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चुनाव के छल-प्रपंच: मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार!

पुस्तक- चुनाव के छल प्रपंच

लेखक – हरजिंदर (प्रतिष्ठित पत्रकार, समाज के गंभीर मुद्दों को उजागर करने के लिए प्रयासरत)

प्रकाशन – नवारुण

क्या आने वाले समय में भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से लुप्त हो जाएगा? या हम लोकतंत्र को बचाना ही नहीं चाहते? क्या सोशल मीडिया भी फ़ेक न्यूज़ के प्रसार में मदद करता है? क्या चुनाव का कारोबार भी होता है? क्या फ़ेक न्यूज़ और अफ़वाहों का उपयोग करके चुनाव जीतना नैतिक रूप से सही है? कई सवालों को उकेरने वाली एक किताब हमारे बीच आ चुकी है जिसका नाम है चुनाव के छल-प्रपंच।

इस किताब को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं समाज को देखने का एक अलग नज़रिया बना रही हूँ। इससे मेरी समझ में कई सवालों के जवाबों के साथ नए सवाल भी जुड़ गये।

इस किताब में लिखे अध्याय पढ़कर यह उत्तेजना होती है कि इस विषय पर और किस तरह से सोचा और समझा गया होगा। शीर्षक कुछ इस प्रकार के हैं – “यंत्र जिसने राजनीति का मंत्र बदल दिया,” “खिलौना जब स्मार्ट हुआ,” “चुनाव का कारोबार,” “किसे परवाह है नैतिकता की” आदि।

पुस्तक की शुरुआत झूठी खबरों की परिभाषा और उसके इतिहास से होती है। झूठी खबरें मतदाताओं की सोच को प्रभावित करती हैं और चुनावी नतीजों को बदल सकती हैं। लेखक ने जटिल और महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया है कि झूठी खबरें और अफ़वाहें नई बात नहीं हैं, बल्कि आज की तकनीक और सोशल मीडिया जैसे व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक, लिंक्डइन, ट्विटर के विस्तार ने इसे और भी विस्तृत और जटिल बना दिया है। यहां तक कि लाउडस्पीकर, पेंफ्लेट्स और सोशल मीडिया के ज़रिए भी लोगों का ब्रेनवॉश किया जा रहा है।

हम अपने भारत में देख ही रहे हैं कि किस तरह चुनाव जीते जा रहे हैं। जर्मनी में हिटलर का उदाहरण लूं तो वह लोगों के दिलों में जगह बनाकर और बाद में उन्हें अपने कदमों में गिरा देता था। इसी प्रकार, भारत में मंदिर, जाति, धर्म, विश्वास, श्रद्धा पर वार करके लोगों के मन में जगह बनाकर उन्हें अपने प्रभाव में लाया जा रहा है।

फ़ेक न्यूज़ तो आग की तरह फैलती है और उस आग में घी डालने का काम करती है सोशल मीडिया, अख़बार और कई टीवी चैनल। लेकिन जो जटिल और गंभीर विषय होते हैं, उन्हें दफ़न कर दिया जाता है, न ही उस विषय पर बात होती है, न ही कार्यवाही।

एक जटिल विषय को भारत में यूं दफ़नाया गया कि उसे उकेरने के लिए व्यक्तिगत प्रयास करना बहुत जोखिम भरा काम है। उदाहरण के लिए, 2015 में हुए निर्भया बलात्कार मामले पर बनी डॉक्यूमेंट्री “India’s Daughter” को बैन कर दिया गया यह कहकर कि उसमें एक अभियुक्त का इंटरव्यू था। क्या यह असल कारण था या सरकार पर कोई बात न जाए, इसलिए इसे बैन किया गया? क्या इसके पीछे भी चुनाव शामिल हैं? यह तो केवल एक केस है, न जाने हर दिन ऐसे कितने क्राइम होते हैं। कुछ क्राइम दर्ज़ हो जाते हैं, कुछ छिप जाते हैं, तो कई छिपा दिए जाते हैं।

इस प्रकार के कई मुद्दों और विषयों पर बात रखने की प्रेरणा और हिम्मत इस पुस्तक से प्राप्त हुई।

चुनाव के इन छल प्रपंचों से हमें न केवल बचना चाहिए बल्कि अपने संविधान के नज़रिए से अपनी सोच को भी बदलना होगा। मुझे, आपको, और हम सबको! हमे इन झूठी खबरों और समाज की जंजीरों को तोड़ सच को देखने का नज़रिया लाना होगा!

पुस्तक समीक्षक आयशा कौर नानकमत्ता पब्लिक स्कूल की कक्षा ग्यारहवीं की छात्रा हैं और पढ़ने-लिखने में ख़ास रुचि रखती हैं।

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