लखनऊ, 19 मई। ऐसे समय में जब क्वीयर और जेंडर नॉन-कनफॉर्मिंग लोगों के अस्तित्व को या तो निशाना बनाया जा रहा है, या फिर बाज़ार और सत्ता द्वारा निगल लिया जा रहा है, जन संस्कृति मंच ने जेंडर और क्वीयर संवेदनशीलता कार्यशाला आयोजित की। यह केवल एक संवाद नहीं था बल्कि एक सांस्कृतिक हस्तक्षेप था, एक राजनीतिक प्रतिरोध। 18 मई की शाम आयोजित इस कार्यशाला का उद्देश्य केवल समझाना नहीं था बल्कि उस व्यवस्था से टकराना था जो हमें अपनी जड़ परम्पराओं में बांधती है और उसी के अनुरूप मानस को गढ़ती है। इस कार्यशाला का संचालन नगीना निशा और शांतम निधि ने किया।
कार्यशाला में विभिन्न उम्र और पृष्ठभूमि के प्रतिभागी शामिल थे, हालांकि अधिकांश प्रतिभागी सिसजेंडर और हेटेरोसेक्शुअल थे। यह भी ज़रूरी था, क्योंकि उद्देश्य केवल पहले से सहमत लोगों तक नहीं पहुँचना था, बल्कि सामान्य माने जाने वाले विचारों को असामान्य बना देना था। कार्यशाला की शुरुआत एक लेखन गतिविधि से हुई । प्रतिभागियों से पूछा गया कि उन्हें पहली बार कब यह महसूस कराया गया कि उनका जेंडर “गलत” है। कब किसी शिक्षक, अभिभावक, दोस्त या समाज ने उन्हें कहा कि “लड़कों की तरह बर्ताव करो” या “लड़कियों की तरह रहो।” कमरे में एक भारी ख़ामोशी पसर गई। लोगों ने धीमे-धीमे लिखना शुरू किया। जब इन अनुभवों को साझा किया गया तो उनमें एक गहराई और पीड़ा थी जो शब्दों से बाहर जाती थी। हर किसी के अनुभव अलग थे, लेकिन पैटर्न साफ़ था कि जेंडर कोई प्राकृतिक चीज़ नहीं है। यह थोपा जाता है, सिखाया जाता है, और उल्लंघन करने पर सज़ा भी दी जाती है।
इसके बाद चर्चा का रुख़ इस ओर गया कि आख़िर पुरुष और स्त्री के बीच क्या कोई बुनियादी अंतर है ? क्या यह अंतर केवल जैविक है ? और क्या यह जैविकता हमें तय करती है ? सामूहिक रूप से यह समझ सामने आई कि पुरुष और स्त्री के शरीर में जो अंतर है, वह केवल प्रजनन से जुड़ा है। लेकिन उस अंतर के इर्द-गिर्द सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे गढ़े गए हैं। परिवार जो समाज की सबसे बुनियादी इकाई है, केवल स्नेह और सुरक्षा का स्थान नहीं है, बल्कि नियंत्रण, वंशवृद्धि और संपत्ति के हस्तांतरण का भी माध्यम है। फ्रेडरिक एंगेल्स के विचारों को साझा करते हुए बताया गया कि जब तक संपत्ति का विचार नहीं आया था, तब तक पितृसत्ता जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन जैसे ही समाज में उत्तराधिकार का सवाल आया, स्त्रियों की यौन स्वतंत्रता को नियंत्रित करना ज़रूरी बना दिया गया ताकि “शुद्ध रक्त” की वंश परंपरा बनी रहे। यही है पितृसत्ता की बुनियाद।
शांतम निधि द्वारा यह सवाल सबके सामने रखा गया कि जब समाज की पूरी रचना ही इस बात पर आधारित हो कि कौन किससे प्रेम कर सकता है, किसकी देह कैसी होनी चाहिए, और किसे किस भूमिका में रहना है, तो वह समाज आख़िर किसके लिए है ? क्या हम समाज को मनुष्यों के लिए बना रहे हैं, या मनुष्यों को उस समाज के अनुसार ढालने की कोशिश कर रहे हैं ?
ऐसी स्थिति में क्वीयर अस्तित्व कोई विचलन नहीं, बल्कि एक चुनौती है। “क्वीयर” का अर्थ ही होता है — अजीब। लेकिन यह अजीब किसके लिए है ? सिर्फ़ उस व्यवस्था के लिए जो हर चीज़ को मर्द और औरत के डिब्बों में बंद करना चाहती है। क्वीयर जीवन इस व्यवस्था को विघटित करता है क्योंकि वह स्क्रिप्ट के बाहर जीता है। वह उस सच को जीता है जिसे समाज छिपाना चाहता है। एक पुरुष जो काजल लगाता है, एक स्त्री जो शादी नहीं करती, एक व्यक्ति जो दोनों की सीमाओं को तोड़ता है, ये सब अस्तित्व में ही प्रतिरोध हैं।
अपनी बात को निजी स्तर पर ले जाते हुए, शांतम निधि ने अपनी लिखी एक छोटी सी रचना पढ़ी। यह उस अनुभव पर आधारित थी जब उन्होंने पहली बार किसी पुरुष से प्रेम किया। वह अनुभव न तो किताबों में पढ़ा था, न फिल्मों में देखा था, न किसी ने सिखाया था। वह अनुभव बिल्कुल नया था, लेकिन पूरी तरह उनका था। क्वीयर प्रेम भी प्रेम होता है। लेकिन वह अलग भी होता है। क्योंकि उसे कोई सिखाता नहीं, वह किताबों या विवाह गीतों से नहीं आता। वह भीतर से उगता है, अंधेरे में, भय के बीच, ख़ुद से। और इसलिए वह प्रेम कमज़ोर नहीं होता, वह सच्चा होता है।
अंत में, एलजीबीटीक्यू प्लस (LGBTQIA+) शब्द का सरल भाषा में विश्लेषण किया गया। हर अक्षर के पीछे की पहचान, संघर्ष और इतिहास को साझा किया गया। और ज़ोर देकर कहा गया कि यह कार्यशाला कोई उपलब्धि नहीं है। यह केवल एक शुरुआत है। संवेदनशीलता कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं है। यह जीवन भर का संघर्ष है। एक साहसी प्रक्रिया, जिसमें हम अपने सीखे हुए झूठों को पहचानते हैं और उन्हें छोड़ते हैं। इस कार्यशाला में सईदा सायरा, विमल किशोर, सिम्मी अब्बास, कौशल किशोर, सत्यप्रकाश चौधरी, असगर मेहदी, फरजाना महदी, राकेश कुमार सैनी, सुचित माथुर और शुभम शामिल हुए।