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देशी-विदेशी पूँजी के मुनाफे को बढ़ाने के लिए उच्च शिक्षा के ऊपर लगातार हमले होंगे

राजीव कुंवर

योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग करना मात्र नामकरण का मामला नहीं है, बल्कि राष्ट्र के विकास के नजरिए से इसका सीधा संबंध है। ठीक उसी तरह यूजीसी को समाप्त कर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग(HECI) के गठन का प्रस्ताव भी मात्र नामकरण संस्कार नहीं है। जो लोग इसे मुगलसराय की जगह पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसा मानकर इसे भाजपा और मोदी सरकार का खेल समझ रहे हैं, वे यूपीए -2 सरकार के उन पांच बिल को भूल जाते हैं, जो पार्लियामेंट में पास नहीं हो सके।

इसमें कोई शक नहीं कि वर्तमान आरएसएस की भाजपा-मोदी सरकार ने उन पांच बिल को बिना संसद में लाए सरकारी अधिसूचनाओं के जरिए लागू करने का काम बहुत तेजी के साथ किया। वास्तव में यह मामला कांग्रेस और भाजपा का नहीं है – यह शासक वर्ग की स्पष्ट समझ का मामला है। याद कीजिए बिड़ला-अम्बानी कमीशन को! इक्कीसवीं सदी में भारतीय इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब उच्च शिक्षा की दिशा को तय करने के लिए शिक्षाविदों की जगह देश के सबसे बड़े पूंजीपतियों के नेतृत्व में आयोग का गठन किया गया। यहीं से उच्च शिक्षा के विकास के नजरिए में आमूलचूल परिवर्तन देखा जा सकता है।

‘अरबों खरबों डॉलर के वैश्विक-व्यापार के क्षेत्र’ के तौर पर इसकी पहचान की गई। ऐसे में इस क्षेत्र में भी देशी-विदेशी पूँजी को मुनाफा कमाने के लिए खोलने का प्रस्ताव 1990 के बाद चल रहे ‘आर्थिक-सुधार’ की दिशा के ही अनुरूप था। बिड़ला-अम्बानी की रिपोर्ट भले ही एनडीए सरकार के समय आया हो, उसके द्वारा दिए गए प्रस्तावों को यूपीए के दौर में भी विभिन्न नामों से लागू करने की सफल-असफल कोशिशों में देखा जा सकता है। यही प्रयास आज भी जारी है।

यूजीसी को खत्म कर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के सदस्यों में यूं ही नहीं एक औद्योगिक घराने के उद्योगपति को रखे जाने का प्रावधान किया गया है। इसलिए उच्च शिक्षा में हो रहे बदलावों को मात्र भाजपा-कांग्रेस के नजरिए से नहीं, बल्कि शासक वर्ग के नजरिए से देखना ही ठीक होगा। तभी हम प्रतिरोध के स्वरूप को भी सही दिशा में ले जा सकते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ(डूटा) के नेतृत्व में बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट के आधार पर मॉडल एक्ट बनाने की कोशिश को कूड़ेदान में डालने को मजबूर किया जा सका। ऐसी ही कोशिश यूपीए-2 के दौर में पाँच अलग-अलग बिल लाकर की गयी। मजबूत शिक्षक आंदोलन की वजह से तत्कालीन सरकार को इसमें कामयाबी हासिल नहीं हुयी। यहीं से तत्कालीन मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने यूजीसी के द्वारा एक्सिक्यूटिव आर्डर भेजकर उच्च शिक्षा पर जो हमला शुरू किया,वह आज तक जारी है। बिना संसद में लाए संस्थानों को ग्रेडिंग करवाने के लिए मजबूर किया गया। ग्रांट को रोकने की धमकी देकर नेक को अनिवार्य कर दिया गया। इसके बाद सेमेस्टर सिस्टम हो या सीबीसीएस या फिर कॉमन ग्रेडिंग सिस्टम हो – पूरे देश में इसे लागू करवाने का यह तरीका अपनाया गया।

सेमेस्टर सिस्टम को रोकने में डूटा नाकाम हुई। जबरदस्त एकताबद्ध शिक्षक आंदोलन के बावजूद भी डूटा उसे नहीं रोक सकी। डूटा के कम्प्लीट हड़ताल को पीआईएल और हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के जरिए – डूटा को आंदोलन वापस लेने के लिए मजबूर किया गया।

इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साला स्नातक कार्यक्रम को लागू किया गया। यही वो दौर था जब डूटा का आंदोलन वाम नेतृत्व में चलाया गया।

अभी तक के ट्रेड यूनियन आंदोलन को यूनियन के सदस्यों के साथ मिलकर प्रबंधन के ऊपर दबाव बनाने का ही तरीका अपनाया जाता रहा था। श्रम कानून की मदद से कोर्ट में भी ट्रेड यूनियनों को मदद मिलती रहती थी। इस नवउदारवादी दौर में तो देशी-विदेशी पूँजी के आगे पूरी जनतांत्रिक व्यवस्था नतमस्तक हो गई। सरकार का सीधा समर्थन प्रबंधन को मिला। ध्यान से देखेंगे तो यही वह दौर है जब प्रबंधन ने यूनियन से बात करना बंद कर दिया। मात्र दिल्ली विश्वविद्यालय ही नहीं जहाँ वाइस चांसलर डूटा अध्यक्ष से नहीं मिला, बल्कि केंद्रीय यूनियन को भी एक बार भी समय मनमोहन सिंह ने नहीं दिया। सो दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने प्रबंधन और सरकार के गठजोड़ को जनता में ले जाने का नया मोड़ दिया। एक नारा दिया गया, पढ़ो, पढ़ाओ, संघर्ष करो!- इसका मजाक भी ट्रेड यूनियनों के साथियों द्वारा उड़ाया गया। लेकिन इसका सकारात्मक प्रभाव आंदोलन को छात्रों से जोड़ने और मीडिया में दिखायी दिया। हड़ताल और काम-बंद को आधार लेकर नकारात्मक खबरों की गुंजाइश नहीं रही।

विश्वविद्यालय प्रशासन या कॉरपोरेट जगत जब भी इस आंदोलन को सुधार-विरोधी साबित करने की कोशिश करते, छात्र और अभिभावकों के साथ बौद्धिक समाज उसे काटने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते। कोर्ट को मौका नहीं मिला कि वह हस्तक्षेप कर सके। इस सबका असर हुआ कि मनमोहन सिंह की जनविरोधी शिक्षा नीतियों को जनमानस में डालने और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने में डूटा को कामयाबी मिली। 2015 की फरवरी में चार साला कार्यक्रम के खिलाफ हजारों की संख्या में छात्र-शिक्षक सड़कों पर उतरे जहाँ कांग्रेस को छोड़कर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसे वापस लेने का वादा किया। मुझे याद है आज के वर्तमान शिक्षा मंत्री जावड़ेकर जी ने भी उन आंदोलन का हिस्सा बन उच्च शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के खिलाफ कई भाषण दिए। इसका परिणाम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद आया। चार साला कार्यक्रम को तत्कालीन शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण वापस लिया गया।

इसके बाद ऐसा नहीं हुआ कि देश-विदेशी पूँजी के मुनाफे के लिए उच्च शिक्षा में परिवर्तन को रोक दिया गया, बल्कि यह रूप बदलकर और तेज गति से बिना संसद में लाए एक्सिक्यूटिव ऑर्डर से लागू किया जा रहा है। सीबीसीएस के तहत पाठ्यक्रम को भी केंद्रीयकृत करने का काम किया गया। विश्वविद्यालय से वह स्वायत्तता भी छीन ली गई। ग्रेडेड ऑटोनोमी की घोषणा कर दी गयी। चंद मुट्ठीभर संस्थानों की गुणवत्ता पर खर्च करने का और बाकी के संस्थानों को पीपीपी मॉडल पर सौंपने की तैयारी शुरू की जा चुकी है।

2017 में डूटा ने छात्र-शिक्षक आंदोलन के जरिए एक बार फिर से सरकार को अनुदान में 30 प्रतिशत की कटौती वाले 70:30 के फार्मूले से पीछे धकेलने में कामयाबी हासिल की। इसी जनांदोलन का दबाव था जिसके कारण सरकार को सेंट स्टीफ़ंस एवं हिन्दू कॉलेज के ऑटोनोमी पर पीछे हटने के लिए मजबूर किया। रोस्टर में बदलाव कर आरक्षण पर हमले के खिलाफ डेढ़ महीने तक चले मूल्यांकन बहिष्कार के बाद सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन का मौखिक आश्वासन मिलने पर डूटा ने आंदोलन के इस स्वरूप में परिवर्तन किया। वजह एक ही था- शासक वर्ग की नीति और उसके चरणों में लोटी हुई सरकार की नीयत साफ है। अभी देशी-विदेशी पूँजी के मुनाफे को बढ़ाने के लिए उच्च शिक्षा के ऊपर लगातार हमले होंगे। इन हमलों को रोकने में जिन छात्र वर्ग और जनसमर्थन की अतीत में भूमिका रही और भविष्य में जिनकी भूमिका होगी, उसे ही अपने खिलाफ करना सही रणनीति नहीं होगी।

हमारी यह समझ तब और सही साबित हुई जब वर्तमान की मोदी सरकार ने यूजीसी एक्ट को बदलकर नया एक्ट लाने के लिए अचानक से (मात्र 8 दिनों का समय दिया है विचार के लिए) प्रस्ताव पब्लिक डोमेन में रखा है। जनता, संस्थान और संगठनों को मात्र 10 दिन का समय देकर इस एक्ट में परिवर्तन लाने की जल्दबाजी को कैसे देखें ? लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि इसे पीछे धकेलने के लिए संघर्ष को कैसे दिशा दी जाए ? दूसरा सवाल ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इसके उत्तर के लिए ही पिछले आंदोलनों के अनुभवों को खंगालना जरूरी है। इससे आगे के संघर्ष की दिशा को तय करने में मदद मिल सकती है। 

(इस रपट के लेखक डॉ. राजीव कुंवर दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं और शिक्षक आंदोलन के जाने-माने कार्यकर्ता हैं  )

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