तौर पर गुड़ बनाने से नकद रुपया न मिलता था . परिस्थिति में बदलाव आया चीनी मिलों के खुलने से जिनके मालिक खन्ना साहब भी अपनी मिलों के चलते इसी अर्थतंत्र के अंग हैं . वे बैंकर भी हैं और उद्योगपति भी . उनकी मिल में नकद दाम मिलने की आशा किसानों को होती है और उसी के साथ यह भी कि शायद ये पैसे महाजनों सूदखोरों से बच जायें . लेकिन गाँव के सूदखोर मिल में भुगतान कार्यालय के सामने से अपना कर्ज़ वसूल कर तब किसानों को जाने देते हैं . आज भी गन्ना उगाने वाले किसानों के साथ यही होता है.

ग्रामीण अर्थतंत्र का ही एक हिस्सा जमींदार भी होता है । उस गाँव के जमींदार राय अमरपाल सिंह हैं और उनके जरिए प्रेमचंद तत्कालीन राजनीति पर भी टिप्पणी करते हैं क्योंकि किसान के शोषण की यह प्रक्रिया बिना राजनीतिक समर्थन के अबाध नहीं चल सकती थी. यहीं प्रेमचंद उस समय की कांग्रेसी राजनीति की आलोचना करते हैं. उनकी आलोचना को समय ने सही साबित किया है . रायसाहब जमींदार हैं और कांग्रेस के नेता भी हैं.  वे अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों की शासन में कथित भागीदारी के लिए गठित कौंसिल के मेंबर भी हैं . इसी तरह खन्ना मिल मालिक और बैंकर होने के साथ ही कांग्रेसी भी हैं .

इस कांग्रेसी राजनीति की भरपूर आलोचना धनिया के मुँह से प्रेमचंद ने कराई है-  ‘ ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसनेवाले ! सूद ब्याज, डेढ़ी सवाई, नजर नजराना, घूस घास जैसे भी हो गरीबों को लूटो . जेल जाने से सुराज न मिलेगा । सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से .’

रायसाहब तीसरी बार जब चुनाव लड़ते हैं तो सीमित मताधिकार वाली उस कौंसिल के चुनाव में ही आगामी भ्रष्ट राजनीतिक भविष्य के दर्शन पाठकों को होते हैं.  ‘अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी बार एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गए थे और डंके की चोट एलान कर दिया था कि चाहे हरएक वोटर को एक एक हजार ही क्यों न देना पड़े —. ‘ चुनाव की बिसात पर अपना उल्लू सीधा करने वाले एक पात्र तंखा में हमें आज के लाबिस्ट दलालों के पूर्वज दिखाई पड़ते हैं.

तंखा साहब का गुणगान प्रेमचंद के ही हवाले से सुनिए ‘ मिस्टर तंखा दाँव पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त . कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें. ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज़ दिलाना, नई कंपनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मीदवार खड़े करना यही उनका व्यवसाय था . ‘ ऐसे ही लोगों का ज़ोर देखकर मिर्जा साहब नाम का एक पात्र कहता है ‘ जिसे हम डेमाक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं . ‘

खन्ना साहब की चीनी मिल भी किसानी अर्थव्यवस्था से ही जुड़ी हुई है. होरी का बेटा गोबर जब अपनी गर्भवती प्रेमिका के साथ गाँव में रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता तो लखनऊ भागकर अंतत: इसी चीनी मिल में काम पाता है. गोबर के आचरण में हम भारत के मजदूर वर्ग के निर्माण के शुरुआती लक्षणों को देख सकते हैं और गाँवों की हालत से भागकर शहर में काम करने वाले नौजवानों की चेतना के दर्शन भी हमें होते हैं.

गाँवों के सामंती शोषण से पलायित होकर शहरी अमानवीय परिस्थितियों में काम करने की यह प्रवृत्ति रुकी नहीं आगे ही बढ़ी है . जब वह शहर से गाँव लौटकर आता है तो सभी लोग उसके साथ अपने बच्चों को भेजने के लिए लालायित हो जाते हैं . खेती के अलाभकर होने और ग्रामीण जीवन में भी नकद रुपये पैसे की लेनदेन बढ़ने से नौकरी को यह रुतबा हासिल हुआ था अन्यथा तो घाघ के मुताबिक ‘उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख निदान’ था .

कुल मिलाकर प्रेमचंद ने गोदान में उपनिवेशवादी नीतियों से बरबाद होते भारतीय किसानी जीवन और इसके लिए जिम्मेदार ताकतों की जो पहचान आज के 75 साल पहले की थी वह आज भी हमें इसीलिए आकर्षित करती है कि हालत में फ़र्क नहीं आया है बल्कि किसान का दरिद्रीकरण तेज ही हुआ है और मिलों की जगह आज उसे लूटने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आ गई हैं. यहाँ तक कि जातिगत भेदभाव भी घटने की बजाय बढ़ा ही है. उसे बरकरार रखने में असर रसूख वाले लोगों ने नए नए तरीके ईजाद कर लिए हैं ।

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