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साधारण लोग असाधारण शिक्षक: निराशा के कुहासे को काटती कहानियाँ

प्रतिभा कटियार


सरल होना इतना कठिन क्यों होता है आखिर? सीधी सी बात होती है फिर वह भाषा के जाल में उलझकर क्यों एक पहेली सी लगने लगती है? ऐसे सवाल मन में हमेशा चलते रहे. जिन लोगों ने अपने जीवन में असाधारण काम किये वो जीवन में कितने साधारण रहे होंगे यह बात भी मन में चलती रहती थी. शायद यही कारण रहा कि दुनिया में असाधारण काम करने वालों की जीवनियों, पत्रों और डायरियों ने मुझे ज्यादा आकर्षित किया. यकीन मानिए उनके असाधारण दिखने वाले कामों की राह एक साधारण सी कच्ची पगडंडी से गुजरती हुई ही मिली. यही वो कच्ची पगडंडी है जिस पर चलते हुए असाधारण और साधारण के बीच के फासले सिमटते नज़र आते हैं. दुनिया असल में सादा, सरल और साधारण चीज़ों, बातों और लोगों ने ही सहेजी हुई है.

ऐसी ही दुनिया का दरवाजा खुलता है एस. गिरिधर की किताब ‘साधारण लोग असाधारण शिक्षक’ के पन्ने पलटते हुए. यह किताब सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की कहानियां हैं. कहानी को फिक्शन के तौर पर लेना भ्रमित कर सकता है इसलिए यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ये हर्फ-दर-हर्फ सच्ची कहानियां हैं. इस किताब के पन्ने पलटते हुए उम्मीद की लौ दिपदिपाती हुई मिलती है जो अपने समुच्चय में रौशनी में तब्दील होती है. इस किताब में अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे तकरीबन 40 शिक्षकों की कहानियां हैं जो सरकारी शिक्षा को लेकर छाए उदासीनता और नकारात्मकता के कोहरे को छांटती हैं.

किताब के पांच खंड हैं. अगर इन पांच खंडों को ध्यान से देखें तो यह बात समझ में आती है कि क्या है जो बेहतर स्कूल और बेहतर शिक्षण के चक्र को पूरा करने के लिए जरूरी है. हर खंड से पहले उस खंड की प्रासंगिकता दी गयी है. पहला खंड है ‘सीईओ की भूमिका में हेड टीचर’. इस खंड के बारे में लेखक लिखते हैं कि ‘स्कूल के रोजमर्रा के प्रबन्धन से लेकर स्कूल की जरूरी प्रक्रियाओं पर नज़र रखना, मिसाल के लिए सुबह की सभा, लाइब्रेरी का रख रखाव व इस्तेमाल, बच्चों के सीखने के लिए पोर्टफोलियो बनाने की बारीक़ तैयारी और शिक्षकों के साथ उनकी समीक्षा करने तक, हेड टीचरों के ऊपर कठिन जिम्मेदारियां होती हैं लेकिन इन नियमित जिम्मेदारियों से आगे जाते हुए और असाधारण ऊर्जा व नेतृत्व का प्रदर्शन करते हुए ये अपने स्कूल से जुड़े हर पहलू को अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी की तरह देखते हैं.’
किताब का दूसरा खंड है ‘विचारशील प्रैक्टिशनर-ताउम्र सीखते रहने की प्रतिबध्धता.’ तीसरा खंड है, ‘समता और गुणवत्ता- क्लासरूम में होती है इनकी शुरुआत.’ चौथा खंड है ‘सामूहिक कामकाज- एक बड़े लक्ष्य का आकर्षण’ और पांचवा खंड है ‘नायक-जो किसी रुकावट को नहीं मानते.’ हर खंड के भीतर शिक्षकों की यात्राएँ हैं, अनुभव हैं उनकी वो प्रक्रियाएं हैं जिनसे उनके स्कूल के हालात बदले. वो शिक्षण प्रक्रियाएं हैं जिनसे बच्चों का सीखना आनन्दमयी भी हुआ और बेहतर भी.

इस किताब को पढ़ने से पहले मन में यह सवाल आ सकता है कि आखिर ये कहानियां क्यों पढ़ी जानी चाहिए क्या होगा इनको पढ़ लेने से? इतने बड़े देश में जहाँ लाखों शिक्षक हैं (सिर्फ सरकारी विद्यालयों के) वहां इन चुने हुए 40 शिक्षकों की कहानियां क्या कर लेंगी? इनसे क्या हो जाएगा? ज़ेहन में उठते इन सवालों के जवाब भी इस किताब में पन्ना-दर-पन्ना मिलते जायेंगे. क्यों पढ़नी चाहिए ये कहानियां का जवाब ‘क्यों कही जानी चाहिए ये कहानियां’ शीर्षक से अनुराग बेहार की टिप्पणी में आसानी से मिल जाता है. अनुराग बेहार लिखते हैं कि ‘अगर हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को वाक़ई बुनियादी तौर पर बदलना चाहते हैं तो हमें शिक्षकों की मानवीय सकारात्मकता को उसके शिखर तक ले जाना होगा. इससे हमारे देश का चेहरा ही बदल जायेगा. वह चेहरा कैसा होगा इसकी एक बेहतरीन झलक इस किताब में मिलती है.’

जिस तरह किताब के पांच खंड महत्वपूर्ण आयामों की बात करते हैं जिनके अंतर्गत इन कहानियों को संजोया गया है उसी तरह अगर हम हर कहानी से पहले के शीर्षकों को ध्यान से देखें तो भी एक मुक्कमल होती तस्वीर नज़र आती है. कुछ शीर्षकों पर नजर डालते हैं, ‘यह महज़ कोई सरकारी नौकरी नहीं. हम यहाँ ब्लॉक का सबसे बेहतर स्कूल बनाने आये हैं.’ ‘दशमलव, भिन्न आप कोई भी काम कहिये, इस स्कूल के बच्चे सब जानते हैं’ ‘हमारे बच्चों के सीखने का स्तर बढ़िया है और उनमें स्वतंत्र रूप से सीखने की क्षमता है- यह कहना है उस व्यक्ति का जो टैक्सी चालक से एक बेहतरीन शिक्षक बना’’ ‘अगर मुझे यह सुनिश्चित करना है कि मेरे बच्चे सीखने तो मुझे ख़ुद भी सीखना होगा’.

किताब के लेखक गिरिधर ने बहुत मेहनत से अलग-अलग भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेशों में स्थित इन स्कूलों को करीब से देखा, शिक्षकों की चुनौतियों को समझा, महसूस किया और उनकी यात्रा में मिली उम्मीद की किरणों को दर्ज किया. गिरिधर इस किताब की यात्रा की बाबत लिखते हैं, ‘शिक्षकों के साथ मेरी बातचीत से उनकी ज़िन्दगी, उम्मीदों, परेशानियों व निराशाओं की जीवंत तस्वीर देखने को मिली. मैंने इन शिक्षकों के काम का अवलोकन किया और शिक्षा के बारे में उनके नज़रियों को जानने और इन नज़रियों के जरिये वे कक्षा में बराबरी तथा गुणवत्ता में बदल पा रहे हैं या नहीं यह समझने की कोशिश की.’

यह किताब एक दस्तावेज़ है जिसमें समाहित रौशनी लम्बे समय तक निराशा के कुहासे को काटती रहेगी. उन शिक्षकों को राह दिखायेगी जो कुछ बेहतर करना तो चाहते हैं लेकिन उन्हें कोई राह नहीं सूझ रही.

पुस्तक- साधारण लोग, असाधारण शिक्षक- भारत के असल नायक. लेखक: एस. गिरिधर
मूल्य- 299 रु
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन

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