वैभव सिंह
प्रेमचंद जितना पुरुष-जीवन का अंकन करने वाले कथाकार हैं, उतना ही स्त्रियों के जीवन के भी विविध पक्षों को कथा में व्यक्त करते हैं।
उऩकी कहानियों में हर स्तर, हर वर्ग की स्त्री के जीवन का चित्रण मिल जाता है। जिस तरह से उन्होंने सवर्णों के जीवन को कथा-सामग्री के तौर पर चुना है, उससे कहीं अधिक गांव के सामान्य निम्नजातीय लोगों के जीवन को भी। दलित आलोचक उनके द्वारा चित्रित दलित जीवन से जुड़ी समस्याएं निकाल सकते हैं पर ये नहीं कह सकते कि प्रेमचंद दलितों की स्थितियों के प्रति बेपहरवाह थे।
इन दिनों साहित्य में संयुक्त मोर्चा बनाने का चलन है जिसमें पीड़ित अस्मिताओं के साहित्य को विशेष दर्जा प्राप्त हो सके। पर प्रेमचंद का साहित्य संयुक्त मोर्चा बनाने जैसी राजनीतिक चिंता का प्रतिफल नहीं बल्कि संवेदना की व्यापकता का परिणाम है।
हिंदी में अज्ञेय ने उनके लेखन को महाकरुणा के लेखन के रूप में देखा था। ऐसी महाकरुणा जिसके बल पर प्रेमचंद समाज तथा जीवन के मूल अंतर्विरोधों को पहचानने लगते हैं। खासतौर पर उनके कथा साहित्य में दलित स्त्रियों के चुनौतीपूर्ण जीवन और उत्पीड़न को लेकर गहरा दर्द उपस्थित है।
वह वर्णाश्रम व्यवस्था के बोझ तले दबी दलित आबादी में दलित स्त्री की कराहों को अनसुना नहीं कर पाते हैं आलोचकों के बीच भी यह सामान्य मान्यता है कि प्रेमचंद ने दलितों की समस्याओं का जैसा वास्तविक चित्रण अपनी कहानियों में किया है, वैसा उपन्यास में नहीं किया है। नामवर सिंह अपने निबंध ‘दलित साहित्य और प्रेमचंद’ में इसके कारणों पर प्रकाश डालने की कोशिश में बताते हैं कि उपन्यासों में चूंकि बड़ी विचारधारा और बड़े नैरेटिव का ढांचा होता है, इसलिए दलित जीवन की कहानी गौण हो जाती है।
प्रेमचंद ने कहानियों में दलित समस्या को दलित स्त्रियों की समस्या से अलग करके नहीं देखा है। दलित-पिछड़े वर्ग के स्त्री जीवन की पीड़ा को उजागर करने वाली उनकी कहानियां जैसे दूध का दाम, सुभागी, घासवाली, ठाकुर का कुआं, कफन, सदगति आदि कुछ कहानियों में वर्णव्यवस्था जैसी अमानवीय व्यवस्था के शिकार बनते दलित पुरुष और स्त्रियों की व्यथा का वर्णन है तो कुछ में केवल उन समस्याओं का जिक्र है जिनका सामना केवल दलित स्त्रियों को करना पड़ता है।
उनकी कहानी ‘दूध का दाम’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसमें दिखाया गया है कि सवर्ण समाज किसी दलित स्त्री के शरीर का अपने हित के लिए प्रयोग कर लेता हैं पर जब उसके अधिकार या जीवन की रक्षा का प्रश्न आता है, तब उसे दुत्कार देते हैं। दलितों में आदमियों के श्रम का अवैधानिक प्रयोग होता है तो दलित स्त्री की देह का दुरुपयोग होता है।
यहां तक कि धर्मग्रंथों में वर्णित अस्पृश्यता के कठोर अमानवीय सिद्धांत भी दलित स्त्री को दैहिक सुरक्षा नहीं प्रदान करा पाते हैं। उसकी देह आखेट के लिए सर्वसुलभ मानी जाती है। कहानी में भूंगी नामक दलित स्त्री को बड़े मान-मनुव्वल के साथ गांव के जमींदार महेशनाथ अपने घर इसलिए ले आते हैं क्योंकि उनकी पत्नी प्रसव के बाद अपने लड़के को दूध नहीं पिला सकती है और भूंगी ही अपने बच्चे को छोड़कर उनके नवजात शिशु को दूध पिलाने लगती है।
भूंगी इस बात को अच्छी तरह से जानती है कि वर्णव्यवस्था ने बड़े-छोटे का जो भेद किया है, उसे मान्यता प्रदान करना दलितों की मजबूरी भले हो पर वह पूरी तरह गलत है। 1921 में ‘आज’ में प्रकाशित इस कहानी में प्रेमचंद दिखा रहे थे कि वर्णव्यवस्था का आतंक दलित पुरुष ही नहीं बल्कि दलित स्त्रियों के मन में भी आक्रोश को जन्म दे रहा है।
इसमें जमींदार महेशनाथ भूंगी पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- ‘दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाए, भंगी भंगी ही रहेंगे। इन्हें आदमी बनाना कठिन है।’ यह सुनकर भूंगी भी चुप नहीं रहती है और तीखे शब्दों में पलटकर जवाब देती है- ‘मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाए।’ इसके बाद जमींदार साहब की मक्कारी और चतुराई पर व्यंग्य करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं- ‘यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भूंगी के सिर के बाल बच सकते थे?
लेकिन आज बाबू साहब ठठाकर हंसे और बोले –‘भूंगी बात बड़े पते की कहती है।’ इसी कहानी में भूंगी का बेटा बाद में जमींदार के घर पर फेंके हुए टुकड़ों पर पलता दिखाया जाता है जो एक प्रकार से भूंगी के अहसानों को भूल जाने का उदाहरण है।
कहानी में भूंगी दलित स्त्री है जो स्वाभिमानी तो है पर दरिद्रता के कारण विवश है। वह दरिद्रता के दुष्चक्र में फंसी हुई है और अपनी गरीबी और जाति दोनों के कारण दमन सहने के लिए मजबूर है। वह पीड़ा की मूक भोक्ता नहीं बल्कि कई बार अपने तीखे तेवर भी व्यक्त करती है। इस तरह प्रेमचंद का यथार्थवाद भी गतिशील दिखता है क्योंकि वे बीसवीं सदी में दलितों में आती जागरूकता, पलटकर जवाब देने की हिम्मत और सवर्णों से नफरत को उभारने का प्रयास करते हैं।
प्रेमचंद ने वर्णव्यवस्था की अमानुषिकता का चित्रण करने के लिए ‘मंदिर’ नामक कहानी भी रची थी जो हिंदी मासिक ‘चांद’ के अछूत अंक में मई 1927 में प्रकाशित हुई थी।
चांद का यह अछूत अंक एक ब्राह्मण नंदकिशोर तिवारी ने संपादित किया था और इसके पहले पृष्ठ पर उन्हें सरयूपारी ब्राह्मण बताया गया। उनकी प्रेस के हिंदी विभाग के कंपोजिटर वंशीलाल कोरी (चमार) के संग भोजन करते तस्वीर भी प्रकाशित की गई। इसके ठीक अगले पृष्ठ पर राम को शबरी के जूठे बेर खाते चित्रित किया गया और काव्य के रूप में यह संदेश दिया गया कि या तो लोग राम को ईश्वर का अवतार मानें या फिर जाति के विचार को स्वीकारें।
ये पंक्तियां इस प्रकार थीं-
कह दे हिंदू जाति कहां वह छुआछूत का गया विचार।
अथवा श्रीमुख से यह कह दे राम न ईश्वर अवतार।।
प्रेमचंद की यह कहानी चांद के इस ऐतिहासिक अंक में प्रकाशित होने के कारण व्यापक तौर पर पढ़ी गई। यह कहानी वर्णव्यवस्था के साथ-साथ हिंदू मंदिरों में व्याप्त छुआछूत की बुराइयों, दलितों के साथ हिंसा और धर्म के भय को अपना प्रमुख विषय बनाती है।
कहानी सुखिया नामक दलित स्त्री की व्यथा पर केंद्रित है जिसके दो बच्चे और पति पहले ही मर चुके हैं और उसका एकमात्र पुत्र काफी बीमार है। सुखिया को लगता है कि उसके सपने में उसके मृत पति ने आकर कहा है कि ठाकुरद्वारे के मंदिर में जाकर पूजा करने से उसका पुत्र ठीक हो जाएगा।
वह आशा से भर जाती है और अपने कड़े बेचकर पूजा का सामान जुटाती है। पर जब वह पूजा करने पहुंचती है तो वहां पुजारी जी उसे चमारिन बताकर ठाकुर जी के मंदिर में प्रवेश कराने से इनकार करा देते हैं। वहां पर एक भक्त कहता है- चमार भी ठाकुर जी की पूजा करने लगेंगे तो पिरथी रहेगी कि रसातल में चली जाएगी? उधर सुखिया जो केवल एक बार ईश्वर के चरणों में गिरना चाहती है, वह मन ही मन सोचती है कि ठाकुर जी क्या इन्हीं के हैं, हम गरीबों को उनसे कोई नाता नहीं है? बाद में पुजारी दया कर और सुखिया के पैसे हड़पने के लिए कपड़े में बांधकर जंतर देते हैं और सुखिया घर लौट आती है। पर रात में बच्चे का ज्वर बढ़ता है तो वह फिर मंदिर की ओर भागती है।
कहानी में रात के तीन बजे, गहन अंधकार और ठंड में अपने बच्चे को कंबल में ढांपे, हाथ में पूजा की थाली लिए जंगल के बीच से मंदिर की ओर भागती असहाय दलित स्त्री का चित्र उभरता है। वर्णव्यवस्था का सबसे क्रूर रूप सामने आता है जिसने दलित के मन में धर्म का आतंक पैदा कर उसकी चेतना को कैद कर लिया गया है। मनुष्य ने ईश्वर और नरक के डर से स्वाधीनता व विवेक को स्वीकारना बंद कर दिया है।
‘सवा सेर गेहूं’ कहानी के किसान शंकर के मन में भी विप्र और धर्म का ऐसा आतंक था कि वह सवा सेर गेहूं का ऋण चुकाने के लिए हमेशा के लिए विप्र महाजन का दास हो गया। उसकी पत्नी और बेटा भी दास हो जाते हैं। कर्मफल, पुनर्जन्म, शाप-दंड की व्यवस्था ने उसे इस प्रकार से घेर रखा है कि वह अगले जनम को विप्र के श्राप से बचाने के लिए इस जनम के सारे दुःख और दमन को सहने के लिए खुद तैयार हो जाता है।
वह प्रचलित सामाजिक व्यवस्था और उसके विधिविधानों के बीच किसी शिकार की तरह है। लोग उसकी नियति को उसके श्रम, परिवार या मानव जीवन के रूप में नहीं बल्कि ‘पंडित जी के शिकार’ की हैसियत से देखते हैं। कर्मफल के जिस भय से दलित बहुत चिंतित है, वह भय विप्र से महाजन बने व्यक्ति के मन में लेशमात्र भी नहीं है। वह निश्चिंत है, मगन है।
वह स्वयं लोक व लोकोत्तर जीवन को जोड़ने वाली ब्राह्मणों की विराट सर्वव्यापी व्यवस्था के बारे में कहता है- ‘वहां तो सब अपने ही भाई बंधु हैं। ऋषि-मुनि सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, संभाल लेंगें।’ ‘मंदिर’ कहानी भी ईश्वर पर कब्जा जमाए बैठे ब्राह्मणों के अत्याचार का दुःखांत प्रतिवाद है। सुखिया जब रात के अंधकार में मंदिर में प्रवेश करने का प्रयास करती है तो पुजारी पहले शोर मचाता है और फिर सभी एकत्रजनों को बताता है कि सुखिया मंदिर में जाकर ठाकुर जी को भ्रष्ट कर आई है। उसके बाद भीड़ के लात-घूंसे में पहले तो उसके बच्चे का प्राणांत होता है और फिर वह स्वयं भी प्राण त्याग देती है।
मृत्यु से पूर्व वह दांत पीसकर सभी को सुनाती है – ‘मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र हो जाएंगे? मुझे बनाया तो छूत नहीं लगी? लो, अब कभी ठाकुर जी को छूने नहीं जाऊंगी..ताले में बंद रखो, पहरा बैठा दो।’ यह उल्लेखनीय है कि 1920 और 1930 के दशक में देश में कई स्थानों पर दलितों के आंदोलन चल रहे थे और उसमें मंदिर प्रवेश के लिए भी आंदोलन शामिल थे।
यह कहानी जिस वर्ष लिखी गई, उससे तीन साल पहले केरल में वायकोम (त्रावणकोर) में दलितों का मंदिर प्रवेश आंदोलन हुआ चुका जिसने देश के समस्त राष्ट्रीय समाचार पत्रों में सुर्खियां बटोरी थीं। प्रेमचंद ने दलित स्त्री के माध्यम से दलितों के मंदिर प्रवेश आंदोलन का इस कहानी में समर्थन किया था।
उन्होंने राष्ट्रवाद के विकास के साथ सार्वजनिक और निजी की जो परंपरागत धार्मिक परिभाषा थी, उसको चुनौती दी थी। धर्म की मान्यताएं मंदिर व उपासनास्थलों को केवल सवर्णों का निजी स्थान मानती थीं पर प्रेमचंद जैसे प्रबुद्ध रचनाकार राष्ट्रवाद और सामाजिक परिवर्तन के नई भावनाओं के अनुरूप सार्वजनिक धार्मिक स्थलों को किसी जाति या धार्मिक भेदभाव की कैद में रखने के विरोधी थे।
आश्चर्य यह है कि उन्होंने मंदिर प्रवेश के अधिकार को दलित स्त्री के संघर्ष तथा पीड़ा के माध्यम से प्रकट किया और इसका कारण संभवतः यह था कि वे धर्म को केवल जातियों नहीं बल्कि स्त्री को दास बनाने वाली संस्था के रूप में भी देख रहे थे।
कहानी के अंत में मंदिर के दरवाजे के बाहर पड़ी सुखिया की लाश धर्म, वर्णव्यवस्था, पुरोहित, अंधविश्वास की पूरी पिशाची व्यवस्था को बहुत मार्मिक रूप से व्यक्त करती है। वह केवल दलित स्त्री की असहायता को नहीं बल्कि पूरे हिंदू धर्म की विवशता को जताती है जो बहुविध सामाजिक बुराइयों, धार्मिक अनाचारों और अंधविश्वासों के आगे स्वयं भी असहाय बना हुआ है।
प्रेमचंद की ही एक और कहानी है ‘घासवाली’ जो 1929 में ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी प्रेमचंद की जीवन-दृष्टि और ह्रदय परिवर्तन संबंधी विश्वासों का परिचय देती है। इस कहानी में प्रेमचंद का मुख्य उद्देश्य दलित स्त्री पर अत्याचार करने वाले सामंत के हृदय में सुधारवादी भाव पैदा होते दिखाना है। पर बावजूद इसके यह कहानी श्रम के बल पर सम्मानजनक जीवन जीने की दलित स्त्री की आकांक्षा की राह के बाधक तत्वों का सफलतापूर्वक उद्घाटन भी करती है।
प्रेमचंद अपनी अधिकांश कहानियों में दलित स्त्री का सकारात्मक चित्र खींचते हैं और उसे अपने सम्मान के लिए संघर्ष करते दिखाते हैं। वहां स्त्री परास्त होने की प्रबल संभावनाओं के बावजूद लगातार प्रतिरोध करती है और हर तरह के लोभ-लालच को ठुकराना जानती है। वह बहुत दब्बू या समझौतावादी नहीं है बल्कि अपने आक्रोश को प्रकट करती है।
वर्णव्यवस्था के कारण भले वह हर तरफ से दबाई जाती हो पर वह अपने मानवीय आत्मबल और आत्मसम्मान को नहीं खोती है। जाहिर है कि प्रेमचंद के मन में इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं है कि स्त्री अपनी चरम असहायता की अवस्था में भी लड़ना नहीं छोड़ती है। इसी तरह प्रेमचंद दलित स्त्रियों के चरित्र को लेकर उच्च-जातियों के मन में बैठी गलत धारणाओं का वह निर्ममता से खंडन करते हैं।
दलित स्त्री को स्वभावतः लालची, दुश्चरित्र, बदमाश और वासनापूर्ण माना जाता है और ये मान्यताएं दलित स्त्री के किसी भी प्रकार के प्रतिरोध और संघर्ष को नकारने में प्रयोग की जाती हैं। इस कहानी में ठाकुर जाति के चैन सिंह और चमार जाति की स्त्री मुलिया के बीच के संवादों से पता चलता है कि किस तरह प्रेमचंद निम्नजातियों के सम्मान के विषय और उच्च जातियों के अहंकारपूर्ण पाखंड के बारे में निरंतर दृष्टि का विकास कर रहे थे।
कहानी में ठाकुर चैन सिंह जब घास काटकर उसे बाजार में बेचने वाली मुलिया का गलत इरादों से हाथ पकड़ता है तो मुलिया का चेहरा ज्वाला की तरह दहक उठता है और प्रेमचंद के शब्दों में- ‘चैन सिंह को आज जीवन में नया अनुभव हुआ। नीची जातों में रूप माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या था वह ऊंची जाति वालों का खिलौना बने। ऐसे कितने ही मार्क उसने जीते थे, पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका वह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गए। उसने लज्जित होकर उसका हाथ छोड़ दिया।’
प्रेमचंद अपनी कहानियों में दलित स्वाभिमान और सम्मान की लड़ाई को दो रूपों में दिखाते हैं। एक ओर वे दलित पात्रों की प्रतिरोधपूर्ण मुद्रा को कथाओं में प्रसंगबद्ध करते हैं, दूसरी ओर सवर्णों की कुत्साओं और अधम आचरण का खुलासा करते हैं। वह दलित स्त्री को दुर्गा-काली बनाकर भले न पेश करते हों पर एक सामान्य मनुष्य की तरह न्याय की लड़ाई के प्रति उसके झुकावों को साफ तौर पर दर्ज करते हैं।
भारत में जाति व्यवस्था ने मनुष्यों को ही नहीं बांटा बल्कि एक बड़ी जनसंख्या से मनुष्यतापूर्ण आचरण करने को ही धर्म और शास्त्र के विरुद्ध ठहरा दिया। अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘जातिभेद का उच्छेद’ में जातिव्यवस्था का महिमामंडन करने वाली इन सारी चीजों को स्पष्ट तौर पर नकारा था।
इसी पुस्तक में उन्होंने लिखा था- ‘हिंदू केवल जातियों का एक झुंड ही नहीं वरन अनेक युद्धरत समूह हैं जिनमें प्रत्येक अपने लिए और स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जुटा है।’ प्रेमचंद की रचनाएं भी दिखाती हैं जाति व्यवस्था मूल रूप से भारत का अभिशाप रही है और इसे तोड़ने के बजाय अनपढ़ों, नवशिक्षितों, पढ़े-लिखे लोगों यानी एक प्रकार से सभी वर्गों ने इसके साथ समझौता कर लिया। ‘घासवाली’ कहानी में अन्यत्र भी ऐसे संवाद हैं जो दलित स्त्री मुलिया के बहाने सवर्णों की कोकशास्त्रीय जीवनशैली की तीखी आलोचना करती है। वह चैन सिंह को फटकारते हुए कहती है- ‘मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूं, नीच जाति हूं और नीच जाति की औरत जरा सी घुड़की-धमकी व जरा-सी लालच से तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएगी। कितना सस्ता सौदा है। ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे?’
फिर आगे वह यह भी बताती है कि बड़ी और ऊंची जाति वालों के घर में किस तरह से अनैतिकता का राज है पर फिर भी माना जाता है कि नीची जाति की स्त्री अनैतिक, चरित्रहीन और लालची होती है और उसे आसानी से अपनी यौन लिप्साओं के लिए फुसलाया जा सकता है। एक खास तरह की चरित्रगत रूढ़ि (essentialism) के सहारे ही उनके दमन को लंबे समय तक संभव बनाया गया। पर कथाओं में दलित स्त्री खुलकर उन सवर्ण स्त्रियों की चारित्रिक विशेषताओं को भी उजागर करती है जिनकी महानता का वर्णन कर हिंदू स्त्री आदर्शों का निर्माण किया जाता है।
स्त्री के बारे में जितने बद्धमूल विचार हैं जो उसे मनुष्य से कमतर मानने की बात कहते हैं, प्रेमचंद उन सभी का खंडन करते हैं। प्रेमचंद ने दलित स्त्रियों को केंद्रीय पात्र बनाकर लिखी सारी कहानियों में वर्णवस्था के प्रश्न को एक जैसी गंभीरता से नहीं उठाया है और शूद्रा जैसी कथा तो काफी कुछ बंबइया फिल्मों के फार्मूले से लिखी प्रतीत होती है। गांव में रहने वाली स्त्री का सवर्ण पुरुष से विवाह, पुरुष का परदेश जाना और फिर उसे ढूंढते हुए किसी प्रकार उसके पास पहुंचना। लेकिन वहां विपरीत स्थितियों के कारण स्त्री और उसके पति दोनों की जान चली जाना। पर ‘शूद्रा’ कहानी में प्रेमचंद ने धोखेबाज ब्राह्मण का चरित्र निर्मित किया है जो औरतों को फुसलाकर उनका एक प्रकार से अपहरण करता है।
इस प्रकार इस कहानी में भी, जो वर्णव्यवस्था से सीधे संबंधित नहीं लगती, उसके केंद्र में भी एक दुष्ट और धोखेबाज ब्राह्मण है जिसके कारण गौरा जैसी योग्य निम्नजाति की स्त्री का जीवन नष्ट हो जाता है। कथानक की संरचना से लगता है कि प्रेमचंद के मन में ब्राह्मण शब्द को सम्मान, अध्यात्म या धर्म के साथ जोड़ने से सख्त ऐतराज था और इसीलिए इस कहानी में वह बूढ़े ब्राह्मण को मानव तस्करी जैसे जघन्य अपराध में लिप्त चित्रित करते हैं।
प्रेमचंद की व्यापक छूआछूत की समस्या, दलितों के मन में बैठे आतंक और सवर्णों की क्रूरता पर रचित कथाओं में भी दलित स्त्री के मन की बातों को लिखने का प्रयास करते हैं। उनकी कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ में एक प्रसंग के माध्यम से दलित स्त्री के जीवन की अनंत पीड़ा व रोजमर्रा की दुर्घटनाओं की अभिव्यक्ति मिल जाती है। हर महान कहानीकार की तरह उनकी कहानियों का भी यही कौशल है कि वह क्षण विशेष या किसी घटना विशेष के माध्यम से किसी बड़ी ऐतिहासिक-सामाजिक सचाई को व्यक्त कर देते हैं। कहानी की दलित स्त्री चरित्र गंगी अपने बीमार पति जोखू के लिए पानी तलाश रही है और मजबूरन उसे पास के ‘ठाकुर के कुएं’ पर जाना पड़ता है।
वहां ठाकुर और उसके कारिंदों का पहरा है और वह छिपकर कुप्पी की धुंधली रोशनी में नजर आते कुएं को देखती रहती है। वह जानती है कि इस कुएं का पानी सारा गांव पी सकता है। केवल वही बदनसीब लोग हैं जो पानी नहीं ले सकते। प्रेमचंद की कहानी-कला का ही कमाल है कि वे एक नाटकीय दृश्य का निर्माण करते हैं। इसमें ठाकुर के दरवाजे पर बैठे लोग हैं जो अपनी-अपनी चतुराइयों के किस्से बता रहे हैं और दूसरी तरफ दलितों से अपने धर्म को बचाने में लगे हैं।
पृथ्वी की एक सर्वसुलभ व प्राकृतिक चीज है पानी और वह भी वर्णव्यवस्था के कारण ठाकुर के कब्जे में है। उस पानी के कुएं पर कुप्पी की धुंधली रोशनी पड़ रही है। कहानी में ऐसे दृश्यात्मक रूपों का सृजन ही प्रेमचंद की कहानी कला को विशिष्ट बनाता है।
ठाकुर के कुएं के पास खड़ी गंगी की मनोदशा पर वे लिखते हैं- ‘गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोट करने लगा-हम क्यों नीच है और ये लोग क्यों ऊंचे हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डालते हैं। यहां तो जितने हैं, एक से एक छटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें।..इन्हीं पंडित के घर में तो बारह मास जुआं होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है।’ कहानी में पात्र या चरित्र को केवल यथार्थ रूप में दिखाना महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि उसके मन में के आंतरिक तनाव व आंतरिक संवाद आदि से जुड़ी नाटकीय संभावनाओं को भी सामने लाना जरूरी होता है। यह संभव है कि कोई आलोचक यह कह दे कि ऐसी विवशता में फंसी स्त्री इतनी बड़ी बातें सोच नहीं सकती है और प्रेमचंद ने अपने विचारों का प्रतीक बनाकर उसके चरित्र की स्वाभाविकता को नष्ट कर दिया है।
यह भी कहा जा सकता है कि प्रेमचंद अशिक्षित स्त्री की मनःस्थिति में जबरन असंतोष ढूंढ रहे हैं जबकि 1930-32 के युग की सीमाओं को देखते हुए यह अतिरेक ही कहलाएगा। पर कहानी का यही काम है कि वह चरित्र के सपाटपन को नहीं बल्कि किसी युग की संभावनाओं को भी व्यक्त करे।
वह चरित्र के इकहरेपन तथा एकरसता को तोड़कर उसमें युग के विकासशील संवेदनों को भी जोड़ सके ताकि पाठक केवल यथार्थ ही नहीं बल्कि यथार्थ में निहित और प्रायः अनदेखी कर दी गई गतिशीलता को भी पहचान सके। इस अर्थ में प्रेमचंद सफल कथाकार हैं कि वे यथार्थ का यांत्रिक प्रतिबिंबन नहीं करते हैं बल्कि यथार्थ में निहित उलटफेर की संभावनाओं को पहचान कर यथार्थ के बारे में हमारी सीमित समझ को विस्तार प्रदान करते हैं।
‘ठाकुर का कुआं’ कहानी में भी वह एक ओर गंगी के विद्रोही दिल का उल्लेख कर दलितों में आ रही चेतना से परिचित कराते हैं तो दूसरी ओर अपनी दैहिक सुरक्षा के लिए चिंतित स्त्री मनोविज्ञान का भी चित्रण गंगी द्वारा सोचे इन शब्दों में करते हैं- ‘कभी गांव में आ जाती हूं तो रस-भरी आंखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है। परंतु घमंड यह कि हम ऊंचे हैं।’ यहां एक स्त्री सबसे पहले तो दलित होने के कारण प्रताड़ित है तो दूसरी ओर स्त्री होने के कारण भी।
जो सवर्ण दलितों के शरीर को गंदा मानकर सबसे ज्यादा छुआछूत की बात करते हैं वही दलित स्त्री की देह की कामना करते हैं। प्रेमचंद सवर्ण समाज में स्त्रियों को नौकरानी की तरह देखनेवाली मानसिकता पर भी चोट करना जानते थे।
ठाकुर के घर से कुएं पर आई औरतें भी आपस में बाते कर रही हैं कि उन्हें लौंडिया समझा जाता है और जो मन चाहे, उनके ऊपर हुक्म चला देता है।
इस प्रकार प्रेमचंद एक ओर तो दलित स्त्री की दर्दनाक स्थिति को उजागर करते हैं, तो दूसरी ओर सवर्णों की घर की औरतों की विषम स्थितियों को अनदेखा नहीं कर पाते उनकी कहानी ‘सुभागी’ भी पिछड़े वर्ग की स्त्रियों के प्रति सहानुभूतिपरक दृष्टि के कारण अपना ध्यान आकृष्ट करती है।
इस कहानी में वे सुभागी नामक विधवा स्त्री के कर्मठ तथा स्वावलंबी स्वभाव का वर्णन करते हैं, हालांकि कहानी के अंत में उच्च जाति के घर उसका विवाह होते दिखाकर वह कहानी को कमजोर कर देते हैं। सुभागी के रूप में वह पिछड़ी जाति की स्त्रियों की ईमानदारी तथा आत्मविश्वास को प्रकट करते हैं।
वह अपने पिता के मरने पर धूमधाम से तेरही करती है और आठ गांव के ब्राह्मणों को भोजन कराती है। इस कारण उस पर तीन सौ रुपये का कर्ज भी चढ़ जाता है। सुभागी अपनी मां के मरने पर भी दो सौ रुपये कर्ज लेकर उनकी तेरही भी काफी धूमधाम से करती है और उस पर कुल कर्ज चढ़ जाता है पांच सौ रुपये का। इस कर्ज को चुकाने के लिए ही वह प्रेमचंद के शब्दों में‘दिन भर खेती बारी का काम करने के बाद वह रात को चार-चार पसेरी आटा पीस डालती।’
इस कहानी में प्रेमचंद का अंतर्विरोध भी सामने आता है कि वह पिछड़ी जाति की स्त्री की श्रमनिष्ठा को दिखाने के माध्यम से मृत्यु के बाद होने वाले ब्राह्मणवादी संस्कारों का महिमामंडन करते हुए लगते हैं। प्रेमचंद वैसे तो कर्मकांड और अंधविश्वासों का विरोध करते हैं पर इस कहानी में वह सुभागी के माध्यम से क्यों तेरही में ब्राह्मणवादी विधि विधानों, जिसके कारण कर्ज चढ़ने की नौबत आ जाती है, का महिमामंडन करते हैं यह समझना अधिकांश लोगों को कठिन लगता है।
इसी प्रकार उर्दू मासिक ‘जमाना’ के फरवरी 1928 के अंक में प्रकाशित ‘मंत्र’ कहानी में वे झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र के माध्यम से सांप के जहर से लगभग मृत व्यक्ति को जीवित किए जाने के विषय पर कहानी रचकर अंधविश्वासों को बल प्रदान करते नजर आते हैं। प्रेमचंद के समय तक तिलिस्म, रोमांच, रहस्य और अतिलौकिक विश्वासों पर कथाएं लिखने का बड़े पैमाने पर प्रचलन था।
प्रेमचंद की कहानी कला स्वयं उनसे मुक्त थी, पर मुक्ति के बावजूद उस पुरानी कहानी परंपरा के कुछ लक्षणों को प्रकट भी करती थी।
प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में दलित स्त्री के मन की कोमल से कोमल भावना की उपेक्षा करके उसे केवल विरोध करने वाले यंत्र के रूप में नहीं दिखाना चाहते थे बल्कि उसकी संपूर्ण आंतरिकता की भी खोज करते थे। उन्होंने दलित स्त्रियों के मन में पैठी प्रेम-श्रृंगार, स्नेह तथा सुरक्षा की भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता दिखा कर भी एक नई तरह की स्त्री चेतना के विकसित होने की सूचना दी है।
गोदान के उस प्रसंग से सब परिचित हैं जिसमें गांव के चमार एकत्र होकर पंडित मातादीन के मुंह में एक बड़ी सी हड्डी का टुकड़ा डाल देते हैं। सारा संघर्ष इस बात पर है ब्राह्मण धर्म निम्नजातियों को स्वीकारने को तैयार नहीं है पर वह दलित स्त्रियों के दैहिक उपभोग के लिए सारे जाल बिछाता रहता है।
गांव के चमार एकत्र होकर ललकारते हैं- ‘हमारी इज्जत लेते हो तो अपना धरम हमें दो।’ धर्म का असमान वितरण सामाजिक असमानता का कारण दिखता है। पर इस घटना को देख रही दलित सिलिया की प्रतिक्रिया का वर्णन प्रेमचंद ने अनोखे तरीके से किया है। उसकी अवस्था का वर्णन करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं- ‘सिलिया जहां अनाज ओसा रही थी, वहीं सिर झुकाए खड़ी थी। मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है।’
प्रेमचंद स्त्री चेतना के कथाकार नहीं थे बल्कि मनुष्य मनोविज्ञान के सच्चे पारखी थे। उन्होंने दलित सिलिया के हावभाव को बड़े स्वाभाविक ढंग से पकड़ा भी। आगे भी वह सिलिया की सूक्ष्म भावनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उसकी मनःस्थिति पर लिखते हैं- ‘अभी जरा देर पहले उसका मन मातादीन के निष्ठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा था, पर अपने घरवालों और बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया।’ यहां सिलिया केवल दलित नहीं बल्कि एक सामान्य हाड़मांस वाली स्त्री भी है।
प्रेमचंद उसे केवल दलित स्त्री की तरह चित्रित नहीं करते बल्कि सामान्य स्त्री के रूप में भी चित्रित करते हैं जो अपने प्रेमी की दुर्दशा देखकर उसके पापों को भूलकर पिघल जाती है। इस तरह वह सच्ची प्रातिनिधिक चरित्र निर्मित करने में सफलता प्राप्त करते हैं।
वह स्त्री मन की भी परतें खोलकर दिखाना चाहते हैं और उसके भीतर की उग्रता तथा प्रेम दोनों को समझते हैं। वे दलित स्त्री के स्वाभाविक स्त्रीत्व को दिखाकर एक प्रकार से दलित स्त्री के भी मानवीय गुण पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उसे यांत्रिक प्रतिरोध के फार्मूले से बचा लेते हैं।
प्रेमचंद के ऊपर तत्कालीन अंबेडकरवादी आंदोलन का गहरा असर था और गोदान में इसे स्पष्ट ढंग से लक्षित किया जा सकता है। वे दलित आंदोलन से शिक्षित हो रहे थे और दलित पुरुषों के साथ-साथ दलित स्त्रियों के सम्मान, अधिकार तथा स्वाभिमान के प्रश्न को समझने लगे थे।
उनका 1936 का लिखा निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ जैसा निबंध उनपर मार्क्सवाद के प्रभाव को दर्शाता है तो दलित प्रतिरोध की कथाएं अंबेडकरवाद के असर को। प्रेमचंद भी अपनी कथाओं के माध्यम से भारतीय समाज-संस्कृति के बारे में आधुनिक चिंतन के विकास को प्रेरित करते हैं।
(देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान, स्पंदन आलोचना सम्मान से सम्मानित लेखक वैभव सिंह युवा आलोचक हैं और दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं।पुस्तकें- इतिहास और राष्ट्रवाद, भारतीय उपन्यास और आधुनिकता, शताब्दी का प्रतिपक्ष, भारतः एक आत्मसंघर्ष। अनुवाद- मार्क्सवाद और साहित्यालोचन, भारतीयता की ओर। कुछ पुस्तकों का संपादन भी।
लेख में प्रयुक्त तस्वीर डॉ. भास्कर रौशन का स्केच है, वह दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में प्राध्यापक हैं)