कुमार मुकुल
‘चिराग़-ए-दैर (मंदिर का दीया)’ मिर्ज़ा ग़ालिब की बनारस पर केंद्रित कविताओं का संकलन है जिसका मूल फारसी से सादिक ने अनुवाद किया है।
चिराग़-ए-दैर की कविताओं से गुज़रते लगता है जैसे बनारस ने ग़ालिब को भी अपने रंग में रंग दिया था –
‘बैठकर काशी में
अपना भूला काशाना (छोटा सा घर)
…आज / इस जन्नत में बैठे …’।
ग़ालिब बनारस को जन्नत पुकारते उसे अध्यात्म का सच्चा रास्ता बताते उससे मुँह ना मोड़ने की बात करते हैं।
अपने उर्दू दीवान के बाद ग़ालिब ने ज़्यादातर फ़ारसी में लिखा और उनका मानना था कि उनकी फ़ारसी शायरी के सामने उनकी उर्दू शायरी का मजमूआ बेरंग है। हम भारतीय ग़ालिब के उूर्द के अंदाज़-ए-बयां के दीवाने हैं पर सादिक साहब की मिहनत से हम उनकी फ़ारसी शायरी के इस आत्मीय रंग से परिचित हुए जो ज़्यादा भारतीय लगता है।
सादिक बताते हैं कि ग़ालिब की यह कृति कहानी-किस्से की मसनवी शैली में है जैसे जायसी की पदमावत मसनवी में है। ग़ालिब ने यह मसनवी अपनी जन्मभूमी, कर्मभूमी आगरा, दिल्ली पर ना लिखकर बनारस पर लिखी जहाँ अपनी कलकत्ता यात्रा के दौरान वे दो माह रूके थे।
ग़ालिब ने बनारस को दुनिया के दिल का नुक्ता कहा। बनारस पर मोहित होते ग़ालिब अपने एक मित्र को लिखते हैं कि ‘इस बुतखाने में बजाये जानेवाले शंखों की आवाजें सुनकर वे ख़ुशी महसूस करते हैं…अब उन्हें देहली की याद नहीं आती।’
साहित्यानुरागियों के लिए यह एक संग्रहनीय किताब है।
पुस्तक – चिराग़-ए-दैर
लेखक – मिर्ज़ा ग़ालिब
अनुवादक – सादिक
प्रकाशक – राजकमल, नई दिल्ली
मूल्य – 299
(कवि कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं. )
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