समकालीन जनमत
कविता

दौरे हाजि़र पर एक गहरी नज़र हैं ग़ज़ाला की ग़ज़लें

नवनीत शर्मा


ग़ज़ाला की ग़ज़लों में सबके अहसास

अपनी लिखी कहानी को ही जी रही हूँ अब
इक जैसा ही तो है मेरा किरदार ,और मैं
छोड़ कर जाऊं कहाँ ख़ाके वतन तुझ को मैं
अपनी परतों के तले सब से छुपा ले मुझको
किसी ने जाते जाते छीन ली ऐसी मेरी सांसे
कि जारी साल को जैसे दिसम्बर छीन लेता है
मुझसे क्या पूछना मेरा मजहब 
क्या ये कम है कि आदमी हूँ मैं
झूठ में फिर से तरबतर निकली
ख़ून में डूबी हर ख़बर निकली

ये तमाम अश्‍आर ग़ज़ाला तबस्‍सुम साहिबा का पता देते हैं। ये बताते हैं कि शायरी का विस्‍तार इतना है कि वह अब ग़ज़ाला यानी हिरणी की चीख भर नहीं रह गया है। ग़ज़ाला की ग़ज़ल हर अहसास की ग़ज़ल है। उसमें हिरणी की चीख के साथ ही आम आदमी के अहसासात हैं, घुटन है, इश्‍क है, ज़रूरियात हैं और है दौरे हाजि़र पर एक गहरी नज़र।

दो मिसरों में बात करना आसान नहीं होता। फिर यह भी कहा जाता है कि हर मजमून ग़ज़ल में ढल जाए यह ज़रूरी तो नहीं। लेकिन ग़ज़ाला के यहां ग़ज़ल जब आती है तो उसमें से कुछ तो कुछ तो बकौल गा़लिब के, ग़ैब के मज़ामीं की तरह आती है और कुछ उन्‍होंने अपनी मेहनत से  ग़ज़ल के नोक पलक को संवारा है। ग़ज़ल के तकनीकी पक्ष से ग़ज़ाला परिचित हैं। यह आधारभूत ज़रूरत है लेकिन शे’र होना इससे आगे की चीज़ है जिसमें ग़जाला पीछे नहीं हैं।

दरअस्‍ल ग़ज़ल में एक दो अश्‍आर भी काम के निकल आएं तो ग़ज़ल कामयाब मानी जाती है लेकिन ग़ज़ाला के पूरी पूरी ग़ज़ल ऐसी हो जाती है कि अरे…. एक भी शे’र कमज़ोर नहीं।

न हुआ पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब
ज़ाैक़  यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा

ग़ज़ाला के यहां ग़ज़लगोई और उससे आगे बढ़ कर शायरी जीने की ज़रूरत है। इसीलिए उनके यहां ग़म-ए -जानां और ग़म-ए- दौरां दोनों का मिश्रण दिखता है। यही मिश्रण अ़ज़ल से ग़ज़ल को ज़ीनत बख्‍शता है। शायर अपने ग़म से आज़ाद नहीं हो सकता। लेकिन वह अपने आसपास से भी फ़राग़त हासिल नहीं कर सकता। इसी भाव को फ़ैज़ ने भी एक मिसरे में कहा था, लौट जाती है इधर को भी नज़र क्‍या कीजे….. या फिर दुष्‍यंत ने कहा था…
वो कर रहे हैं इश्‍क पर संजीदा गुफ़्तगू
मैं क्‍या बताऊं मेरा कहीं और ध्‍यान है

ग़जाला की शायरी ऐसे जज्‍बात का अनुवाद है जो खुद से शुरू होते हैं और दुनिया के हर हिस्‍से तक पहुंचते हैं। इसीलिए वह कह सकती हैं –
हर आँख है बुझी बुझी चेहरा उदास है
जैसे फ़िज़ा पे शहर की छाया हुआ है दर्द

इधर कितना कुछ एक साथ है :

लिपटे हैं मुझ से यादों के कुछ तार ,और मैं
ठंडी हवाएं सुब्ह की, अख़बार ,और मैं

ग़ज़ाला का अपने परिवेश का आकलन कितना महीन है कि आप खुद देखिए कि उनकी नज़र कहा तक जाती है –

ख़ुद में सिमटे हैं साथ रह कर भी
जैसे रिश्ते हों मर्तबानों में

यही ग़ज़ाला कई बार शरारती हो जाती हैं आौर कहती हैं:

किसी हंसते बच्चे को काटूं मैं चुटकी
हसूँ जोर से और उसको रुला दूं
दिखे कोई सुस्ताती मासूम तितली
हिला कर के शाखें उसे फिर उड़ा दूं

ग़ज़ाला का तंज़ बेहद मारक है :

ये मर्ज़ी मेरी दे दूं गंजे को कंघी
या फिर अंधे के हाथों में आईना दूं

और एक नदी के बहाने वह कैसा स्‍त्री विमर्श खोलती हैं, यह देखिए :
ग़ौर   से   देखिये   नदी   हूँ  मैं
मुख़्तसर सी ही बच सकी हूँ मैं

ग़ज़ाला तबस्‍सुम की शायरा शादाब रहे आबाद रहे।

 

ग़ज़ाला तबस्‍सुम की ग़ज़लें

 

1.
लिपटे हैं मुझ से यादों के कुछ तार ,और मैं
ठंडी हवाएं सुब्ह की, अख़बार ,और मैं
जगते रहे हैं साथ ही अक्सर तमाम शब
मेरी ग़ज़ल के कुछ नए अशआर ,और मैं
क्या जाने अब कहां मिलें, कितने दिनों के बाद
लग जाऊं क्या गले तेरे , इक बार और मैं
अपनी लिखी कहानी को ही जी रही हूँ अब
इक जैसा ही तो है मेरा किरदार ,और मैं
पहले तो ख़ूब तलवों को छाले अता हुए
अब हम सफ़र हैं रास्ता पुरखार ,और मैं
ग़म था न कोई इश्क़ो मुहब्बत की फिक्र थी
जीते थे ज़िन्दगी को मेरे यार , और मैं
अक्सर ही करते रहते हैं ख़ामोश गुफ़्तगू
लग कर गले से आज भी दीवार , और मैं।
2.
कशमकश के किसी जाले में न पाले मुझको
उसको कह दे कि ख्यालों से निकाले मुझको
मुझसे हो जाएगा अब तुझको निभाना मुश्किल
ज़िन्दगी तेरे हवाले हूँ निभा ले मुझको
एक मुद्दत से मुलाक़ात नहीं है ख़ुद से
इल्तिज़ा तुझसे है कर मेरे हवाले मुझको
मेरे कमरे में बनी कांच की अलमारी से
ताकते रहते हैं हसरत से रिसाले मुझको
साथ में रहती हूँ मशअल की हिमायत के लिए
देखते क्यों हैं हिक़ारत से उजाले मुझको
छोड़ कर जाऊं कहाँ ख़ाके वतन तुझ को मैं
अपनी परतों के तले सब से छुपा ले मुझको
फिक्र में अपनी मुझे कोई तो शामिल कर ले
अपने अशआर के सांचे में ही ढाले मुझको।
3.
ये जी चाहता है हवा को क़बा दूं
ज़मीं को उठा आसमाँ को झुका दूं
रिदा काली खींचूं मैं शब को जगा दूं
या दे कर के थपकी सहर को सुला दूं
बिछा अपना आँचल हरा कर दूं सहरा
लबों से लगा कर समंदर सुखा दूं
किसी हंसते बच्चे को काटूं मैं चुटकी
हसूँ जोर से और उसको रुला दूं
दिखे कोई सुस्ताती मासूम तितली
हिला कर के शाखें उसे फिर उड़ा दूं
लगा कर के काजल के टीके गुलों को
खिजां की नज़र से बचा लूँ छुपा दूं
ये दिल चाहे किरणों की झालर बना कर
के,शबनम के मोती से उसको सजा दूं
ये मर्ज़ी मेरी दे दूं गंजे को कंघी
या फिर अंधे के हाथों में आईना दूं
कहे कोई पागल तो कहता रहे वो
ये कोशिश है मेरी सुख़न कुछ नया दूं।
4.
ख़्वाब बनते जो कारखानों में
बिकती ताबीर फिर दुकानों में
दर बदर फिरती है मुहब्बत अब
पल रही बेरुख़ी मकानों में
गर्दिशों में है बख़्त का सूरज
धूप अटकी है सायबानों में
एक तहज़ीब अपने साथ लिए
रंग सिमटे थे पानदानों में
ख़ुद में सिमटे हैं साथ रह कर भी
जैसे रिश्ते हों मर्तबानों में
नफरतों की ये कश्तियाँ तौबा
प्यार  हंसता है बादबानों में
कोई मशहूर हो गया जग में
ज़िक्र करके मेरा फ़सानों में।
5.
बख़्त ,,,  क़िस्मत
सायबानों,,मकान के आगे का छाजन
ढूंढते ढूंढते हम आपको थक जाते हैं
रास्ते दूर,,, बहुत दूर तलक जाते हैं
कोई आता नहीं बोसीदा से मेरे घर में
कुछ परिंदे ही यहां आके चहक जाते हैं
ऐब दहलीज़ पे दौलत की ढ़के होते हैं
मुफ़लिसी आती है तो पर्दे मसक जाते हैं
दौरे हाज़िर की हवाओं का असर तो देखो
वक़्त से पहले ही फल बाग़ के पक जाते हैं
अह्द करते हैं न पीने का अल्स सुब्ह मगर
शाम के आते ही पैमाने छलक जाते हैं।
आंसू रुख़सार को छूने की तमन्ना ले कर
आंखों की कोर से गालों पे ढ़लक जाते हैं!
6.
बता रहे थे वो ख़ुद को महान काग़ज़ पर
लड़ा रहे थे दो गूंगे ज़ुबान काग़ज़ पर
उनींदे लफ्ज़ हैं ,एहसास भी हैं बोझिल से
उतार डाली है किसने थकान काग़ज़ पर
तड़प है टीस है ज़ख्मों की मेरी ग़ज़लों में
दिखेंगे,,, ग़ौर से देखो  निशान काग़ज़ पर
हमें न मुब्तला उलझन में ज़िन्दगी करना
दिए हैं हमने सभी इम्तिहान काग़ज़ पर
क़लम के साथ हुई जंग रात लफ़्ज़ों की
निकल गई है स्याही की जान काग़ज़ पर
ये ज़िन्दगी फ़ना हो जाएगी मेरी इक दिन
बची रहेगी मगर दास्तान काग़ज़ पर।
7.
उड़ानों का हर इक मौक़ा सितमगर छीन लेता है
वो मुझको हौसला दे के,मेरे  पर छीन लेता है
मुझे खैरात में देके वो अपने प्यार के लम्हे
मेरी नींदे मेरे ख़्वाबों के मंज़र छीन लेता है
किसी ने जाते जाते छीन ली ऐसी मेरी सांसे
कि जारी साल को जैसे दिसम्बर छीन लेता है
मिज़ाजों को बदलने की है  चाहत इस क़दर इसको
थमा कर हाथ में गुंचे वो खंजर छीन लेता है
वो चाहे तो अता कर दे न हो जो कुछ मुक़द्दर में
अगर देना न चाहे तो वो दे कर छीन लेता है।
8.
ग़ौर   से   देखिये   नदी   हूँ  मैं
मुख़्तसर सी ही बच सकी हूँ मैं
वक़्त  की   धूप  में  तपी हूँ मैं
अपने सांचें में  तब ढली हूँ मैं
अब नज़ाकत नहीं रही मुझमें
दौरे हाज़िर की शायरी हूँ मैं
मुझसे क्या पूछना मेरा मजहब
 क्या ये कम है कि आदमी हूँ मैं
मेरी परवाज़ पर न कर बंदिश
अपने माँ बाप की परी हूँ मैं
क्या बुझाएंगे सागरो मीना
तेरे होंठों की तिश्नगी हूँ मैं
आप चाहे  मेरा यकीं न करें
सच वही है जो कह रही हूँ मैं।
9.
ख्वाब उनके आज पूरे हो गए
हाथ बेटी के जो पीले हो गए
आपकी नफ़रत के सदके देखिये
दांत लफ़्ज़ों के नुकीले हो गए
ग़म जुदाई का शज़र से हो रहा
सब्ज़ पत्ते यूं न पीले हो गए
वक़्त के ही साथ बदले ज़ायके
सब्र के अब फल भी फीके हो गए
वक़्त ने करवट ज़रा बदली ही थी
लफ्ज़ ही अपनों के ही तीखे हो गये
इस ज़मीं पे आमदे महताब से
हर तरफ देखो उजाले हो गए
प्यार में उनके ग़ज़ाला ये हुआ
सँग  से  हम  तो नगीने हो गए।
10.
ख़ुद ही नहीं  ह़यात  में  आया हुआ है दर्द
करके रक़म खुशी को कमाया हुआ है दर्द
इक दिल नहीं हमारा, है इसके निशाने पर
रग रग नफ़स नफ़स में समाया हुआ है दर्द
अब भीगती नहीं है अलम से हमारी आंख
ग़म की तमाज़तों में सुखाया हुआ है दर्द
दिखती है टीस आंखों में चीख़ें ख़मोश हैं
कुछ इस तरह जिगर में दबाया हुआ है दर्द
हर आँख है बुझी बुझी चेहरा उदास है
जैसे फ़िज़ा पे शहर की छाया हुआ है दर्द
खुशियों के साथ मिलता रहे लुत्फ़े ग़म हमें
खुशियों में हमने थोड़ा मिलाया हुआ है दर्द
इनको जुदाई हमसे भला क्यों गवारा हो
नाज़ो अदा  से  हम ने  उठाया हुआ है दर्द।
11.
करते हैं संग  ह़ाल  बयाँ  पाश पाश का
शायद अधूरा ख़्वाब है पैकर तराश का
कांधों पे बोझ लाद लिया अपनी लाश का
यूँ ख़त्म इक सफ़र हुआ ख़ुद की तलाश  का
मिलने लगी हैं आहटें हर सू बहार की
घुलने  लगा  है रंग फ़िज़ा में पलाश का
भाने लगी है खुशबू नए गुल की अब उन्हें
हर ख़्वाब यूँ है बिखरा ,घरौंदा हो ताश का
जाकर रुकी हैं ख्वाइशें जिस एक लफ्ज़ पर
अब तो सफ़र हो ज़ारी उसी लफ्ज़े काश! का
उतरे खरे न ‘ख़े’ के तल्लफ़्फुज़ पे बज़्म में
झट दे गए बहाना गले की ख़राश का
पहना दिया है लोगों ने हंसते हुए कफ़न
अश्क़ों से ग़ुस्ल हो गया जब मेरी लाश का
संग,, पत्थर
पाश पाश,, टुकड़े टुकड़े
पैकर तराश,,मूर्तिकार
तल्लफ़्फुज़..उच्चारण
गुस्ल… स्नान
12.
असर जितना क़लम की धार में है
कहाँ वह खन्जर ओ तलवार में है
जुनूं तारी है मुझपर आशिकी़  का
कोई रहता मेरे किरदार में है
अदब की बोलियाँ जो लग रही हैं
बड़ी रौनक अभी बाज़ार में है
 छपी है मौत इसके हर वरक़ पर
लहू बिखरा हुआ अख़बार में है
नहीं है फ़र्ज़ से मतलब किसी को
नज़र सब की मगर अधिकार में है
गिरा कर क्या करें चेहरे पे चिलमन
कि वो चेहरा निगाहे यार में है
अभी से दाद क्यों देने लगे तुम
ग़ज़ल मेरी अभी विस्तार में है।
13.
सिर्फ ऐसा नहीं मयकशी छोड़ दी
बाख़ुदा हमने तो जिन्दगी छोड़ दी
बढ़ गयी फिर जुबां की भी आवारगी
जब से लहज़े ने शाइस्तगी छोड़ दी
ज़िन्दगी मुझ से हँस के मिलेगी कभी
आस रख्खी कभी अर कभी छोड़ दी
उसने चाहा नहीं हो मुकम्मल कोई
इसलिए हर किसी में कमी छोड़ दी
लेके उसको भटकते कहाँ उम्र भर
दर पे दरिया के ही तिश्नगी छोड़ दी
फ़स्ल ख़्वाबों की उगते रहें इसलिए
अपनी आँखों में थोड़ी नमी छोड़ दी
काश ! कह पाते तुझसे ए मेरे नबी
तेरी उम्मत ने राहे बदी छोड़ दी।
14.
झूठ में फिर से तरबतर निकली
ख़ून में डूबी हर ख़बर निकली
ख़्वाब मेरे तवील थे लेकिन
ज़िन्दगी तू ही मुख़्तसर निकली
घर अमीरों के भर गए ज़र से
आह मुफ़लिस की बेअसर निकली
शक्ल में हादसे की ही घर से
मौत बन कर के हमसफ़र निकली
आंख भीगी मिली थी शबनम से
शब के दामन से जब सहर निकली
सिर्फ तक़दीर ही नहीं थी भली
उनकी काविश भी मोतबर निकली
तूने बख़्शे तो थे हुनर मालिक
आह! दुनिया ही कम नज़र निकली.
(ग़ज़लगो ग़ज़ाला तबस्सुम आसनसोल, पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं और देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में इनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रहीं हैं।
सम्पर्क:talk2tabassum@gmail.com
टिप्पणीकार नवनीत शर्मा हिमतरु और ऑथर्स गिल्ड ऑफ हिमाचल प्रदेश समेत कई संस्थाओं से सम्मानित हैं और हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में रहते हैं। संप्रति : दैनिक जागरण में राज्य संपादक प्रकाशन: ‘ढूंढना मुझे’ कविता संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर से 2016 में
कई पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लें और कविताएं प्रकाशित। आकाशवाणी, दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण।
कविताओं और ग़ज़लों के अलावा राजनीति, समाज, संस्कृति और परिवेश पर नियमित टिप्पणियां।
एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन Twitter handle.: @nsharmajagran
Mail: navneet.sharma35@gmail.com

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