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देव नाथ द्विवेदी की गज़लें जीवन के यथार्थ से जुड़ने की आग्रही हैं

कौशल किशोर


 

देव नाथ द्विवेदी की शायरी रंग, नस्ल, स्थान, जाति के अधार पर मनुष्यता को खण्डित करने के चल रहे कुचक्र के बरक्स सहिष्णुता और सौहार्द की लौ जलाती है और अपनी ग़ज़लों से इस भाव-विचार को अभिव्यक्त करती है कि मनुष्यता की सेवा ही मनुष्य होने की सार्थकता है। देव नाथ द्विवेदी के नये ग़ज़ल संग्रह ‘हवा परिन्दों पर भारी है’ की ग़ज़लें ऐसी ही हैं। इसमें उनकी 103 ग़ज़लें शामिल हैं।

यह देवनाथ द्विवेदी की ग़ज़लों की विशेषता है कि उनकी ग़ज़लों ने भूख, गरीबी, मुफलिसी, खेत, किसान, सड़क, फुटपाथ के साथ समय, समाज व जिन्दगी के जद्दोजहद को कथ्य बनाया और उसे जिस छन्दबद्ध व लयात्मक तरीके से काव्य के आम पाठकों तक पहुंचाया है, इससे हिन्दी कविता समृद्ध हुई है।

यही आज की ग़ज़लों का नया वितान है। इनमें एक तरफ मानव प्रेम और प्रतिरोध की चेतना है तो वहीं सामाजिक दायित्वबोध। दुष्यन्त जब कहते हैं: ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं/वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूं’ तो यह जीवन यथार्थ से जोड़ने की कोशिश ही तो है। यही कोशिश देव नाथ द्विवेदी की ग़ज़लों में भी दिखती है। संग्रह की पहली ग़ज़ल को ही हम देखें। वे बड़ी विनम्रता से कहते हैं:

ज़िस्म में दिल के लिए थोड़ी सी जगह रखिए
दिल में इंसान कहे जाने की वजह रखिए
रात के पास अगर दर्द के अफसाने हैं
रात के बाद खुशी से भरी सुबह रखिए

जब कवि ऐसी बात कहता या लिखता है तो उसका आशय यही है कि जिस्म तो मनुष्य का मिल गया है लेकिन प्रश्न है कि क्या उसमें दिल मनुष्यता का है या नहीं ? यदि वहां मनुष्यता नहीं है तो फिर काहे का मनुष्य। कवि बढ़ती हृदयहीनता व अमानवीयता को प्रश्नांकित करते हुए इस बात पर जोर देता है कि आप इन्सान हैं तो अपने व्यवहार से यह साबित करना है कि आप वास्तव में इन्सान हैं। इसे एक ग़ज़ल में देव नाथ द्विवेदी यूं व्यक्त करते हैं:

नाम तुम्हारा लेने से मधुमास आ गया जीवन में
आशाओं से भरा एक आकाश आ गया जीवन में
मन आंगन में तेरे तन मन का सुवास फैला है
गतिमय सांसों का फिर से अहसास छा गया जीवन में

देव नाथ द्विवेदी की ग़ज़लों में जीवन के कई रंग हैं। वे प्रेम को जीवन को लिए आवश्यक मानते हैं, वहीं प्रकृति से उनका लगाव भी कम नहीं है। संकट में आज जीवन ही नहीं है वरन प्रकृति भी है। उसका निहित स्वार्थ में जिस तरह दोहन हो रहा है, वह चिन्ताजनक है। प्रदूषण का विस्तार इस कदर हुआ कि उसने प्रकृति से लेकर संस्कृति तक के अस्तित्व को संकटग्रस्त कर दिया है। अपनी ग़ज़लों के माध्यम से देव नाथ द्विवेदी उस हवा से रू ब रू कराते हैं जो परिन्दों पर भारी हो गई। वे कहते हैं:

नदियां खोई नहरों में
खेत समाये शहरों में
हवा परिन्दों पर भारी है
जहर घुला है लहरों में

देव नाथ द्विवेदी श्रम को बड़ा महत्व देते हैं। उनकी समझ है कि दुनिया की जो भव्यता है, जो सौंदर्य है वह श्रम और श्रमिकों के पसीने की खुशबू है। इसीलिए वे साकी, मयखाना, जाम तक अपनी शायरी को सीमित कर देने वाले शायरों से कहते हैं कि वे वहां से निकले और हाशिय पर ढकेल दिये लोगों और श्रमिक समाज को जाागृत करने का काम करें। वे कहते हैं:

आज मैखाना न साकी न कोई जाम लिखों
कलम उठाओ ग़ज़ल में कोई पैगाम लिखो

देव नाथ द्विवेदी के लिए अतीत शिक्षक की तरह है। वे अतीतजीवी नहीं हैं बल्कि अतीत की समधुर यादों के सहारे वर्तमान में आगे बढ़ने के लिए अपनी राह बनाते हैं। आज आदमी मुखौटे लगाये है। वह दोहरापन का जीवन जीता है। उसे पहचानना मुश्किल है। वहीं, अतीत का समाज नेह-स्नेह का था। उस समय भी दुख-दर्द कम नहीं थे पर सामूहिकता की भावना और प्रेम से वे उसका सामना करते थे। इसीलिए उनके मन में ‘आंख मिचैनी वाले ठौर ठिकाने’, ‘फूल खिलाने वाले मौसम’, ‘चतुरी चाचा की चैकस चैपाल’ जैसी चीजें आज भी बसी है। वे कहते हैं:

कोई तो बतलाए सखियां, दोस्त पुराने कहां गए
आंख मिचैनी वाले सारे ठौर ठिकाने कहां गए
चांद सितारे सूरज तक सबने आपस में बांट लिए
खुश रहने के वो पहले वाले पैमाने कहां गए

इस तरह देव नाथ द्विवेदी की गजलों में वर्तमान सामाजिक स्थितियों के चित्र हैं, आम आदमी का दर्द और उसका संघर्ष है, उसके अन्दर उम्मीद है, वह हारना नहीं चाहता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि ये गजलें हमें समय से रू ब रू कराती हैं और निराश होने की जगह चुप के खिलाफ, गलत के खिलाफ उठ खड़े होने का आहवान करती हैं:

न यूं सब चुप रहो अब/करो कुछ भी करो अब
गलत है क्या सही क्या/फरक कुछ तो करो अब
बहुत कम वक्त है अब/करो अब, अब करो, अब !

 

देव नाथ द्विवेदी की गज़ले

एक

जिस्म में दिल के लिए थोड़ी सी जगह रखिये
दिल में इंसान कहे जाने की वजह रखिये

रात के पास अगर दर्द के अफ़साने हैं
रात के बाद ख़ुशी से भरी सुबह रखिये

आह सुनते हैं तो कुछ दोस्त भी खुश होते हैं
बात में आह हो बात में गिरह रखिये

रूठ कर जो गए हैं लौट के आ सकते हैं
दिल में उम्मीद इरादों में भी सुलह रखिये

जेहन में उनके फसादों की फसल है तो रहे
लबों पे अपने मुस्कराहटों की तह रखिये

प्यार या जंग हो ईमान तो जरूरी है
मात से पहले ये दस्तूर है कि शह रखिये

दो

नदियाँ खोईं नहरों में
खेत समाये शहरों में

हवा परिंदों पर भारी है
जहर घुला है लहरों में

आँख मूँद कर चलते चलते
हम आ गए खंडहरों में

अंतर्मन वीरान पड़े हैं
हाट सजी है चेहरों में

अंधों की पहरेदारी है
बहस छिड़ी है बहरों में

धरे रह गए वेद उपनिषद
उलझे लोग ककहरों में

तीन

आज मयखाना न साकी न कोई जाम लिखो
कलम उठाओ ग़ज़ल में कोई पैगाम लिखो

अदब के साथ ख़त में पहले तो सलाम लिखो
बाद में जितने भी हों , सारे ही इलज़ाम लिखो

जिन्होने वायदे तोहफों की तरह बांटे थे
नकाब उनके हटाने के इन्तजाम लिखो

तमाम साल चले पर सफ़र न ख़त्म हुआ
सफ़र के आगे कहीं कोई तो तो मुकाम लिखो

हवा में जिनके पसीने की है खुशबू उनको
सुकून चैन लिखो खुशगवार शाम लिखो

सड़क , इमारतें , पुल , बाँध जो बनाते हैं
संगमरमर पे सबसे पहले उनके नाम लिखो

ये बदहवास लोग सर झुका के बैठे हैं
जेहन में इनके मुनासिब है कि इलहाम लिखो

चार

जडें जमीन से जितना भी जल जुटाती हैं
पत्तियां उसको खुले हाथ से लुटाती हैं

ये प्रजातंत्र साहूकार की तिजारत है
तंत्र में रहने की कीमत प्रजा चुकाती है

आज के काम से थक कर जो अभी सोया है
दूसरे दिन की फ़िक्र उसको क्यों सताती है

न्याय का घर हो या सुरंग का मुहाना हो
कोई फ़रियाद करो लौट के आ जाती है

आँख बेनूर सही रोशनी समझती है
घना अँधेरा घिरा हो तो ये डर जाती है

अपना ग़मगीन सिर न टेको इन दीवारों पर
छतों का बोझ भी बेमन से ये उठाती हैं

अब कहीं और चमकता है यहाँ का सूरज
अब यहाँ रात के भी बाद रात आती

पाँच

बीज सपने जोश हिम्मत हौसले जिन्दा रहें
मंजिलों की ओर बढ़ते काफिले जिन्दा रहें

आग से झुलसे शजर पर फिर सजेंगे घोंसले
जड़ जमीनों में तने पर कोंपलें जिन्दा रहें

कल खिले तो झूमते- हँसते कहेंगे शुक्रिया !
फूल शाखों पर हमेशा अधखिले जिन्दा रहें

दोस्ती के पैरहन में साजिशें भी हैं कई
प्यार के बरअक्स कुछ शिकवे गिले जिन्दा रहें

एक अरसे बाद मिलने का मज़ा कुछ और है
साथ इन नजदीकियों के फासले जिन्दा रहें

चुप समंदर एक पत्थर की तरह बेजान है
इसके सीने पर लहर के सिलसिले जिन्दा रहें

न यूँ सब चुप रहो अब
करो कुछ भी करो अब

गलत है क्या सही क्या
फरक कुछ तो करो अब

ये बाजू सड गया है
इसे रुखसत करो अब

खुदा भी रो रहा है
उसे भी चुप करो अब

बहुत कम वक़्त है अब
करो बस, अब करो, अब !

(देवनाथ द्विवेदी (1948) ग्राम खालेगाँव ( मसकनवा रेलवे स्टेशन ) जनपद गोंडा , उत्तर प्रदेश में एक किसान परिवार में. शिक्षा – एम एस सी ( वनस्पति शास्त्र ) बी एड
कार्यक्षेत्र – प्रादेशिक शिक्षा विभाग ,उतर प्रदेश में चौतीस वर्ष का सेवाकाल , वर्ष 2008 में प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्ति. कई पत्र-पत्रिकाओं में गज़लें , कवितायें , लेख , कहानियाँ , ललित निबंध , व्यंग्य , यात्रा वृतांत आदि का नियमित प्रकाशन। कविता संग्रह -साँसों का संगीत , गाती हुई औरतें
ग़जल संग्रह – रोशनी के लिए , हवा परिंदों पर भारी है
कहानी संग्रह – और जीने का मोह

सम्पर्क:deonath.dwivedi@gmail.com

टिप्पणीकार कौशल किशोर जन संस्कृति मंच के संस्थापकों सदस्यों में से प्रमुख हैं और समकालीन कविता का चर्चित नाम हैं। ‘नई शुरुआत’ और ‘वह औरत नहीं महानद थी’ नाम से उनके दो कविता संग्रह और ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘भगत सिंह और पाश अंधियारे का उजाला’ नाम से उनके दो गद्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)

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