ओंकार सिंह
सिनेमा हमेशा से ही कुछ कहने, सुनने व दिखाने का सशक्त माध्यम रहा है। एक गतिमान समाज के लिये यह जरूरी है कि उसके तमाम गतिरोधों, अवरोधों को उजागर कर व्यापक जन विमर्श बनाया जाए। सिनेमा यह काम बखूबी कर सकता है। किंतु वर्तमान में वह अपने इस दायित्व को निभाने में एक ह्रास के दौर से गुजर रहा है। भारी पूंजी निवेश और सत्ता के गठजोड़ से आज मीडिया व फिल्म निर्माण कुछ चंद हाथों में सिमट कर रह गया है। जहां अब यह तय होने लगा है कि क्या दिखाना है और क्या देखना है। प्रतिरोध का सिनेमा एक ऐसा मंच है जो सत्ता व बाजार के इस प्रभाव को रोकने का तरीका ईजाद करता है। मसलन जन सहयोग से छोटी लागत व अल्प अवधि कि दस्तावेजी फिल्मों का निर्माण किया जाए और इनको दिखाने के माध्यम विकसित किए जाएं।
इसी कड़ी में 19 से 20 जनवरी को गोरखपुर में जन संस्कृति मंच और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी द्वारा 13वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया। जिसमें छह दस्तावेजी फिल्में, एक बाल फिल्म सहित तीन फीचर फिल्मों के अलावा तीन लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। हिंसा, नफरत और उन्माद की राजनीति से सचेत करती ये फिल्में दर्शकों के बीच व्यापक विमर्श का हिस्सा बनी़। फिल्म मेकर्स और दर्शकों के बीच संवाद व उसके सार्थक मायने आयोजन की ख़ास उपलब्धि रही।
इसी बात को ‘अपनी धुन में कबूतरी’ के निर्देशक संजय मट्टू ने कहा कि फिल्मकारों का दर्शकों से रूबरू होना जरूरी है। इस तरह के आयोजन से यह पता चलता है कि दर्शक फिल्मों के विषय वस्तु से क्या-क्या अर्थ निकालते हैं। इससे विविधता का पत चलता है और नये अर्थ व मायने निकलते हैं। ‘अपनी धुन में कबूतरी’ फिल्म को बनाने की ठोस वजह के सवाल पर उन्होंने कहा कि फिल्में रोजमर्रा की जिंदगी पर भी बन सकती हैं। इसके लिये ठोस वजह की जरूरत नहीं।
दो दिन चले इस फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों का उत्साह व फिल्म मेकर्स से उनका गंभीरता से भरा संवाद कमाल का था। फिल्मों की विषयवस्तु और उसकी संप्रेषणीयता का असर इस कदर रहा दर्शक फिल्म मेकर्स से मुद्दे विशेष के हल पर खुद उनके प्रयासों को लेकर सवाल दागते दिखे। कुशीनगर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तापसी की बदहाली व गुमनामी पर ‘हू इज तापसी’ बनाने वाले युवा फिल्मकार विजय प्रकाश ने कहा कि एक पत्रकार व फिल्मकार कार की भी अपनी एक सीमा होती है। इस लिहाज से घटना विशेष को दिखना या सूचित करना भी महत्वपूर्ण काम होता है।
परमाणु ऊर्जा के औचित्य पर बनी दस्तावेज़ी फ़िल्म का गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल में शामिल होना कई प्रयोगों का परिणाम था. पहले तो फ़िल्मकार ने ख़ास गोरखपुर के दर्शकों का ख्याल रखते हुए प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के साथ इस फ़िल्म का अंग्रेज़ी से हिंदी संस्करण बनाया फिर इसके आइडिया को आम लोगों तक संप्रेषित करने के लिए एक नाटकीय सिचुएशन भी सृजित की.
फ़ातिमा ने फ़िल्म शुरू होने के पहले हाल के बाहर अपने चेहरे पर मुखौटा लगाए खड़ी थी और हाल के अंदर जाने वाले हर दर्शक को प्रदूषण से बचने वाला मास्क बांट रही थीं. एक योजना के मुताबिक़ फेस्टिवल टीम ने दर्शकों से मुखौटा लगाए फातिमा को भारत सरकार के अहमक सुरक्षा अधिकारी के रूप में पेश किया जिसने नाटकीय अंदाज में बकायदा दर्शकों को खड़े होने और फिर सभा बर्खास्त होने के निर्देश दिए. दरअसल यह सब तैयारी दर्शकों को मजाहिया अंदाज़ में ले जाने की थी जो कि फ़ातिमा की फ़िल्म की मूल भावना भी थी.
फ़िल्म के बाद एक बच्चे ने यह अहम सवाल किया कि परमाणु ऊर्जा को आपने इतना निगेटिव क्यों दिखाया है ? ‘परमाणु ऊर्जा: बहुत ठगनी हम जानी’ की निर्देशिका फातिमा निजारुद्दीन ने कहा कि इसके रेडिएशन कैंसर को जन्म देते हैं। उन्होंने बताया कि यह रेडिएशन अंतरराष्ट्रीय स्तर के 3 प्रतिशत के मुकाबले तमिलनाडु के कोडमकुलम में 20 प्रतिशत है।
दर्शकों से संवाद में माब लिंचिंग पर बनी दस्तावेजी फिल्म ‘लिंच नेशन’ के निर्देशक अशफाक ने कहा कि इस फिल्म में वह पीड़ितों के पक्ष में खड़े हैं। इसे जिस भी रूप में देखा जाए। उन्होंने बताया कि लोग बर्बर घटनाओं के आदी न हो जाएं इसलिए इस फिल्म का निर्माण किया गया। इसी फ़िल्म की चर्चा के दौरान एक दर्शक ने सवाल न पूछकर जो अपनी संक्षिप्त टिप्पणी करी वह फेस्टिवल की जरुरत को महत्व के साथ रेखांकित करती है. उन्होंने कहा कि ‘ मैं कोई सवाल नहीं करना चाहता बल्कि यह कहना चाहता हूँ कि दुर्भाग्य से हमारी सरकार खुद इन सब घटनाओं में लिप्त है. हमें इस फिल्म ने यह सोचने पर मजबूर किया है कि किस तरह का हमारा समाज है और हम पढ़े –लिखे लोग हैं जिन्हें एक बेहतर समाज बनाने की जिम्मेवारी दी है.’
#13GFF #तेरहवां_गोरखपुर_फ़िल्म_फेस्टिवलदस्तावेज़ी फ़िल्म 'लैंडलेस' के संपादक साहिब सिंह इक़बाल पंजाब के सामाजिक हालात पर अपनी बात रखते हुए।
Публикувахте от Sanjay Joshi в Неделя, 20 януари 2019 г.
उन्होंने यह भी कहा कि ‘सरकारें ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहीं हैं क्योंकि उन्हें ऐसा करने से लाभ है जिस दिन सरकारों के मन में यह सन्देश चला जाय कि ऐसा करने से इसका उल्टा असर होगा वो यह सब बंद करने पर मजबूर होंगी.’
दस्तावेजी सिनेमा निर्माण में चुनौतियों के सवाल पर ‘लाइफ आफ एन आउटकास्ट’ के फिल्मकार पवन श्रीवास्तव ने बताया कि जीवन में जो चुनौती है वही फिल्म की भी चुनौती है। उन्होंने कहा कि नये तरह की फिल्म बनाने में और भी चुनौतियां हैं। लेकिन अगर आप बनाना ही चाहते हैं तो वह बन ही जाएंगी। पवन ने कहा कि सिनेमा को जानबूझकर एक्सपेंसिव बनाया जा रहा है। जिससे इसमें कम लोग आ सकें, लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। इस फ़िल्म की चर्चा के दौरान सिनेमाई समय पर भी दिलचस्प बात हुई जिसपर फिल्मकार पवन ने कहा कि मैं जानबूझकर फ़िल्म को धीमी गति देना चाहता था.
फेस्टिवल के दौरान पंजाब के भूमिहीन और दलित किसानों के हालात पर बनी फ़िल्म ‘लैंडलेस’ का भी प्रदर्शन हुआ. इस फ़िल्म की भाषा पंजाबी थी और इसके सब टाइटल अंग्रेजी में थे इसके बावजूद फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद अच्छी बात हुई. सबसे पहले फ़िल्म के कंसल्टिंग एडिटर अमनिंदर सिंह ने इस फ़िल्म योजना के बारे में विस्तार से बताया. यह फ़िल्म निर्देशक रणदीप मडोके का फ़ोटोग्राफ़ी का प्रोजक्ट था जिसे करते हुए उन्हें लगा कि पंजाब के भूमिहीन और दलित किसानों की बहुत सी जरुरी कहानियां हैं जिन्हें दर्शकों तक पहुंचना चाहिए. फ़िल्म के संपादक साहिब सिंह इकबाल ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि शुरुआत में यह फ़ोटोग्राफ़ी की किताब जैसी बन गयी थी जिसे हमने फिर से फ़िल्म का स्वरुप दिया.
गोरखपुर के कथाकार मदन मोहन ने फिल्म टीम से यह जानना चाहा कि पूर्वांचल से प्रवासी मजदूरों और पंजाब के किसानों के आपसी सम्बन्ध कैसे हैं जिसपर अमनिंदर ने कहा कि संबंध बहुत अच्छे नहीं हैं क्योंकि और बहुत सघन भी नहीं हैं क्योंकि प्रवासी मजदूर आमतौर पर गाँव में नहीं बल्कि शहरों में रहते हैं. फ़िल्म के महत्व को स्वीकारते हुए और बेहतर संवाद के लिए फिल्म टीम ने आयोजकों की के इस प्रस्ताव को गंभीरता से लिया कि इसका जल्द ही हिंदी रूपांतरण तैयार करना होगा.
भोजपुरी के कल्ट नाट्यकर्मी भिखारी ठाकुर के जीवन पर बनी दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘नाच भिखारी नाच’ को भी दर्शकों की भरपूर सराहना मिली. फ़िल्मकारों की गैर मौजूदगी के बावजूद आयोजन टीम को दिए एक वीडियो इंटरव्यू में एक दर्शक ने बहुत खुश होकर कहा कि फिल्म कब कथा फ़िल्म में रूपांतरित हो जा रही थी और कब दस्तावेज़ी में यह पता ही नहीं चल पाता था.
13 वें गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल के दौरान बहुत सी बातचीत और बहस हाल के बाहर लगे किताबों के स्टालों के इर्द –गिर्द और चाय की दुकान पर भी देखी गयी जिसमे फ़िल्मकार और उनके नए बने चहेते दर्शक आयोजकों की सेंसरशिप के बिना चर्चा में डूबे हुए थे.