डॉ. पूर्णिमा मौर्या
पिछले दिनों स्त्री स्वधीनता के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित करते हुए जो फैसला सुनाया उससे क़ानूनी तौर पर भी ये साफ हो जाता है की स्त्री पुरुष की संपत्ति नहीं। पुरुष की तरह उसकी भी अपनी सत्ता है। इससे पहले भी समय समय पर क़ानूनी तौर पर स्त्री को कई अधिकार प्राप्त हुए हैं लेकिन स्त्री को लेकर पुरुष के रवैये में ज्यादा तब्दीली नही हुई है। सार्वजिक जगहों में स्त्री की आवाजाही बढ़ी है। शिक्षा तथा नौकरियों में उसने नए मुकाम हासिल किये हैं लेकिन इसके साथ ही शारीरिक और मानसिक शोषण की घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं। बलात्कार की क्रूरतम घटनाएं नृशंसता की सारी सीमाओं को पार कर गयी हैं। कानून को दरकिनार करते हुए स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता को रौंदा जा रहा है। जाति, धर्म, स्थान से परे स्त्री के वजूद को पितृसत्तात्मक समाज एक गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं समझता। वह स्त्री को आजादी भी अपनी शर्तों और अपनी मर्जी से देना चाहता है। लैंगिक बराबरी के बात सुनते ही उसका पागलपन बढ़ जाता है। ये स्थितियां आज भी बनी हुई हैं।
स्त्री अधिकारों के लिए जिन विद्वानों ने संघर्ष किया उनमें डॉ. अम्बेडकर का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। डॉ. अम्बेडकर के स्त्री सम्बन्धी विचार मोटे तौर पर चार स्थानों पर देखे जा सकते हैं। पहला ‘भारत में जातिप्रथा’ शीर्षक लेख में जातिप्रथा की सरंचना, उत्पत्ति और विकास पर विचार करते हुए। दूसरा ‘महाबोधि’ नामक पत्रिका के मार्च, 1950 ई. के अंक में प्रकाशित लामा गोविन्द के लेख ‘हिन्दू तथा बौद्ध-धर्मां में नारियों की स्थिति’ की प्रशंसा करते हुए लिखे गए लेख ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ में। तीसरा डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को प्राप्त हुई लेख की वह प्रति जिस पर ‘दि वूमेन एंड दि काउंटर-रिवोल्यूशन’ शीर्षक दिया हुआ है। जिसे ‘ नारी और प्रतिक्रांति ’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है और चौथा इसी कमेटी को ‘ दि रिडिल आफ दि वूमेन’ शीर्षक से प्राप्त हुई प्रति जिसे ‘ रिडिल्स इन हिन्दूइज्म ’ अर्थात् ‘ हिन्दू धर्म की पहेलियां ’ नाम से प्रकाशित किया गया। इसके अतिरिक्त हिन्दू कोड बिल व कई अन्य स्थानों पर भी स्त्री सम्बन्धी विचार देखे जा सकते हैं।
डॉ. अम्बेडकर का मानना है कि ‘इतिहास के आरम्भ से ही पुरुष का स्त्री की अपेक्षा अधिक महत्व रहा है। इसकी प्रतिष्ठा अधिक रही है। पुरुष की परंपरागत श्रेष्ठता के कारण उसकी इच्छाओं का सदा सम्मान किया जाता रहा है। दूसरी ओर नारी सदा धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताओं का शिकार होती रही है।’ इन असमानताओं ने स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता पर ही प्रश्न खड़े कर दिए। जिससे स्त्री आज तक मुक्त नहीं हो पाई है। फिर चाहे वह किसी भी वर्ग, वर्ण, धर्म या क्षेत्र की हो। सम्पत्ति पर एकाधिकार की बात हो या सन्तानोत्पत्ति द्वारा ‘मैन पावर’ बढ़ाने की कवायद हो, जातिप्रथा को बनाए-बचाए रखने के लिए सजातीय विवाह का तर्क हो या जातिगत-अर्थगत अहंकार और उच्चता दिखाने का मामला हर बार स्त्री ही निशाने पर होती है। उसी पर कब्जा किया जाता है, उसी के लिए नियमों कायदों की अन्तहीन बेड़ियां बनाई जाती हैं, उसी को नज़रबन्द किया जाता है, और उसी को उत्पीड़न की भट्ठी में झोंक दिया जाता है।
स्त्री को अधिकार और सुरक्षा देने के नाम पर जो नियम बनाए जाते हैं वे सब बेमानी और नाकाफ़ी साबित होते हैं। क्योंकि ‘‘अधिकारों की रक्षा कानून द्वारा नहीं, बल्कि समाज की नैतिक चेतना द्वारा की जाती है। यदि सामाजिक चेतना ऐसी है कि वह उन अधिकारों को मान्यता देने के लिए तैयार है जिनका अधिनियमन कानून करता है, तो अधिकार सुरक्षित रहेंगे। परन्तु यदि मूल अधिकारों का समुदाय द्वारा विरोध किया जाता है तो कोई कानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका, वास्तविक अर्थ में उनकी गारंटी नहीं दे सकती।’’ कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी तथा समाज-सुधारक आदि समाज में नैतिक चेतना लाने का काम भी करते हैं जिससे समाज बेहतरी की ओर बढ़ सके। ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ शीर्षक लेख में डॉ. अम्बेडकर ने राय बहादुर पी.आनंद चार्ली द्वारा तैयार समाज सुधारक संबंधी विवरण में उस समय के समाज सुधारकों के समक्ष खड़ी जिन पांच समस्याओं का जिक्र किया वे समस्याएं हैं-बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह, हमारे देशवासियों के लिए विदेशों में भ्रमण या यात्रा की स्वतन्त्रता, महिलाओं का संपत्ति का अधिकार और स्त्रियों की शिक्षा। इन पांच में से चार सीधे स्त्री अधिकारों से सम्बन्धित हैं। इन्हीं को केन्द्र में रखकर तत्कालीन सुधारवादी आन्दोलन चलाए जा रहे थे और सांविधानिक रूप से थोड़े फेर-बदल के बाद स्त्रियों को कुछ अधिकार प्राप्त भी हुए।
भारत में जातिप्रथा की उत्पत्ति और विकास पर डॉ. अम्बेडकर ने काफ़ी गहनता से विस्तारपूर्वक चर्चा की है। उन्होंने ‘‘सजातीय विवाह का निषेध या ऐसे विवाह का न पाया जाना ही जातिप्रथा का मूल’’ माना है और सती प्रथा, बालिका विवाह तथा आजीवन विधवा का नारकीय जीवन बिताने जैसी सामाजिक कुरीतियों के उदय की भी पड़ताल की है। सजातीय विवाह, जो की जातिप्रथा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, का कड़ाई से पालन हो इसके लिए कुछ विशेष व्यवस्थाएं की गई। परिणामस्वरूप सती प्रथा, बालिका विवाह तथा आजीवन वैधव्य के नियमों का कड़ाई से पालन करना, जैसी कुरीतियों का जन्म हुआ। जातिप्रथा को बनाए-बचाए रखने वालों के लिए सजातीय विवाह प्रथा को बनाए रखना जरूरी था और ‘‘यदि सजातीय विवाह प्रथा को बनाए रखना है, तो आंतरिक दृष्टि से दाम्पत्य अधिकारों का विधान रखना होगा। अन्यथा समाज के लोग दायरे से बाहर हो जाएंगे। यदि आंतरिक दृष्टि से दाम्पत्य अधिकार दिए जाते हैं तो जाति संरचना की सफलता के लिए स्त्री-पुरुष संख्या समान रखनी आवश्यक होगी दोनों के बीच भारी संख्या विषमता होने से सजातीय विवाह प्रथा चरमरा उठेगी।’’
विवाह योग्य स्त्री-पुरुषों की संख्या में समानता हो ऐसा असम्भव है। पति की मृत्यु होने पर पत्नी का बच जाना और पत्नी की मृत्यु होने पर पति का बच जाना स्वाभाविक है। लेकिन सजातीय विवाह को बनाए बचाए रखने वाले इस बात से चिन्तित होते हैं क्यांकि उन्हें डर है कि ये बचे हुए लोग या तो जाति में विवाह करने के जतन करने लगेंगे और स्त्री-पुरुष असमानता को और बढ़ा देंगे या जाति से बाहर विवाह कर जाति-व्यवस्था के जाल को छिन्न-भिन्न कर देंगे। बहुत संभव है कि वे सीमाएं लांघ जाएं तथा बाहर विवाह कर जाति में विजातीय लोगों को भर लें। वे इन बचे हुए लोगों की व्यवस्था दो तरीके से करते हैं। पहला ‘स्त्री को मृत पति के साथ जला दिया जाए’ और मुक्ति पा ली जाए तथा दूसरा ‘हमेशा के लिए विधवा रहने दिया जाए’। दूसरी व्यवस्था की अपेक्षा पहली ज्यादा वांछित परिणाम देने वाली है। क्योंकि इससे भविष्य में भी किसी प्रकार की आशंका से मुक्ति मिल जाती है। कुछेक मामलों में जहां स्त्रियों को जला देना सम्भव नहीं होता ऐसे में आजीवन विधवा का जीवन व्यतीत करने वाली व्यवस्था को अपनाना जरूरी हो जाता है। ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि अनिवार्य वैधव्य में स्त्री बच जाती है इसलिए यह अधिक मानवीय भी है। परन्तु उसे पूरे जीवन किसी की वैध पत्नी बनने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। इससे अनैतिकता के रास्ते खुलते हैं। लेकिन यह कोई दुःसाध्य कार्य नहीं है।’’ इसके लिए कुछ कठोर नियम बनाए जाते हैं। जिससे उनकी सुंदरता, चंचलता तथा सभी तरह की इच्छाओं का नाश हो जाए। बालों को हटा कर मुण्डन करा देना, दिन में एक बार हल्का बेस्वाद भोजन करना, किसी पर भी अपनी परछाई न पड़ने देना अर्थात् किसी के सामने न पड़ना, किसी भी प्रकार का श्रृंगार न करना, सफेद वस्त्र धारण करना तथा ईश्वर भक्ति में लीन रहना आदि कुछ ऐसे ही नियम हैं।
कुल मिलाकर विधवा स्त्री को ऐसी हालत में पहुंचा देना कि उसमें आकर्षण और किसी भी प्रकार की इच्छा या लालसा लेशमात्र भी न बचे। ऐसी व्यवस्था केवल विधवाओं के लिए है, विधुरों को मृत पत्नी के साथ जलाया नहीं जाएगा, पहली और महत्वपूर्ण बात क्योंकि वह एक पुरुष है, स्त्रियों की अपेक्षा विशिष्ट है, दूसरे जाति का एक तगड़ा व्यक्ति कम हो जाएगा। विधुरों के लिए जो व्यवस्था की गई उसमें, पहली ‘विधुरों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए बाध्य किया जाए’ और दूसरी व्यवस्था ‘विधुर का एक ऐसी लड़की से विवाह कर दिया जाए, जिसकी आयु अभी विवाह योग्य न हो।‘ ब्रह्मचर्य पालन के लिए पुरुषों के लिए कोई सख्त नियम नहीं बनाए गए। उनके लिए आत्मसंयम ही महत्वपूर्ण माना गया। जिन विधुरों ने ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया उन्हें कम उम्र की कन्या पुनर्विवाह के लिए उपलब्ध करा दी गई। ‘‘सतही तौर पर देखने वाले व्यक्ति को हिन्दू समाज की सामान्य क्रियाविधि जटिल लगे, किंतु वह स्त्रियों से संबंधित तीन असाधारण रीतियां प्रस्तुत करती है, ये हैं-
1. सती या विधवा को उसके मृत पति के साथ जलाना।
2. थोपा गया आजीवन वैधव्य, जिसके अंतर्गत एक विधवा को पुनःविवाह करने की आज्ञा नहीं
है।
3. बालिका विवाह।’’
यूं तो विवाह संस्था ही स्त्रियों के शोषण की संस्था है। जो सामाजिक सुरक्षा और समानता के नाम पर स्त्रियों के अधिकारों का हनन करती है। यह पति को स्वामी के उच्च स्थान पर बिठा कर स्त्रियों को दासी या गुलाम बना देती है। पुरुष कितना भी अच्छा आदमी क्यों न हो विवाह संस्था उसे पति अर्थात् मालिक बना ही देती है। ‘‘एक गुलाम के लिए उसका मालिक बेहतर या बदतर हो सकता है। लेकिन मालिक अच्छा नहीं हो सकता। अच्छा आदमी मालिक नहीं हो सकता और मालिक अच्छा आदमी नहीं हो सकता।’’ विडम्बना है कि विवाह संस्था में स्त्रियां एक अच्छे आदमी की कामना करती हैं और अच्छे आदमी को मालिक अर्थात् पति के रूप में पाकर अपने भाग्य पर इतराती हैं। ताउम्र अनुकूलित जीवन जीती स्त्रियां सामान्यतः पति या ससुराल वालों की इच्छा के बिना कोई काम नहीं कर सकती। फिर चाहे वे कितने भी सामान्य या व्यक्तिगत काम ही क्यों न हो। डॉ. अम्बेडकर ने लिखा कि ‘‘एक हिंदू या तो अकेला खाना खाता है, या फिर अपनी बिरादरी के लोगों के साथ खाता है। स्त्रियां पुरूषों के साथ खाना नहीं खा सकतीं। वे तब तक इंतजार करती हैं, जब तक कि उनके पति खाना समाप्त नहीं कर लेते।’’
आज इतने वर्षों बाद भी स्त्रियां खाना कब, कैसे और किसके साथ खाएं यह मुद्दा बना हुआ है। पति से पहले खाना खा लेने वाली स्त्री आज भी अलग से चिन्हित कि जाती है। हमारे समाज की विडम्बना है कि इन सामाजिक कुरीतियों की प्रशंसा करने और उनका पालन करने वाले लोगों की कमी नहीं है। बालिका विवाह की प्रशंसा में डॉ. केतकर कहते हैं ‘‘एक सच्चे आस्थावान स्त्री अथवा पुरुष को विवाह सूत्र में बंधने के बाद अन्य पुरुष-स्त्री से लगाव नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की पवित्रता न केवल विवाह के उपरांत, बल्कि विवाह पूर्व भी आवश्यक है, क्योंकि चारित्र्य का केवल यही सही आदर्श है। किसी अपरिणिता को पवित्र नहीं माना जा सकता, यदि वह उस व्यक्ति के अलावा जिससे उसका विवाह होने वाला है, किसी अन्य व्यक्ति से प्रणय करती है। यदि वह ऐसा करती है तो यह पाप है। इसलिए एक लड़की के लिए यह अच्छा होगा कि कामवासना जागृत होने से पूर्व उसे यह पता होना चाहिए कि उसे किससे प्रेम करना है।’’
किसी बात की प्रशंसा करने का आशय यही है कि प्रशंसक को उस बात, विचारधारा या मत में विश्वास है, वह उसे मानता है और अपनाना भी चाहता है साथ ही वह दूसरों से भी इसकी अपेक्षा करता है। डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं कि जहां तक मैं समझता हूं आज तक इन प्रथाओं के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं आई है। लेकिन इन प्रथाओं को सम्मान देने, प्रशंसा करने और इनका पालन करने वाले मिल जाएंगे। ‘‘मेरा मानना है कि इनको सम्मान देने का कारण ही यह है कि इन्हें अपनाया गया। जिस किसी को भी 18वीं शताब्दी के व्यक्तिवाद का थोड़ा सा भी ज्ञान होगा वह मेरे कथन का सार समझ जाएगा। सदा से यह प्रथा रही है कि आंदोलनों का सर्वोपरि महत्व होना है। बाद में उन्हें न्याय-संगत बनाने के लिए और उन्हें नैतिक बल देने के लिए उन्हें दार्शनिक सिद्धान्तों का संबल दे दिया जाता है। इसी कारण मैं निवेदन करता हूं कि इसी कारण इन रिवाजों की प्रशंसा की गई, क्योंकि इनके चलन को प्रोत्साहन देने के लिए प्रशंसा की जरूरत थी। हम जानते हैं कि रिवाज कितने क्रूर, कष्टकारी और घातक हैं।’’
डॉ. अम्बेडकर हिन्दू धर्म, वेद-शास्त्र, मनुस्मृति का बहुत गहराई से अध्ययन कर इसकी पोल खोल देते हैं। इन धर्मग्रन्थों के माध्यम से स्त्री और शूद्रों के लिए जो नियम बनाए गए या आज्ञाएं दी गई हैं वे कितनी अमानवीय तथा निन्दनीय हैं वे इसकी पड़ताल करते हैं। स्त्रियों की वर्तमान दशा के जिम्मेदार कौन हैं। उसे एक गुलाम से भी बदतर जिन्दगी देने के पीछे कौन सी व्यवस्था उत्तरदायी है इसका खुलासा ‘नारी और प्रतिक्रांति’ शीर्षक लेख बखूबी करता है। इस लेख में डॉ. अम्बेडकर मनु की उन घोषणाओं का उल्लेख करते हैं जो स्त्री के प्रति उसकी अनुदारता या घृणा को साबित करने के लिए पर्याप्त है। उन घोषणाओं में से कुछ का जिक्र मैं यहां भी करना चाहती हूं। वह कहता है ‘कोई किसी की माता, बहन या पुत्री के साथ एकांत में न बैठे क्योंकि इंद्रियां शक्तिशाली होती हैं और विद्वान को भी अपने वश में कर लेती हैं। स्त्रियां रूप की अपेक्षा नहीं करती, न उनका ध्यान आयु पर रहता है, यह सोचकर कि वह पुरुष है, सुंदर या कुरुप के साथ संभोग कर बैठती हैं। स्त्रियां उनके परिवारों के पुरुषों के द्वारा दिन रात अधीन रखनी चाहिए। स्त्री कभी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। लड़की को, नवयुवती को या वृद्धा को भी अपने घर में भी कोई काम स्वतंत्रतापूर्वक नहीं करना चाहिए। स्त्री को अपने पति को छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता। बेचने और त्याग देने से कोई स्त्री अपने पति से मुक्त नहीं होती।’ अर्थात् पति द्वारा त्यागी गई या बेची गई स्त्री भी स्वतंत्र न होकर अपने पूर्व पति के ही अधीन है।
इस सन्दर्भ में डॉ. अम्बेडकर कहते हैं कि ‘‘अगर यह असंगत नहीं है तो कुछ भी असंगत नहीं हो सकता। लेकिन मनु अपने नियम के परिणामस्वरूप होने वाले न्याय या अन्याय के बारे में चिंतित नहीं था। वह स्त्री को उस स्वतंत्रता से वंचित कर देना चाहता था, जो उसे बौद्धकाल में थी। मनु यह जानता था कि स्त्री द्वारा अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने या शूद्र के साथ विवाह करने की उसकी इच्छा होने से वर्ण-व्यवस्था नष्ट हो गई थी। मनु स्त्री की स्वतंत्रता से क्रुद्ध था और उसे रोकने में उसने उसकी स्वतंत्रता से उसे वंचित कर दिया।’’ मनु यह बात बखूबी समझता था कि यदि स्त्री मुक्त हो गई तो न ही वर्ण व्यवस्था बचेगी न ही जातिप्रथा। इसीलिए उसने सबसे पहले स्त्री को सभी अधिकारों से वंचित कर उसे पुरुषों के संरक्षण व सेवा में लगा दिया। उसने कहा ‘स्त्रियों को पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। स्त्रियों को वेद जानने का कोई अधिकार नहीं है, पाप दूर करने के लिए वेद मंत्रों का पाठ उपयोगी है। चूंकि स्त्रियां वेद मंत्रो का पाठ नहीं कर सकती इसीलिए वे उसी प्रकार अपवित्र हैं, जिस प्रकार असत्य अपवित्र होता है। स्त्रियों को कोई बौद्धिक कार्य नहीं करने चाहिए न ही उन्हें अपने विचारों में स्वतंत्र होना चाहिए। वह कोई अन्य धर्म, जैसे बौद्ध धर्म स्वीकार नहीं कर सकतीं। मनु स्त्रियां के लिए जो आदर्श निर्धारित करता है, वह भी देखने योग्य है जैसे, वह आजीवन उसकी आज्ञा का अनुपालन करेगी जिसे उसका पिता या उसका भाई अपने पिता की अनुमति से उसे सौंप देगा। चाहे पति सदाचार से हीन हो, या वह अन्य में आसक्त हो या वह सद्गुणों से हीन हो, तो भी पतिव्रता स्त्री के द्वारा पति देवता के समान पूजित होता है। स्त्री पति से पृथक कोई यज्ञ, कोई व्रत या उपवास न करे पति का अनुपालन करने पर ही वह स्वर्ग में पूजित होती है। संपत्ति के मामले में मनु पत्नी को कोई अधिकार नहीं देता। किन्तु विधवा हो जाने पर उसे निर्वाह व्यय देने की बात वह कहता है और यदि पति अपने परिवार से अलग था, तो उसे पति की संपत्ति से भूसंपत्ति का भी अधिकार मिल जाता है। डॉ. अम्बेडकर मानते हैं कि मनु से पूर्व नारी को बहुत सम्मान दिया जाता था। मनु के समय से पूर्व नारी की जो स्थिति थी, उससे यदि तुलना की जाए तो यह कह सकते हैं कि मनु से पूर्व अर्थात् वैदिक काल में स्त्री की स्थिति मनु के समय की तुलना में कुछ बेहतर रही होगी क्योंकि ‘अथर्ववेद से यह स्पष्ट होता है कि उस समय स्त्री को उपनयन का अधिकार प्राप्त था। वह ब्रह्मचर्य की अवस्था पूरी करने के उपरांत विवाह के योग्य हो जाती थी। श्रौत सूत्र से स्पष्ट है कि स्त्री वेदों का अध्ययन कर सकती थी। पाणिनी की अष्टाध्यायी से इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि स्त्रियां गुरुकुलों में जाती थीं।’
जनक और सुलभ, याज्ञवल्क्य और गार्गी, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी तथा शंकराचार्य और विद्याधरी के बीच हुए शास्त्रार्थ को भी सन्दर्भित करके इस बात को प्रमाणित करने के प्रयास होते रहे हैं कि स्त्री उस समय सम्मानित और मुक्त थी। किन्तु इस ओर भी ध्यान देना चाहिए किए उपरोक्त सारे उदाहरण केवल बाद के समय की तुलना में ही स्त्री के लिए उपयुक्त हो सकते हैं अन्यथा वेदों में ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं जहां स्त्री को अधिकारच्युत कर पुरुषों के अधीन रखा गया है। उसके विवाह के सम्बन्ध में पुरुष सूक्त में जो नियम बताए गए हैं उसी को देखने मात्र से स्त्री की ‘अच्छी स्थिति’ का अंदाजा लग जा सकता है। गार्गी, मैत्रेयी जैसे नाम तो अपवादस्वरूप हैं जिन्हें उंगलियों पर गिन सकते हैं। धर्म, आध्यात्म और तत्व मीमांसा में प्रवीण होने के बावजूद इन स्त्रियों को याज्ञवल्क्य या शंकराचार्य की तरह न तो सम्मान ही मिल सकता था और न ही वा दर्जा जो किसी पुरुष को आसानी से मिल जाता। इतना अवश्य हुआ कि असलियत को बिना जाने-पहचाने या शायद जान-बूझकर ही इन स्त्रियों का नाम गिना कर उस पूरे काल को ही स्त्रियों के लिए अनुकूल काल के रूप में देखने-दिखाने लगे। स्त्रियां पूजनीय हैं और उनका सम्मान करना चाहिए जैसे स्लोगनों से स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव, अत्याचार, व शोषण को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू नारियों के उत्थान और पतन का इतिहास दिखाने का प्रयत्न किया है जिसमें स्त्रियों की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और बौद्धिक पतन का कारण ब्राह्मणी व्यवस्था है। जो मनु महाराज द्वारा लिखी ‘मनुस्मृति’ के नियमों के आधार पर चलती है। इसके साथ ही यह भी दिखाने का प्रयत्न किया है कि भगवान बुद्ध ने स्त्रियों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव किये बिना प्रवज्या देकर ज्ञानार्जन और आत्मज्ञान प्राप्त करने की क्षमता वाला अंगीकार किया है। प्रारम्भ में वे स्त्रियों के संघ में प्रवेश के विरोधी थे क्योंकि वे ब्रह्मचर्य पालन के कट्टर समर्थक थे और वे इस बात को भी स्वीकार करते थे कि ‘नारी ब्रह्मचर्य-जीवन के लिए अभिशाप है’ किन्तु बाद में उन्होंने भिक्षुणी संघ बनाने की अनुमति दे दी। ‘‘भगवान् बुद्ध को इस बात का विश्वास था कि स्त्री-पुरुषों के सम्मिलित संघ में ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव होगा। तथागत स्त्री-पुरुषों में एक-दूसरे के प्रति प्रबल यौन-आकर्षण से परिचित थे, और जानते थे कि यदि उन्हें परस्पर मिलने के उन्मुक्त अवसर प्रदान किए गए तो ब्रह्मचर्य एक क्षण भी नहीं टिक सकेगा। और चूंकि उनकी दृष्टि में भिक्षु एवं भिक्षुणी दोनों के लिए ब्रह्मचर्य पालन आवश्यक था, इसलिए यह निर्णय लिया जाना स्वाभाविक था कि दोनों के बीच किसी प्रकार का अलगाव रखा जाए। इस प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा के उद्देश्य से ही स्त्री और पुरुषों के लिए दो अलग संघ अस्तित्व में आए।’’ संघ में स्त्रियों के साथ भले ही कोई भेदभाव नहीं होता था लेकिन संघ समाज का ही एक हिस्सा था जिसमें आने वाली स्त्रियां और पुरुष दोनों ही समाज की अच्छी बुरी बातों के साथ ही संघ में प्रवेश करते थे। इसे स्मरण रखना चाहिए। दूसरे संघ में आने के बाद उनका समाज से एकदम कटाव हो जाता था जिससे उनका सामाजिक, पारिवारिक और राजनैतिक जीवन पूरी तरह से खत्म हो जाता था। फिर भी समाज की सताई हुई स्त्रियों के लिए संघ एक आश्रय था। जहां वे भिक्षुणी बनकर बौद्धिक विकास कर अपना आत्मबल बढ़ा रही थीं, और मुक्ति का अनुभव कर रही थीं। ‘‘मुक्ता नाम की एक ब्राह्मण-भिक्षुणी मुदित मन से गाया करती-‘‘कितना मुक्त जीवन है मेरा, और इस मुक्त जीवन के साथ कितना यश भी मुझे प्राप्त हो रहा है।’’…दूसरी भिक्षुणी (ब्राह्मण-कन्या) भी इसी प्रकार आनन्द-विभोर होकर गाया करती थी-‘यहाँ इस शिला पर बैठी मैं पूर्ण मुक्ति का अनुभव कर रही हूँ। स्वाधीनता का वातावरण मेरी आत्मा व शरीर को आच्छादित किए हुए हैं।’’ श्रीमती रीज डेविड्स भी कहती हैं-‘‘परवर्ती युग की महिलाओं की भाँति भारतीय नारियों को भी इस स्वतंत्रता और गतिशीलता प्राप्त करने के लिए उन्हें प्राचीन सामाजिक तथा पारिवारिक प्रतिष्ठा का त्याग अवश्य करना पड़ा, परन्तु इसके बदले में उन्हें ‘पुरूषों की छाया’ के स्थान पर स्वतंत्र व्यक्तित्व की सत्ता प्राप्त हो गई। ‘पुरूषों की छाया’ के रूप में उसे कितनी ही अधिक प्रशंसा, सुरक्षा तथा पोषण क्यों न प्राप्त रहा हो, उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं था।’’ भगवान् बुद्ध के समय तक तो संघ में स्थितियां कुछ ठीक रही लेकिन बाद में जब हीनयान और महायान का विभाजन हुआ तो बौद्ध धर्म में अनेकों बुराइयां आ गई।
आज की स्त्री को यद्यपि भारतीय संविधान के द्वारा अनेकों अधिकार प्राप्त हो चुके हैं। किन्तु व्यवहार में आज भी स्त्री समानता, स्वतंत्रता, सम्मान और सुरक्षा के अधिकारों से वंचित है। वह आज भी शोषण और उत्पीड़न की शिकार है, और अपने अस्तित्व, अस्मिता, स्वतंत्रता, समानता और सम्मान की अंतहीन लड़ाई लड़ रही है। वर्तमान में स्त्री उत्पीड़न में तेजी अवश्य आई है, लेकिन उसके विरोध की आवाजें भी उतनी ही बुलन्द हैं। आज की नारी, अपनी कमियों कमजोरियों को पहचान अपनी मुक्ति के रास्तों पर चल पड़ी है। वह अपना इतिहास, वर्तमान और भविष्य स्वयं अपनी शर्तों पर लिखना चाहती है और इसके लिए वह किसी भी चुनौती के लिए तैयार है।