अर्चना लार्क
कवि अनामिका अनु का कविता संग्रह ‘इंजीकरी’।
बिल्वपत्र’ सरीखी इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं कि पाठक का धीरे धीरे रचना से साधारणीकरण होने लगता है। गझिन दुःख नरम पड़ने लगते हैं।
इनकी कविताओं में भाषा और कथ्य की विविधता है। इस संग्रह के अंदर निहित कविता उनके भाव बोध और कवि की रचनात्मक यात्रा कितनी दुर्गम, कितनी सुगम, कई भावलक्ष्यों को पूर्ण करती कविताएं हैं।
कवि अपने हर कहन में पाठक को चौंका जाती हैं, कि इस बात को ऐसे भी सोचा जा सकता है!
‘इंजीकरी ‘कविता संग्रह से गुजरते हुए कवि के बिंब संयोजन की सुंदर झलक देखी जा सकती है।
यही नहीं हिंदी साहित्य को समृद्ध करते नए शब्दों का अंकवार भर स्वागत करने को जी चाहता है।
कुछ कविताएं डिक्शनरी खोलने के लिए बाध्य कर सकती हैं। यहां शब्दों का नया गढ़न है। नया शिल्प है। निराला सौंदर्यबोध है।
कुछ कविताओं में कवि अनामिका अनु, प्राचीन कथाओं की यात्रा से होते हुए आधुनिक यात्रा तय करती जान पड़ती हैं।
ये कविताएं ठहरकर पढ़ने को बाध्य करती हैं।
‘इंजीकरी’ कविता संग्रह पुल्ली – इमली के स्वाद सरीखा है। जिसमें अदरक, पुल्ली गुड़, नमक, मिर्च सब होता है। कहीं खटास, मीठापन, नमक, तीखापन, अदरक की कड़वाहट है तो कहीं बेहतर स्वाद। जहां कोई स्वाद मरता नहीं। उसी तरह ‘इंजीकरी’ कविता संग्रह की कविताएं अपने भाव, रूप, संवेदना में नए कलेवर के साथ स्पष्ट होती हैं।
कहते हैं कितनी भी खाने की चीज़ बना लो ‘इंजीकरी’ के बिना भोजन पूर्ण नहीं माना जाता है।
कई विचार, कई भाषा वैभव और कई भौगोलिक परिस्थितियों को जी रहे लोग, जब लिख रहे होते हैं वे एक साथ समय की वैचारिकी, समय की भाषा गढ़ रहे होते हैं, बिना किसी का स्वाद मारे, एक साथ।
जीवन आंच पर धीरे धीरे एक साथ पकते हुए।
बहुलता, भाषा को वैभव, विचार और शक्ति देती है।
अनामिका अनु की कविताएं, कहीं एक एक करके जीवन के परत को संजोती सी हैं तो कहीं नकारती फटकारती भी हैं। पर जीवन की इस कहासुनी में वो अपनी संतुलित भाषा शैली, शिल्प से भटकती नहीं हैं।
‘क्षमा’ कविता की कुछ पंक्ति –
तुमने पाप मिट्टी की भाषा में किए
मैंने बीज के कणों में माफी दी
तुमने पानी से पाप किए
मैंने मीन सी माफी दी
तुम्हारे पाप आकाश हो गए
मेरी माफी पक्षी
तुमने गलतियां गिनतियों में की
मैंने बेहिसाब माफी दी
तुमने टहनी भर पाप किए
मैंने पत्तियों में माफी दी
तुमने झरनों में पाप किए
मैंने बूंदों में दी माफी
इसी कविता में अंत में कवि लिखती हैं –
तुम्हारे पाप से बड़ी होगी मेरी क्षमा
मेरी क्षमा से बहुत बड़े होंगे
वे दुःख…
जो तुम्हारे पाप पैदा करेंगे।
शब्दों का चुनाव, विषय के अर्थ गांभीर्य को सहेजती हुई कविता। न जाने कितने पहलुओं पर सोचने पर मजबूर करती हुई कविता।
अनामिका अनु जी कई बार लगता है कविताओं को लिखने के लिए किसी कोने में बैठ गई हैं और लगातार चिंतन कर रही हैं, इनकी कविताओं में चिंतन और उससे उपजे विचार अति महत्त्वपूर्ण हैं।
लिखती हैं –
‘मास्को में है क्या कोई बेगूसराय?’
कल जब राजेश्वरी मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर
याद कर रही थी मां को
तो बिंदुसर सरोवर में खिल गए
लाल कमल
जब घर को याद किया
तो वह तिरहुत नागर शैली में
खड़ा कोई मंदिर लगा मुझे
खटांस खिखिर, सारण, लालसर
बगेरी, पंडुक्की
कैथी की तरह विलुप्त हो गए
कल तिलकोर के पत्ते
पर पीठार लगा रही थी रमा
मैंने महसूस किया
उन हथेलियों की भंगिमा
और उसका रंग तुमसे मिलता जुलता है मां…
कवि की कविता से जब आप और समृद्ध होने लगें तो आप कविताई मंतव्य के गहरे मन तक पहुंच जाते हैं।
अनामिका अनु की कविताएं पाठक को गहराई पर उतारती है, सोचने पर मजबूर करती है।
इसी कविता के अंत में लिखती हैं और सवाल करती हैं।
सलीम चिड़ियों के बारे में
कितना जानते थे
तुम प्रेम के बारे में क्या जानते हो?
बिहार का मास्को है बेगूसराय
मास्को में है क्या कोई बेगूसराय?
कवि अवसाद के बारे में लिखती हैं पर उससे घिरी नहीं रहती हैं। अवसाद में होते अवसाद से बाहर निकलने का रास्ता निकाल लेती हैं –
ज्यों ज्यों रिक्त गहरा होता है
और अंधेरा बढ़ता है
दीवारें पहले से ज़्यादा अभेद्य हो जाती हैं..
फिर लिखती हैं –
इससे पहले कि उन दीवारों के भीतर
अवसाद की कंटीली झाड़ियां उग आए
सांपों की नस्लें फुफकारें
विष के चढ़ने के ठीक पहले
मुझे ढहानी होगी दीवारें
वे अभेद्य किले
भरना होगा उस रिक्त को
कविता से
या फूलों की खेती से।
अनामिका अनु की कविताएं दुःख में उलझती नहीं जाती उससे बाहर निकलने के लिए परामर्श सी करती नज़र आती है।
‘जी नहीं रहे जनाब थेथरई कर रहे हैं’
लिखते हुए कवि, रेणु जी की रसप्रिया को याद करती हैं।
लिखती हैं-
सबकी सुनकर मर जाएगा
आदमी अगर थेथर न हो
तो क्या जी पाएगा?
एकाएक कवि को रसूल का गांव याद आता है.
तो कभी न्यूटन का तीसरा नियम।
कहती हैं क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है
और हम विपरीत दिशा में चलने लगे..
‘माई लाई गांव की बच्चियों की कब्र’
इस कविता को पढ़ते हुए रोम रोम सिहर जाता है। एक करुण पुकार कंठ में अवरुद्ध होने लगता है।
कुछ बच्चियां शिन्ह पेंटिंग बन गई
कुछ फूलों की क्यारियां
कुछ प्राचीन लाल टाइलों वाली छत
और दीवारें..
इंजीकरी कविता संग्रह से कविताएं पढ़ते हुए पाठकों को यात्रा पर होने का अनुभव हो सकता है।
कभी अरुणाचल की बात तो कभी इराकी लड़की का दर्द, तो कभी कोच्चि फोर्ट के माध्यम से यीशु की बात करती हैं।
समकालीन स्थितियों से चिंतित कहती हैं-
असभ्यों की भीड़ से एक को चुनकर
सभ्यों की जमात में खड़ा कर दो
और पूछो तुम्हारा स्टेटस क्या है?
‘बिखरी कविता’ में कुछ बिखरा नहीं, सब सही जगह पर सटीक बातों के बीच एक पूरा अनुभव दिखता है।-
‘बढ़ते नाखून को काटना होता है
बढ़ोत्तरी हमेशा सुखद नहीं होती
झड़ रहे दांत और बाल
बता रहे हैं
सब्र सिर्फ जुड़ने नहीं
बिछड़ने का भी नाम होता है।
आज का दौर सफल, असफल, गढ़न, अनगढ़; जहां सौंदर्यबोध अपना अलग कॉर्नर पैदा कर रही हो वहां इस कविता की दरकार मालूम पड़ती है कि –
तुम अनगढ़ कितने सुंदर लगते हो
मुचड़े कपड़ों में कितने प्यारे लगते हो
जब लिख रहे होते हो
मुझे ख़ुदा लगते हो
एक मजार सा आलम बन जाता है आसपास..!
‘भूख बीनती लड़कियां’ कविता में जो बिंब आया है उससे किसी कवि की तुलना ही नहीं। मर्म को छू जाने वाली पंक्ति जब वो कहती हैं –
‘आंखों का खोपड़ियों से टपककर छातियों पर चिपकना’
मैं देह में खौलते बुलबुले देखती हूं
मैं देखती हूं
बुझते बाज़ार में
दहकती भूख बीनती
प्यास को नाली के पास बहाकर
सोती कई लड़कियों को..!
कवि को वर्तमान की चिंता लगी हुई है निरंतर, वो अपने शब्दो में फिर भी नहीं खीझती, वो संवाद करती हैं। स्त्री अपने हक को सावधानी से बिना झगड़े के भी मांग सकती है मांगती ही है। ये कवि बताती हैं कि स्त्री को अब दालान, विश्व विद्यालय , पुस्तकालय, नौकरी की अहमियत समझ आ गई है।
‘मुझे दालान दे दो’ कविता में लिखती हैं –
मुझे दालान चाहिए
मैं बदले में आंगन दे दूंगी
मुझे बैठकी चाहिए
बदले में रसोई ले लो
उपला, गोबर तुम ले लो
मुझे मोटरसाइकिल दे दो
मुझे खेत जोत दे दो
तुम भगवती घर और तुलसी चौरा रख लो
मुझे विश्व विद्यालय दे दो
विवाह तुम रख लो
मुझे पुस्तकालय दे दो
पार्लर तुम रख लो।
इसी के साथ जब लिखती हैं कि
‘लड़कियां जो दुर्ग होती हैं’
धर्म को ताक पर रख चुकी लड़कियां
स्वयं पुण्य हो जाती हैं
और बताती हैं –
पुण्य! कमाने से नहीं
खुद को सही जगह खर्च करने से होता है
वे न परंपरा ढोती हैं
न त्यौहार
वे ढूंढती हैं विचार
वे न रीति सोचती हैं
न रिवाज़
वे सोचती हैं आज
नई तारीख़ लिखती
इन लड़कियों की हर यात्रा तीर्थ है
जाति, धर्म और परंपरा पर
प्रवचन नहीं करने वाली
इन लड़कियों की रीढ़ में लोहा
और सोच में चिंगारी होती है
ये अपनी रोटी ठाठ से खाते वक्त
दूसरों की थाली में नहीं झांकतीं
ये रेत के स्तूप नहीं बनातीं
क्योंकि ये स्वयं दुर्ग होती हैं।
ऐसी तमाम स्त्री संदर्भित इस संग्रह की कविता में, स्त्री विमर्श की सूक्ष्म अर्थ दृष्टि कमाल की है। जो बिना ललकारते चोट कर रही है। अधिकार की चोट वही उचित जो अंदर तक बेध सके।
अनामिका अनु की कविताओं में एक बार रम जाओ तो जल्दी निकल नहीं सकते। बड़ी देर तक मन मस्तिष्क में ठहरती हैं। दूर से आती आवाज़ जो धीरे धीरे सहेली सी लगने लगती है। कवि को ‘इंजीकरी’ कविता संग्रह के लिए बहुत बधाई।
कविता संग्रह: इंजीकरी
कवयित्री: अनामिका अनु
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
मूल्य -₹ 450/
(विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक), पी एच डी ( इंस्पायर अवार्ड ), 2020 भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार. देश भर की कई पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्पर्क: anamikabiology248@gmail.com