कीर्ति
शहर से तीन साल बाद अपने गाँव सामंतपुर लौटी ,गाँव का रंग ढंग तो काफी बदल गया, सड़कें चौड़ीकरण योजना से प्रभावित शेषनाग की तरह फन फैलाती ही जा रही हैं, इंगलिश मीडियम स्कूल तो कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, शहर की सुविधाएं तो सभी आ गयी हैं, हालांकि सस्ती चीजों की गुणवत्ता की गारंटी नहीं होती सो यहाँ भी यही हाल है।
गाँव में मेरा मोहल्ला सबसे बड़ा है और उसके हर सिरे पर एक मंदिर मोहल्ले की रक्षा करते हुए अपना पताका फहरा रहा है। मंदिरों में भी निवेश बढ़ा है इन दिनों, आखिर उसे कैसे पीछे रखते । कभी कभी तो लगता है उत्तर प्रदेश के सारे भक्त यहीं पैदा हो गए हैं। साउंड लगाकर रोज कहीं न कहीं भजन कीर्तन करना तो लाजमी है, कभी बंद भी रहा साउंड तो मुस्लिमों के मोहल्ले वाले उसकी कमी पूरा कर देते हैं।
इस मोहल्ले का एक संयुक्त परिवार मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करता है। मेरी मित्र नम्रता का परिवार जो कि बहुत निराला है। निराला इसलिए नहीं क्योंकि आज के जमाने में भी ये परिवार संयुक्त परिवार की परंपरा निभाता आ रहा है बल्कि इसलिए कि इस एक परिवार में कितनी परतें हैं, कितना विभेद है, चूँकि मेरा परिवार बहुत छोटा है इसलिए भी यहाँ की गतिविधियां मुझे आकर्षित करती हैं।
नम्रता के दादा जी गाँव के सबसे प्रतिष्ठित पंडित और प्राइमरी के रिटायर्ड अध्यापक हैं उनका सारा समय पूजा अर्चना करने तथा घर की महिलाओं पर नजर रखने में जाता है। बड़े पापा गेस्टहाउस के मालिक हैं, चाचा भी पंडित हैं। चूँकि वो तीन लड़कों के बाप हैं तो गर्व से उनका सीना छप्पन इंच का रहता है और पिता जी प्राइवेट टीचर और दो बड़ी बेटियों के पिता हैं, सबसे कम आमदनी उसके पिता जी की है। घर के मुखिया तो दादा जी हैं लेकिन उनका शासन केवल नम्रता के पिता जी पर ही चलता है, अन्य दो बेटों पर नही।
मलकिया मेरे गाँव के बगल एक पुरवा है। आज वहाँ मेला है, पूरे गाँव मे चहल पहल है। बच्चों का उत्साह देखते बनता है। नम्रता, मेरी पड़ोसी दोस्त के घर के भी सभी लड़के दंगल देखने जाने की तैयारी में हैं। लेकिन उसका इन सब चीजों से कोई इत्तेफाक नहीं । वह तो यही कहती है कि उसकी इन सब में दिलचस्पी नहीं लेकिन भाइयों के दंगल देखकर लौटने के बाद बहाने से उनसे वहाँ की एक एक घटना को बाल से खाल निकालते हुए जान लेती है।
घर की चहल पहल खत्म होते ही सूखे कपड़े हटाने छत पर पहुंचती है। मन में न जा पाने की निराशा लिए हुए उसे अचानक खिलखिलाते बच्चों की आवाज सुनाई देती है, शायद वे मेला जाने वाले ही हैं, दौड़कर घर के मुख्य द्वार की तरफ वाली बालकनी से सड़क की ओर झांकना चाहती है कि अचानक उसके कदम ठिठक गए । घर के बाहर बैठे बाबू जी, बड़े पापा, चाचा का ख़याल आते ही निराश होकर लौट आती है। थोड़ी देर बाद घर के पिछले हिस्से की तरफ वाली बालकनी की तरफ झांकती हुई बच्चों के काफिले का वहां तक पहुंचने का इंतजार करती है। थोड़ी देर बाद काफिला दिखाई देता है जिसमें कुछ छोटे बच्चे रंग बिरंगे कपड़े पहने हुए खुशी से अपने अभिभावक की उंगली पकड़े हुए उन्हें लगभग घसीटे हुए तेजी तेजी चल रहे हैं, कुछ किशोर लड़के अपने हमउम्र बच्चों के साथ अपने कारनामों के किस्से सुनाते हुए सेखी बघार रहे हैं, कुछ अपने पिता के साथ बाइक से जाते हुए अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझ रहे हैं और काफिले के पास पहुंचकर हॉर्न बजा बज कर सड़क अपने लिए खाली होता देख शहंशाह की तरह गर्व अनुभव कर रहे हैं। ये सब दृश्य देखकर उसकी बड़ी बड़ी काली आँखों में जैसे चमक सी उत्पन्न हो जाती है।
इसी दौरान उसे एक साइकिल जाती हुई दिखी जो कि अपनी क्षमता से ज्यादा भार लिए हुए थी,उसने उसे आकर्षित कर लिया। साइकिल पर हमारे गाँव का मंगरू था जो कि दलित है, अपने साइकिल की डंडी में अपनी छोटी लड़की और पीछे स्टैंड पर बड़ी लड़की को बिठाए उनके तमाम सवालों के जवाब देता हुआ उन्हें मलकिया का दंगल दिखाने ले जा रहा था । उन बच्चियों के चेहरे में से उनके दाँत ही दूर तक चमकते दिख रहे थे, जिससे उनकी खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता था। उनको देखकर उसका मन उल्लास से भर गया लेकिन अचानक मंगरू को देखकर उसका मन व्यथित हो गया। वह सोचने लगी समाज में सबसे ज्यादा शोषित इस पिता से भी उसके पिता की स्थिति बदतर क्यों है? क्यों वो इतनी आजादी से उसकी खुशियों के लिए फैसले नहीं ले सकते?
नम्रता अपनी उम्र से तीन चार वर्ष बड़ी ही दिखती है, उसकी उम्र के अन्य बच्चों की तरह न तो उसकी गतिविधियां हैं न ही उसका रहन सहन। उसके बाल उसकी लम्बाई के आधे से अधिक , घुटनों को ढँके रखने वाली कुर्तियां भी उसकी उम्र और बढ़ा देती हैं, हालाँकि उसकी बड़ी बड़ी काली आँखों में इतनी सारी जिज्ञासाएं भरी होती हैं कि अगर उन्हें पढ़ा जाय तो वो अपने उम्र से छोटी ही नजर आएगी।
मैं कहीं घूम कर आऊँ और उसे बताए बिना और अपनी सेखी बघारे बिना मुझसे रहा नहीं जाता, लेकिन बताने के बाद भी मुझे लगता है मैं मकड़ी के जाल में ही फँस गयी हूँ । उसके सवालों की झड़ियाँ लग जाती हैं, मानो मेरी आँखों से वो पूरा दृश्य देख लेना चाहती हो। कभी कभी तो मुझे बहुत गुस्सा आता है, लेकिन जब मैं उस नम्रता के बारे में सोचती हूँ जिसे मैं बचपन से जानती हूँ तो मुझे उस पर प्यार और तरस आता है, मैं तो शहर में पढ़ने लगी लेकिन नम्रता यहीं गावँ में ही रह गयी।
खेलने में तो नम्रता मुझसे भी तेज थी इसलिए मैं तो उससे जलती थी और चाहती थी कि वो खेलने न आने पाए तो अच्छा है । एक बार तो हम दो तीन लड़कियां खेल रही थी तभी देखा कि उसके बड़े पापा प्रचण्ड रूप धारण किए हमारी तरफ चले आ रहे थे । उनकी आँखें गुस्से से लाल थी, नम्रता इन सबसे बेखबर खेलने में मशगूल थी ,उन्हें देखते ही हम सब रुक गए वो नम्रता की तरफ ही बढ़े चले जा रहे थे और जोर से दहाड़ते हुए डाँटने लगे। उनकी आवाज सुनते ही नम्रता ठिठक गयी, उसके कान लाल हो गए, उसकी आँखों मे भय ही भय था। थोड़ी देर बुत बने रहने के बाद पता नहीं कहाँ से उसके अंदर इतनी स्फूर्ति आयी कि वो इतनी तेजी से भागी कि घर के अंदर जाकर ओझल हो गयी। उसके अंदर जाने के बाद वो खुद रोज की तरह घर के बाहर कुर्सी लगाकर जंगल के राजा की तरह बैठ गए। आज भी मुझे याद है उसके बड़े पापा डांटते हुए कह रहे थे-“चल घर के अंदर,नाक कटावत अहै हमार, आज के बाद कभौ इधर उछलत देखे तो हमसे बुरा कौनो न होई।”
उस दिन के बाद से वो कभी खेलने नहीं आयी । अब तो मैं खुद ही चाहती थी कि वो खेलने आए, अब हमारे पास खेलने के लिए केवल एक ही दोस्त बची थी क्योंकि हमारी उम्र की कोई लड़की नही थी पंडितों के मोहल्ले में। मैं उससे अब उसके घर ही मिलने जाने लगी ,बीस लोगों के संयुक्त परिवार में भी दस साल की नम्रता कभी मुझे लहसुन छीलते मिलती तो कभी अपने दादा, चाचा आदि की आज्ञा का पालन करते हुए उन्हें जरूरत का समान पहुँचाने का काम करती हुई। घर के लड़के तो खेलते ही रहते । यहाँ तक कि उसके बड़े पापा की लड़कियाँ उससे उम्र में आठ दस साल बड़ी हैं, वो भी कोई काम नहीं करती थी, आखिर उनके पापा एक गेस्टहाउस के मालिक जो थे।
मेरे जब शहर जाने की बारी आई तो उसके पिता भी उसे भेजना चाह रहे थे। हालांकि उनकी आमदनी बहुत कम है फिर भी उन्होंने निश्चय कर लिया था। नम्रता के दादा पंडित बिन्देश्वरी प्रसाद अपने सिद्धांतों के पक्के हैं कि लड़की को घर के बाहर कदम नहीं रखना है, हालांकि वो दुर्गा, काली, राधा आदि के सबसे बड़े पुजारी हैं। पारिवारिक असहमति के बाद तो उन्हें बाहर के लोग भी ताने और नसीहतें देने लगे।
हमारे गाँव की बिमला चाची को हमारे गाँव की प्रसारण मंत्री कहा जाय तो गलत नही होगा। गाँव की औरतों के साथ उनके संवाद को मैंने सुना-“बिटिया चाहे जेतना पढ़ ल्या करै के अहै चूल्है चउका”। इनसे भी अधिक प्रगतिशील महिला रंजना चाची जिन्होंने अपनी लड़की की शादी इंटर के बाद ही कर दी, उनको तो हमेशा ही नम्रता की मम्मी को सलाह देते हुए मैं सुनती थी-“बिटियन से रोटी बनवावा करा, नहीं फिर इही तरह के बिटियन ससुरे में नहीं खटतिन,वह मिसराइन के बिटिया का देखा न भाग तौ आइस ससुरे से।”
अन्ततः नम्रता शहर पढ़ने के लिए नहीं जा सकी, उसकी सारी ख्वाहिशें धरी की धरी रह गयी। अपने सपनों का पिटारा जो पहले वो मेरे सामने ही खोला करती थी अब उसे भी हमेशा के लिए बंद करके रख लिया है। शायद उसने भी अपने नियति को स्वीकार कर लिया है।
(कीर्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष की छात्रा हैं, महादेवी वर्मा स्मृति महिला पुस्तकालय से जुड़ी हैं।)