2023 में वर्सो से कोस्तास लापाविस्तास और एरेन्सेप राइटिंग कलेक्टिव की किताब ‘द स्टेट आफ़ कैपिटलिज्म: इकोनामी, सोसाइटी, ऐंड हेजेमनी’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब की शुरुआत वर्तमान खतरनाक हालात यानी कोरोना से हुई है जिससे समूची दुनिया में भारी समाजार्थिक और राजनीतिक उथल पुथल हुई । अर्थतंत्र और समाज के लिए सेहत संबंधी आपातकाल का माहौल पैदा हो गया और सरकारों की भूमिका अप्रत्याशित रूप से प्रमुख हो गयी । उसके बाद रूस और यूक्रेन का युद्ध तथा चीन और अमेरिका के बीच भूराजनीतिक तनाव का समय आया । इस तरह वर्तमान सदी के दूसरे दशक के आरम्भ को घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर कोरोना के चलते सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के साथ जोड़कर देखा जा सकता है । सोवियत खेमे के पतन के तीन दशक बाद दुनिया भर में प्रभावी पूंजीवादी संबंधों ने भयानक सामाजिक तनावों और प्रभुत्व की नयी तनातनी को जन्म दिया है । इस दौरान वित्तीय संकट के अतिरिक्त अमेरिका द्वारा छेड़े गये तमाम युद्धों से भी दुनिया त्रस्त रही । कोरोना और यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक अस्थिरता को तेज कर दिया है ।
बहरहाल इस उथल पुथल की जड़ पूंजीवादी संचय में है । असल में हालिया वित्तीय संकट के बाद का समय अनिश्चय का समय रहा है जब ग्राम्शी की शब्दावली में पुराने की मौत हो रही है लेकिन नये का जन्म नहीं हो पा रहा है । दुनिया भर के अर्थतंत्रों में उत्पादन की गिरावट और सर्वभक्षी वित्तीय प्रभुत्व नजर आ रहा है । वित्तीकरण की मजबूती की वजह से सरकारी नीतियों का सबसे अधिक लाभ यही क्षेत्र उठा रहा है । इसके कारण मुट्ठी भर अमीरों के हाथ में अकूत संपदा का संकेंद्रण हो रहा है । विकसित पूंजीवादी देशों में वृद्धि सुस्त पड़ गयी है, रोजगार के अवसर क्षीण हो रहे हैं, गरीबी खत्म होने का नाम नहीं ले रही जबकि आमदनी की खाई चौड़ी होती जा रही है जिससे सामाजिक दरारें बड़ी हो रही हैं । इस तरह नवउदारवादी वित्तीय पूंजीवाद चार दशक की यात्रा के बाद थकान से भरा हुआ प्रतीत हो रहा है ।
कोरोना के चलते पगारजीवी श्रम और भुगतान रहित हाड़तोड़ पुनरुत्पादक श्रम के बीच का अंतर भी उभर आया है । साफ हो गया है कि विकसित पूंजीवादी समाजों को जिंदा रहने के लिए किस तरह के काम जरूरी हैं और इन्हें किस हद तक औरतों तथा अल्पसंख्यक कामगारों द्वारा संपन्न किया जाता है । इस दौरान कार्यस्थल पर स्त्रियों के लिए खड़े अवरोधों के विरुद्ध नारीवादियों के दशकों लम्बे संघर्ष बेकार सिद्ध हुए क्योंकि उन पर घरों के भीतर पुनरुत्पादक काम थोप दिये गये और घरेलू हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई । विश्व अर्थतंत्र के हाशिये पर पूंजीवादी संचय के नये केंद्र उभर आये । इससे आर्थिक गतिविधियों में वैश्विक स्तर पर फिर से नया संतुलन बनाना पड़ा । हाशिये के देशों का जब विश्व अर्थतंत्र में एकीकरण किया गया तो उत्पादन, व्यापार और वित्त के मामलों में नये संजाल भी स्थापित हुए । इसी समय पूंजीवाद के वैश्विक प्रसार ने पर्यावरण पर कहर बरपा दिया । मुनाफ़े की दौड़ में संचालित अर्थतंत्र के हाथों मनुष्यता और प्रकृति के बीच बने विध्वंसक रिश्ते की ओर भी नये सबूतों के कारण लोगों की नजर गयी ।
हालिया वित्तीय संकट के बाद से ही केंद्र और हाशियों के पूंजीवादी अर्थतंत्र राज्य पर अधिकाधिक निर्भर होते गये थे । कोरोना संकट का यह भी विशेष पहलू था कि राज्य आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करता हुआ दिखा और अर्थतंत्र राजकीय सहायता के मुखापेक्षी हुए । नीति और विचारों के मामले में दशकों तक नवउदारवाद का ढिंढोरा पीटने वाले भी मान गये की शासकीय बैसाखी के बिना टिकाऊ पूंजीवादी संचय सम्भव नहीं है । अर्थतंत्र के साथ राज्य की संलग्नता जितना ही मजबूत होती गयी उतना ही अधिक मुट्ठी भर पूंजीपतियों ने राजसत्ता पर अपनी जकड़बंदी बढ़ायी । लोकतंत्र की संस्थाओं को लकवा मारता गया और कामगारों तथा स्थानीय समुदायों को राजनीतिक जीवन में खींच लाने वाले मध्यवर्ती तंतु टूटते गये । मुख्य धारा की राजनीति विफलता के कारण अप्रासंगिक हो चली और जनता की संप्रभुता को अर्थहीन बना दिया गया है ।
इन सबके बावजूद पूंजीवादी संचय के किसी नये और गतिमान दौर में प्रवेश का कोई सबूत नहीं मिलता । नवउदारवादी वित्तीय पूंजीवाद में किसी गहरे बदलाव की आशा बेकार है । सत्ता की कुंजी खरबपति कुबेरों के हाथ में सुरक्षित है । इस ठहराव के परिणाम पूरी दुनिया में प्रत्यक्ष हैं । सोवियत खेमे के पतन के बाद वैश्विक स्तर पर अमेरिकी प्रभुत्व कायम हो गया और अब यह अब तक का सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य बन गया है । बहरहाल यह अमेरिकी प्रभुत्व ढलान पर है और यूक्रेन युद्ध के साथ टकराव का नया दौर शुरू हुआ है । नवउदारवादी उभार के समय प्रभुत्व और साम्राज्यवाद की चालक ताकतें बहुराष्ट्रीय निगम थे जो वैश्विक उत्पादन का जाल बुन रहे थे और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान थे जो विभिन्न देशों के अर्थतंत्रों में जबरिया प्रवेश कर रहे थे । उस समय अमेरिका ने सबसे आगे बढ़कर ऐसा सांस्थानिक ढांचा खड़ा किया था जो निजी पूंजी के मुनाफ़े के लिए सर्वाधिक आक्रामक भूमिका निभा रहा था । इसके बल पर उसने सारी दुनिया के अर्थतंत्र पर प्रभुत्व कायम किया और विकसित देशों से समर्पण कराया तथा हाशिये पर कब्जा जमाया । इसमें सबसे बड़ी भूमिका उसकी मुद्रा डालर की केंद्रीयता ने निभायी ।
अंतहीन युद्धों ने उसकी इस आर्थिक प्रभुता के लिए समस्या पैदा कर दी । पूंजीवादी संचय के जो नये केंद्र खासकर एशिया में उभरे थे वहां राज्य पर निर्भरता बहुत अधिक थी । इस स्थिति का लाभ उठाकर चीन ने अमेरिकी नेतृत्व में कायम ढांचे को अपने राष्ट्रीय हितों में प्रभावित करना शुरू किया । बहरहाल मानवता के लिए इसके खतरे बहुत अधिक थे क्योंकि प्रभुत्व सैन्य शक्ति के साथ ही आर्थिक और वैचारिक शक्ति पर भी निर्भर था । यूक्रेन पर 2022 के हमले के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूस को विश्व अर्थतंत्र के सांस्थानिक ढांचे से बाहर निकालने के लिए अप्रत्याशित कदम उठाये । इसमें विश्व मुद्रा के रूप में कार्यरत डालर की भी मदद ली गयी । इसके ही चलते चीन और अन्य शक्तियों ने वैकल्पिक राह खोजनी शुरू की ।
इस कशमकश में अमेरिका बिना लड़े अपना प्रभुत्व नहीं छोड़ेगा । नवउदारवादी वित्तीकरण की सांस कमजोर पड़ने के बावजूद इसका मुखिया अमेरिका अपार आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक संसाधनों पर कब्जा किए बैठा है । नतीजतन इसका प्रतिपक्षी गंठजोड़ भी आगामी वर्षों में सैनिक शक्ति हासिल करने की कोशिश करेगा । उसका प्रयास पारम्परिक हथियारों के साथ ही आणविक हथियारों के मामले में भी मजबूती हासिल करने पर होगा । इस वजह से ही मनुष्यता के लिए आगामी समय खतरों से भरा नजर आ रहा है ।
कोरोना के दौरान पूंजीवादी संबंधों की विफलता और राज्य की प्रमुखता के कारण सामाजिक प्रतिक्रिया भी देखने में आयी । शासकीय अधिकारियों ने विकसित देशों में शत्रुता और भय की भावना को जन्म दिया । यहां तक कि आम लोगों की स्वतंत्रता और अधिकारों पर बंदिश भी लगायी गयी । हाशिये के देशों में नागरिकों के जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा करने में राज्य की अक्षमता ने दूसरी तरह की प्रतिक्रिया को जन्म दिया । मीडिया पर कारपोरेट घरानों के कब्जे और एक ही किस्म की दमघोंटू बहसों की तीखी आलोचना भी विकसित देशों में हुई । इस तरह कोरोना जनित सामाजिक वातावरण बौद्धिक सरोकारों के केंद्र में रहा ।
दुर्भाग्य से संकट के इस वातावरण में पूंजीवाद की प्रखर विरोधी और ताकतवर आवाज होने के बावजूद वामपंथ कहीं नजर नहीं आया । पूंजीवाद की आलोचना प्रस्तुत करने से आगे जाकर वह कामगार लोगों के अनुभव पर आधारित क्रांतिकारी बदलाव का सपना खड़ा करने से चूक गया । कामगार लोगों की उम्मीदों, जरूरतों और आशंकाओं को सीधी सादी भाषा में व्यक्त करना भी उससे नहीं हुआ । विकसित देशों में मजदूरों और गरीबों के बीच वामपंथ की जड़ भी कमजोर हुई जिसके कारण राजनीतिक तूफान में वह अडिग न रह सका । नवउदारवादी वित्तीय पूंजीवाद की थकान और प्रभुत्व के लिए बढ़ते टकराव के माहौल में वामपंथ को नये प्रस्ताव करने होंगे । ऐसी आर्थिक रणनीतियों की जरूरत है जिसमें सरकारी निवेश की बदौलत रोजगार में बढ़ोत्तरी हो, तमाम कामगारों को सम्मानजनक आजीविका सुलभ हो और कर्ज तथा विषमता से राहत मिले । धन कुबेरों की संपत्ति पर उनके अधिकार को चुनौती दी जाए, निजी पर सामाजिक और व्यक्ति पर समूह की बरतरी के पक्ष में माहौल बनाया जाए । इनके लिए लोकतंत्र और जनता की संप्रभुता की फिर से स्थापना अत्यंत आवश्यक है । साथ ही शांति और समता के लिए सुसंगत संघर्ष भी चलाना होगा ।
इसी परिप्रेक्ष्य में वर्तमान किताब में वित्तीय संकट के बाद से ठहराव में कार्यरत शक्तियों की छानबीन विभिन्न अनुशासनों की नजर से की गयी है । इसमें मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का नजरिया अपनाया गया है लेकिन समकालीन पूंजीवाद को समझने की अन्य दृष्टियों से कोई परहेज नहीं बरता गया है । वामपंथ की राजनीतिक धारा को मजबूत करके उसका मुकाबला करना प्रमुख सरोकार है । पूंजीवाद के विरोध और उसको उखाड़ फेंकने के मकसद से राज्य, उसके निकायों, विभिन्न संस्थाओं समेत तमाम राजनीतिक पार्टियों की समीक्षा की गयी है । इसमें पिछले अनेक दशकों में पूंजीवाद के रूपांतरण पर उपलब्ध सामग्री से प्रचुर सहायता मिली है और सार्वजनिक स्तर पर मौजूद राजनीतिक कर्ताओं के बयानों की भी मदद ली गयी है । यह कार्यभार बहुमुखी और विस्तृत होने की वजह से संयुक्त ही हो सकता था । किताब सामूहिक लेखन का नतीजा है जिसमें बहुतेरे किस्म के ज्ञान और अनुभव को समवेत स्वर में बदला गया है । इसलिए समूची किताब की जवाबदेही भी सामूहिक रूप से स्वीकार की गयी है ।
किताब के तीन हिस्से हैं । पहले हिस्से में कोरोना के समाजार्थिक और राजनीतिक आयामों का विश्लेषण किया गया है । दूसरे हिस्से में समकालीन पूंजीवाद में कोरोना के दौरान देखी गयी राज्य की असाधारण भूमिका को परखा गया है । इसके तहत विकसित पूंजीवादी देशों में पूंजी संचय की प्रक्रिया का विवेचन करते हुए वित्तीय संकट के बाद उत्पादन की गिरावट और वित्तीकरण के बदलाव पर खास ध्यान दिया गया है । राज्य की भूमिका को राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के संदर्भ में तथा अर्थतंत्र पर राजकीय नियंत्रण के असर के लिहाज से देखा गया है । 2020 दशक की उथल पुथल केवल विकसित देशों तक ही सीमित नहीं रही और विश्व अर्थतंत्र में भी फैल गयी इसलिए तीसरे हिस्से में पूंजी संचय के अंतर्राष्ट्रीय आयामों पर ध्यान दिया गया है । इसके तहत विश्व अर्थतंत्र में कार्यरत वित्तेतर व्यवसाय, वित्तीय संस्थानों और राज्य की अंत:क्रिया का विश्लेषण हुआ है । लेखकों का मानना है कि वर्तमान आर्थिक गतिविधियों में प्रभुत्व और साम्राज्यवाद समाये हुए हैं तथा दुनिया भर में केंद्र और हाशिये के बीच विभाजन को लगातार परिभाषित कर रहे हैं । समकालीन पूंजीवादी प्रभुत्व और साम्राज्यवाद को अंतर्राष्ट्रीय उत्पादन और वैश्विक वित्त के आक्रामक गठजोड़ से सहारा मिल रहा है । इसी हिस्से में चीन और यूरोपीय संघ की ओर से प्रभुत्व के मामले में खींचातानी का भी वर्णन किया गया है । उपसंहार में वैकल्पिक समाजार्थिक और राजनीतिक तरीकों का जिक्र किया गया है जिससे वर्तमान ठहराव से बाहर निकलते हुए वाम की ओर गति हो । दुनिया को बदलने की ताकत कामगारों में है लेकिन उसके लिए सड़े गले पूंजीवादी संबंधों का खात्मा जरूरी है । इसके लिए इन संबंधों की सही समझ पूर्वशर्त है ।
गोपाल प्रधान
प्रो. गोपाल प्रधान अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापक हैं. उन्होंने विश्व साहित्य की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद , समसामयिक मुद्दों पर लेखन और उनका संपादन किया है