भटौली – इब्राहिमपुर, आज़मगढ़ / 14 अप्रैल 2019
आज़मगढ़ से करीब 22 किमी आगे जाने पर जीयनपुर बाज़ार से एक रास्ता अन्दर की तरफ़ कंजरा मोड़ की ओर जाता है. इसी बाज़ार के पास भटौली – इब्राहिमपुर गाँव में अंबेडकर जयंती की धूम 13 अप्रैल से ही दिखनी शुरू हो गई थी.
गाँव में जगह –जगह बौद्ध धर्म वाले नीले –पीले आयतनों वाले झंडो के अलावा बसपा के नीले झंडों से गाँव जाने वाली हर पेड़ की मोटी डाली अटी पड़ी थी. यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि इस गाँव का दलित टोला काफी बड़ा है और इसके अधिकाँश मवासे 1950 के दशक में दुर्गापुर स्टील प्लांट के शुरू होने के साथ ही उसके कार्मिक हो गये थे. जब अस्सी और नब्बे के दशक में उनकी पहली खेप रिटायर होकर अपने जवान होते बच्चों के साथ वापिस गाँव लौटी तो मेहनत से कमाई समृद्धि के अलावा बंगाली समाज के साथ रहने के कारण प्रगतिशीलता और लड़ाकूपन के संस्कार भी वे लेकर लौटे.
इस वजह से भटौली –इब्राहिमपुर दलित अस्मिता के लड़ाई के स्वाभाविक केंद्र के रूप में भी विकसित हुआ. यह वही गाँव है जिसके लड़ाकू नौजवानों ने विगत 2 अप्रैल 2018 को एससी -एसटी एक्ट में छेड़छाड़ के खिलाफ़ हुए संघर्ष में जमकर लोहा लिया था . भटौली –इब्राहिमपुर की पूरी जमीन दूर –दूर तक पके गेंहूं के सुनहरे खेतों की वजह से युरोपीय चित्रकारों के सुन्दर कैनवास जैसी दिख रही थी. तिस पर बीच-बीच में दिखते नीले –पीले झंडे बेहद सुन्दर कंट्रास्ट की निर्मिति कर रहे थे.
14 तारीख़ को बाबा साहब की 128वीं जयंती के उपलक्ष्य में दुपहर की धूप ख़त्म होते ही भटौली –इब्राहिमपुर के सभी टोलों से बाबा साहब की झांकी को घूमते हुए 2 किमी दूर कंजरा मोड़ बाज़ार पहुंचना था जहां बाबा साहब की मूर्ति पर माल्यार्पण के साथ जयंती को पूरा होना था.
अप्रैल की तेज घाम की वजह से जयंती के जुलूस के निकलने में थोड़ा व्यतिक्रम हुआ. जुलूस निकलते –निकलते शाम के पांच बज ही गए. पांच बजते ही गेहूं के पकी बालियों वाले भू द्रश्य के पीछे दूर से एक छोटी चौकी सी दिखाई पड़ी और उसके पीछे भीम युवा शक्ति और बाबा साहब के बड़े चित्र वाले पोर्ट्रेट के फ्रेम से सजी चार पहिया खुली गाड़ी जिसके अधिकाँश हिस्से को बड़े स्पीकरों और युवाओं के सक्रिय समूह ने कब्ज़ा कर रखा था.
गुम्बदनुमा छोटी चौकी वाली ट्राली के अंदर बाबा साहब के पोर्ट्रेट के अलावा बुद्ध का भी एक बेहद प्रशांत पोर्ट्रेट रखा था जिसके नीचे कई सारे दिए और सुगंध बिखेरती अगरबत्तियों की पतली सीकें बाबा साहब को अवतारी पुरुष सरीखा पेश कर रहीं थीं. 50 लोगों का शुरुआती जुलूस हरेक टोले से गुजरते हुए सीधे 100 फिर 150 और 200 -300 तक पहुँच गया. 14 तारीख की इस ढलती हुई दुपहरी में दो ही रंगों का जलवा था. खेतों में मेहनत से उपजाई फसल का पका सुनहरा रंग और जुलूस में चलते लोगों का नीला.
अधिकाँश औरतों ने नीली साड़ियाँ पहनी थीं, लड़कियों ने नीले सूट, लड़कों ने बाबा साहब के चित्र वाली नीली टी शर्ट और सबके माथे पर नीले अबीर का टीका. जूलूस की संख्या बढ़ते ही नारों के शोर की गूँज भी बढ़ती गयी. ‘जय –जय –जय –जय –जै भीम. ‘जय –जय –जय –जय –जै भीम’ सबसे ज्यादा बार दुहराया गया. दूसरे नारे इस तरह थे – ‘हम अम्बेडकरवादी हैं संघर्षों के आदी हैं’, ‘गाँधी जीवन दाता कौन – बाबा साहब बाबा साहब’, ‘नारी मुक्ति दाता कौन – बाबा साहब बाबा साहब’ . लेकिन ‘संविधान का निर्माता कौन – बाबा साहब बाबा साहब’ सबसे ज्यादा लगने वाला नारा था. नारों में तनी हुई मुठ्ठियाँ और गले से निकली आवाजें सिर्फ युवा लड़कों की नहीं बल्कि युवा किशोरियों की भी थी. ये जरुर था कि नाचने में थिरकते हुए पैर सिर्फ़ लड़कों के ही दिखे.
गाँव से निकलते –निकलते कंजरा मोड़ बाज़ार पर अंबेडकर मूर्ति के पास पहुँचते –पहुँचते अँधेरा हो चुका था और अब नारों की गति और आवाज़ और तेज हुई. दलित पैथर के बुजुर्ग साथियों ने अंबेडकर की मूर्ति की साफ़ –सफाई करने के बाद माल्यार्पण किया जो एक तरह से 14 अप्रैल जयंती का आधिकारिक समापन भी था. इसके साथ ही युवाओं ने समापन को सैल्यूट देते हुए तेजी से पिरामिड बनाया और बाबा साहब के पोर्ट्रेट और संविधान की प्रति के रेप्लिका को हवा में लहराकर जनमानस की वाहवाही लूटी.
करतल ध्वनि के बीच पिरामिड का यह क्रम एक दूसरे समूह द्वारा फिर दुहराया गया. अभी जब भटौली –इब्राहिमपुर के लोग वापिस गाँव लौटने की सोच ही रहे थे कि दूसरे गाँव से आई झांकी ने जयंती की धड़कन को और गति दी. इस समूह ने थोड़ी और कल्पनाशीलता का परिचय देते हुए दो किशोरों को बाबा साहब और बुद्ध के लाइव इंस्टालेशन के रूप में पेश कर युवाओं का खासा ध्यान खींचा. थोड़ी देर में नए गाँव से आई झांकी सेल्फी पॉइंट में बदल चुकी थी और कई जोड़े हाथ सेल्फियों को कैद करने में व्यस्त थे.
भटौली –इब्राहिमपुर के लोगों में गाँव वापिस लौटने की हड़बड़ी अब दिखने लगी थी क्योंकि उन्हें अब न सिर्फ 1000 लोगों के सामूहिक भोज को अंजाम देना था बल्कि देर रात भोज के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम को भी सम्पन्न करना था जिसके लिए छोटे बच्चे-बच्चियां और किशोर कई दिन से अभ्यास कर रहे थे.
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