समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

घरेलू महिलाओं के श्रम की ‘अनुत्पादकता’ पर एक नज़र

आशीष मिश्र


 

औरतें यहाँ नहीं दिखतीं

हमारी सामाजिक व्यवस्था का केन्द्र परिवार है। और स्त्री-जीवन का केन्द्र इस परिवार का रसोई घर! इसे यहाँ नियोजित रखने के लिए पूरी आर्थिक व्यवस्था और मनो-सामाजिक निर्मिति काम करती है। परिवार स्त्री के दमन और शोषण का अड्डा है, इसे जानते हैं पर मूलगामी प्रश्न उठाने से कन्नी काट जाते हैं।

परिवार पर बात आते ही बड़े से बड़े क्रांतिकारी भी सुधारवादी हो जाते हैं। हकलाने लगते हैं। अपने को आधुनिक और समझदार समझने वाले मर्दों का प्रकाण्ड गुरु जॉन राल्स तक परिवार पर प्रश्न नहीं उठाता। उसके न्याय की सारी बातें घर से बाहर ही लागू होती हैं। इसे एकान्त, प्रेम और सद्भाव का प्रतीक कहता है और अपना सिद्धान्त सिर्फ़ ‘पब्लिक स्फ़ीयर’ पर लागू करता है।

इस द्विभाजन के पीछे मर्दवादी भाव-बोध है। इस संस्था के ख़त्म होते न सिर्फ़ पुंसवाद अंतिम साँसें गिनने लगेगा बल्कि पूंजीवाद भी। पूंजीवाद जिस ‘उत्पादक श्रम’ का उपयोग कर अपना सरप्लस बढ़ाता है, उस ‘उत्पादक श्रम’ को पैदा करने वाली संस्था परिवार है, घर है। जो परिदृश्य से ओझल रहता है, जिसे बहुत शातिर ढंग से चिंता और परिदृश्य से बाहर रखा जाता है।

यह श्रम पूर्णतः पूंजीपति की जेब में जाता है। घरेलू श्रम वह है जो पहली कमोडिटी उत्पादित करता है। यह उस श्रम को पैदा करता है जिसका उपयोग कर पूंजीपति अपना पेट चौड़ा करता है। जिस श्रम को वह ख़रीदता तो है पर उसके लिए एक भी पैसा नहीं देता। जिसका कोई दाम नहीं कूता जाता। स्त्रीवाद अब इस बारे में सजग है, अब इसे ‘आवश्यक श्रम’ कहा जाने लगा है। देवी प्रसाद मिश्र की यह कविता बहुत मार्मिक ढंग से स्त्री और घर के संबंध को सामने रखती है।

इस कविता में ढेर सारे संकेत हैं जिनके सहारे हम परिवार की वर्तमान संरचना का तार-तार सुलझाते हुए उसके ऐतिहासिक प्रक्रिया में उतर सकते हैं। इस कविता का ‘फ़ोकल प्वाइंट’ तो परिवार है पर इसकी अर्थ छवियाँ विस्तृत सामाजिक संरचना तक फैलती जाती हैं।
पहला वाक्य है-‘औरतें यहाँ नहीं दिखतीं’। ‘यहाँ नहीं दिखतीं’! यहाँ मतलब कहाँ? कहाँ नहीं दिखतीं औरतें और वह कौन सी जगह है जहाँ दिखती हैं? यह कविता इसी बात को बहुत गहराई से खोलती है कि औरतें कहाँ और कैसी दिखती हैं, तथा वहाँ और उस भूमिका में दिखाना इस संरचना के लिए किस तरह आधार बनता है। ‘यहाँ’ का मतलब केन्द्र से है, पहचान और अस्मिताओं की रंगभूमि, सत्ता और ‘पब्लिक स्फ़ेयर’ से है।

वे यहाँ नहीं हैं, वे आटे में होंगी, वे चटनी में पुदीने की तरह महक रही होंगी। उनका यहाँ न होना ही इस ‘यहाँ’ को इस तरह ‘यहाँ बनाए हुए है’। वे यहाँ इस रंगभूमि में होतीं तो इस संरचना में फ़र्क होता। इतने बड़े श्रम को अनुत्पादक श्रम कह दिया जाता है। यह अनुत्पादक श्रम ही उत्पादक श्रम का आधार है।

एक स्त्री के लिए परिवार क़ैद और बेगार का ठीहा है तो पुरुष के लिए अपने तनाव से मुक्ति और सुरक्षित ठिकाना है। स्त्री का दायित्व पुरुष को ये सुविधाएँ उपलब्ध कराना है। यही उनकी सार्थकता है। इसीलिए वे वहाँ दिखती हैं और पुरुष यहाँ।

स्त्रियों को शास्त्र और आश्रम व्यवस्था ने साधन की तरह रचा है। ये उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में एकदम चुप हैं। पर वे अपने अनुभवों से घर नुमा स्थापत्य का ‘मिट्टी होना’ समझती हैं। वे पपड़ी पर मौजूद रहने वाली किंचित हार्दिकता के पीछे मौजूद रहने वाले संबंध-सूत्रों को भी पहचानती हैं, पर कहीं भाग नहीं सकतीं! सब कुछ समझते हुए भी कुछ बदल न पाना त्रासद है! इसके लिए आर्थिक स्वायत्तता का अभाव के साथ मनो-सामाजिक संबंध कारण हैं। वह घर के चूहे कि तरह इसी में मरने के लिए अभिशप्त हैं।

वे इस दमन को चेतन-अवचेतन में जमा करती जाएँ, पागल होती जाएँ पर भाग नहीं सकतीं! वे मज़बूर हैं इस आत्मरोधी संरचना में नियोजित रहने को!
कविता में गृहस्थी की छोटी-छोटी चीज़ों के साथ स्त्री को जोड़ा गया है। वह मामूली चीज़ों की दुनिया जिसके दम पर पूरा घर तो चलता है पर उन्हें घर से बाहर नहीं निकाला जा सकता। उन्हें कहीं कोने-अँतरे में पड़े रहना है। वे आटा हैं, पुदीना हैं, तेल, झाड़ू, प्याज हैं! वे तिलचट्टा हैं, वे चूहा हैं! वे आवाज़ें नहीं हो सकतीं! उनकी आवाज़ पब्लिक स्फ़ेयर में व्यवधान पैदा करेगी इसलिए फुसफुसा रही हैं। उनकी आवाज़ सुनाई देने और सुने जाने की कोई परंपरा नहीं है हमारे यहाँ!

अंतिम पंक्तियों में मार्मिक व्यंग्य है-‘चाय पियें यह/उनकी ही बनायी है’। इतने बड़े हिस्से के दमन और शोषण का प्रतिफल हैं हमारी ये सुविधाएँ! हम इस दमन और शोषण को देखते जानते हुए भी क्या इन सुविधाओं को छोड़ने और उन्हें मुक्त करने के लिए तैयार हैं? शायद नहीं!
इस कविता में चीर देने वाली निर्लिप्त ठंडापन है! जो हमें एक त्रासद अनुभव की तरफ़ ले जाती है और हम अपने संस्कृति और अपनी निर्मितियों से टकराना शुरू करते हैं।

 

औरतें यहाँ नहीं दिखतीं/ देवी प्रसाद मिश्र

औरतें यहाँ नहीं दिखतीं
वे आटे में पीस गयी होंगी
या चटनी में पुदीने की तरह महक रही होंगी

वे तेल की तरह खौल रही होंगी उनमें
घर की सबसे ज़रूरी सब्ज़ी पक रही होगी

गृहस्थाश्रम की झाड़ू बनकर
अंधेरे कोने में खड़े होकर
वे घरनुमा स्थापत्य का मिट्टी होना देखती होंगी

सीलन और अँधेरे की अपठ्य पांडुलिपियाँ होकर
वे गल रही होंगी

वे कुंए में होंगी या धुएँ में होंगी
आवाज़ें नहीं कनबतियाँ होकर वे
फुसफुसा रही होंगी

तिलचट्टे सी कहीं घर में दुबकी होंगी वे
घर में ही होंगी
घर के चूहों की तरह वे
घर छोड़कर कहाँ भागेंगी

चाय पियें यह
उनकी ही बनायी है।

 

(लेखक आशीष मिश्र युवा आलोचक हैं। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रिसर्च फेलो हैं।)

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