समकालीन जनमत
कहानीपुस्तक

हाशिये के यथार्थ को व्यक्त करती कहानियाँ

रामनरेश राम 

लालबहादुर जी से मेरा परिचय तब हुआ जब 2019 में विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुआ . शुरू में कहानीकार लालबहादुर जी से मेरा परिचय एक कर्मचारी के रूप में हुआ लेकिन प्रो राजेश मल्ल जी के माध्यम से गोरखपुर के बौद्धिक और सांस्कृतिक वातावरण के संस्मरण सुनने के दौरान लालबहादुर जी के एक नए वक्तित्व से परिचय हुआ कि वे कहानीकार भी हैं. फिर तो गोरखपुर में रिहाइश के लिए चल रही जद्दोजहद के दौरान किराये के माकन की तलाश ने मुझे उनके घर तक पहुँचा दिया.

वे बड़े आत्मीय और सरल स्वभाव वाले लगे. इसके बाद तो गाहे-बगाहे साहित्यिक सांस्कृतिक गोष्ठियों और गतिविधियों में उनसे मुलाकात का शिलशिला शुरू हुआ लेकिन ये मुलाकातें बहुत हद तक औपचारिक ही रहीं. दिल्ली से गोरखपुर आने के बाद मेरा मन दिल्ली की सांस्कृतिक और बौद्धिक आबो-हवा को खोजता रहा. इसीलिए मैं लगातार उत्सुक बना रहा कि आखिर यह शहर  इतना सांस्कृतिक विरानेपन को कैसे ढो रहा है. जरुर यहाँ लोग होंगे और अपने समय और समाज के बारे में सोचते और लिखते पढ़ते होंगे.

जब से मुझे यह जानकारी हुई थी कि लालबहादुर जी कहानियाँ लिखते हैं तब से किसी ऐसी गोष्ठी की योजना बनाता रहा हूँ जिसमें उनकी कहानियों पर सघन बातचीत हो. पहले कई बार अपना यह मंतव्य उनसे साझा कर चुका था, लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था. अचानक मैंने अशोक चौधरी और मनोज सिंह से कहा कि लालबहादुर जी की कहानियों पर बातचीत रखी जाय, वे लोग सहर्ष तैयार हो गये और फिर लालबहादुर जी की अनुमति लेकर घरेलू गोष्ठी श्रंखला की पहली कड़ी में उनकी कहानियों पर चर्चा का प्रस्ताव रख दिया. यह गोष्ठी आज मूर्तिमान हो रही है.

कहानी पर बात करना कविता के मुकाबले थोड़ा कठिन है. क्योंकि साहित्य की दुनिया में कविता की व्याप्ति ज्यादा है. इसका इतिहास भी है. ऐतिहासिक रूप से कहानी कविता के मुकाबले हाशिये पर रही है. इसके कई कारण हैं .

पहला तो यही कि कहानी का इतिहास कविता की तुलना में बहुत नया है. कहानी का जन्म भी आधुनिक काल की देन है जबकि कविता तो आदिम है इस लिहाज से कविता कहानी की नानी की तरह है. शायद यही कारण है कि कवि की तुलना में कहानीकार को वह प्रतिष्ठा हाशिल नहीं हो पाती है.

मेरा मकसद इस बहस को विस्तार देना नहीं है, बल्कि कहानियों पर चर्चा करना है.

हमारा समय साहित्यिक विधाओं की विविधता का समय है. एक समय में अनेकों विधाएं और एक ही विधा के भीतर अनेकों धाराओं का भी समय है. उसकी अरह कहानी विधा में भी कई धाराएँ हैं.

शिल्प और शैली के स्तर पर कहानियों में खूब प्रयोग चल रहे हैं. कहीं नैरेटर गायब है तो कहीं नैरेटर आगे-आगे चल कर पाठक को कथ्य से परिचित करा रहा है. कहीं-कहीं तो वह खुद कहानी में पात्र की तरह अपनी भूमिका अदा कर रहा है और खुद कहानी की विषय वस्तु को गति दे रहा है.

लालबहादुर जी की कहानियों पर जो भी राय रखूँगा वह उनकी कुछ चुनिन्दा कहानियों के ही आधार पर रखूँगा. उनकी दो कहानियाँ पढ़ी हैं. पहली है रैली और दूसरी हलचल. सबसे पहले यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि दोनों कहानियों पर स्वतंत्र रूप से बातें करूँगा. समग्रता में बाद में.

एक एक कहानी पर बात करने का लाभ यह होता है कि कहानी पर कहानी विशेष के महत्त्व और उसकी सीमा को रेखांकित किया जा सकता है. रैली कहानी से अपनी बात शुरू करता हूँ. यह कहानी वागर्थ में छपी है. कहानी को समझने के लिए उसकी जमीन को समझना जरुरी लगता है.

इस कहानी की जमीन भारतीय समाज का वह हाशिया है जिसकी नागरिकता तो है लेकिन नागरिकता की निशानी गायब है. यूँ कह सकते हैं कि कहानी की जमीन विस्थापित नागरिकता की जमीन है. कहानी का पहला ही पैराग्राफ इसकी ताईद करता है-

‘उसे नहीं मालूम उसका नाम क्या है. कोई कागज पत्र नहीं है उसके पास. वह पढ़ी-लिखी नहीं है. कभी स्कूल नहीं गयी है, देखा भर है सड़क पर से. उसका बैंक, पोस्ट ऑफिस में खाता भी नहीं है. न कोई जमीन है,  न घर.’

यह कहानी एक बार पढने पर लगती है कि एक ऐसे परिवार की कहानी है जो राजनीतिक लोकतंत्र की चालबाजी का शिकार हुआ है, जिसमें राजनीतिक दल लोगों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए पैसे देकर अपनी रैली का हिस्सा बनाते हैं और बाद में उनका वोट लेकर उन्हीं के खिलाफ नीतियाँ बनाकर उनके घरों से उनको विस्थापित कर देते हैं. और लोग अपनी ही जमीन और देश में निर्वाशन का जीवन जीने को अभिशप्त हो जाते हैं. यही तो इस कहानी में भी होता है कि एक राजनीतिक दल के लोग आते हैं और निम्मी और मंकी को रैली में चलने के लिए पैसा देकर चले जाते हैं और अगले दिन निम्मी और मंकी रैली में जाते हैं. वहां से लौटने पर देखते हैं कि उनका आशियाना उजड़ा हुआ है. अंततः वे निर्वासित हैं. लेकिन मैं कहूँगा हे पाठक ! यहाँ थोड़ी देर के लिए रुकिए और कहानी को फिर से पढ़िए और आप पाएंगे कि इस कहानी के भीतर ही एक समानान्तर कहानी चल रही है जिसे आप सुविधा की दृष्टि से निम्मी की जीवन कथा भी कह सकते हैं.

यह कहानी मुश्किल से पांच दृश्यों की कहानी है जिसमे सबसे अधिक दृश्यों में निम्मी और उसका जीवन दिखाई देता. आप कह सकते हैं कि यह तो कहानीकार के मूल मंतव्यों को पूरा करने का टूल मात्र है , लेकिन मैं कहूँगा कि ऐसे निर्णय पर पहुँचाना कहानी के साथ या कि निम्मी के साथ अन्याय होगा. ऐसे में यह कहानी राजनीतिक कथा के साथ साथ सामाजिक कथा भी है. जहाँ राजनीतिक सत्ता की मुलायम क्रूरता के साथ साथ सामाजिक सत्ता के एक रूप पितृसत्ता की भी क्रूरता की कहानी है.

जब आप निम्मी को केंद्र में रखकर कहानी को पढ़ते हैं तब वह दरवाजा खुलता है जहाँ एक स्त्री की इच्छा बचपन से ही मानवीय संवेदना के परिसर से बाहर दिखती है. यह निम्मी ही है जो अपने पहले पति से लोहे की राड से मार खाती है.

मेले में अपनी माँ के साथ जाती तो है लेकिन पूरे मेले में घूमने की उसकी इच्छा घुटती रहती है. यह निम्मी ही है जो अपनी दादी को अपने ही दादा के द्वारा बेरहमी से पिटती हुई देखती है और अचानक उसके मन में आता है कि काश वह बड़ी होती तो उसी डंडे से अपने दादा जी को खूब पीटती लेकिन विडम्बना देखिये कि बड़ी होने पर वह अपने विवाहित पति से खुद ही पिटती है. किसी तरह का कोई प्रतिकार नहीं कर पाती. इसलिए मेरा यह प्रस्ताव कि कहानी को केवल कहानीकार के लक्ष्य से नहीं पढ़ना चाहिए. ऐसा करने से कहानी के अर्थ विस्तार की संभावना ख़त्म या सिमित हो जाती है.

मंकी का जिस तरह से कहानीकार ने चित्रण किया है वह निहायत ही शरीफ़ और संवेदनशील पात्र है. आश्चर्य है कि कहानीकार ने मंकी के प्रति भाषा के स्तर पर बहुत आदर बक्शा है। कहानी का वह दृश्य देखिये जब कहानीकार मंकी के संवेदनशील व्यक्तित्व को अपनी भाषा के माध्यम से उभरता है- ‘मंकी ठेला लेकर आते कुछ देर रुकते, बर्गर-बर्गर कहते फिर चले जाते’. निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि के पात्रों के साथ यह बर्ताव कहानीकार को विशिष्ट पहचान दिलाता है।

साहित्य की विधाओं का ही विकास नहीं हुआ है बल्कि उसको पढने की अनेकों प्रविधियों का भी विकास हुआ है. इसी लिए कह रहा हूँ कि अगर कहानी का प्रस्थान बिंदु निम्मी बनेगी तो कहानी का अर्थ भी बदलेगा या विस्तार होगा. इस नजरिये से कहानी निम्मी की है. लेकिन निम्मी एक सामाजिक प्राणी है उसका भी सार्वजनिक जीवन जीवन है जिसमे राजनीति भी आती है. इसलिए इस कहानी की राजनीतिक जमीन में वह भी शामिल है. संविधान और न्यायालय के न्याय से परे विकास के बुलडोजर के न्याय ने हमारे लोकतंत्र की आधारशीला को ही नष्ट कर दिया है.

अब नागरिक एक वोट में बदलता जा रहा है. वह उस मशीन का हिस्सा होता जा रहा है जो मनुष्य को उसकी मानवीय गरिमा और प्राकृतिक न्याय को कुचल कर उसको लोकतंत्र के परिसर से बहार निर्वाशन का जीवन जीने को मजबूर कर रही है.

कहानीकार ने रैली कहानी के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक सत्ताओं की दुरभिसंधियों को उजागर किया है. और पाठकों को ययः विचार करने के लिए छोड़ दिया है कि पाठक तय करें कि जो चुनावी लोकतंत्र है उसमे हमारे मत का किस तरह अवमूल्यन हुआ है. मत का अवमूल्यन का अर्थ है मनुष्य की इयत्ता का अवमूल्यन. जब मनुष्य की इयत्ता का अवमूल्यन होता है तो लोकतंत्र का भी अवमूल्यन होता है.

हलचल कहानी तो मेरे खुद के विश्वविद्यालय की कहानी है एक ऐसे कर्मचारी की कहानी जिसके परिवार का सपना होता है कि उसके परिवार में सरकारी नौकरी होगी. डीन साहब की अनुकम्पा से कहानी के नायक को आउट सोर्सिंग कर्मचारी के रूप में नौकरी मिल जाती है. लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन की आपराधिक उपेक्षा के कारण उसे सात महीने तक तनख्वाह नहीं मिलती है. इसलिए उसको विश्वविद्यालय के ही एक ऐसे कर्मचारी से कर्ज लेना पड़ता है जो सूद पर पैसे देता है.

दरअसल यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो विश्वविद्यालयों में व्याप्त कार्पोरेट संस्कृति का शिकार होता है. भारतीय कार्पोरेट की प्रकृति थोड़ी अलग है. उसमे सामंती अहमन्यता भी घुली-मिली हुई है. इसकी झलक विश्वविद्यालय जैसे सार्वजनिक संस्थानों में भी दिखाई दे रही है.

कहानीकार ने इस कहानी में ठीक लक्षित किया है कि नैक जैसे मूल्याङ्कन और कुछ नहीं बल्कि अंतर राष्ट्रीय निजी पूंजी के हवाले कर दिए जाने के पहले का उनकी सौन्दर्य प्रतियोगिता है. यह पूरी प्रक्रिया सार्वजनिक संस्थाओं को निजी पूंजी के हाथों सौंप देने की तैयारी मात्र है. ‘नैक कार्पोरेट और व्यवसायियों के मालों की बिक्री कराने का उपक्रम मात्र है.’

कहानी ने नयी शिक्षा नीति के माध्यम से तैयार होने वाले नई प्रकृति के उपभोक्ता वर्ग के अस्तिव में आने को लक्षित  करती है. लेकिन बात इससे आगे की है. सतत विकास लक्ष्य की अंतर्राष्टीय परियोजना के हिस्से के रूप में इसको देखना चाहिए.

इस परियोजना के तहत अन्तर्राष्ट्रीय नागरिक के रूप में लोगों का विकास करना इसका लक्ष्य है लेकिन यह अन्तर्राष्ट्रीय नागरिक से ज्यादा अन्तर्राष्ट्रीय उपभोक्ता का विकास करना है.

महाजनी संस्कृति अब नए खाल में हमारे सामने दिख रही है. सूदखोरी के नए संस्करण विकसित हुए हैं. विश्वविद्यालय में राकेश जैसे सूदखोर, सूदखोरी के इसी नए संस्करण के प्रतीक हैं. अगर सर्वेक्षण किया जाय तो सूदखोरी के इस नए संस्करण का जाल पूरे ग्रामीण और अर्धशहरी हिस्से में यह सघन होता दिखेगा. तमाम छोटी बड़ी निजी संस्थाओं और व्यक्तियों का विकास होता दिखाई देगा जिनसे लोग कर्ज लेकर वर्षो वरश तक क़िस्त हर रहे हैं फिर ही छुकारा नहीं मिल रहा है.

नए तरह के सामंतवाद की वापसी है. जिसका शिकार मनीष जैसे लोग हो रहे हैं. संस्कृति का बहाव हमेशा ऊपर से नीचे की ओर होता है. राज्य जिस कार्य संस्कृति को अपनाता है उसके अनुसांगिक संसथान भी उसको अपनाते हैं, अगर किसी विश्वविद्यालय में कर्मचारियों की मूलभूत आवश्यकता के प्रति प्रशासन का रैवैया असंवेदनशील और क्रूरता भरी उपेक्षा का है तो यह और कुछ नहीं राज्य की संस्कृति की ही नक़ल है, उसकी का एक रूप है.

कहानीकार ने अपने समय को बहुत गहराई से पकड़ा है. संवेदनशील दृश्यों से भरी हुई कहानियाँ हैं. इन कहानियों के पढने से बार बार प्रेमचन्द की कहानी संवेदना याद आती है. भले ही प्रेमचंद की कहानियों का समय मोटेतौर पर आज से नब्बे वर्ष पहले का समय हो लेकिन बदले हुए रूपों में समय की वापसी ने बरबस हमें अपने इतिहास की ओर देखने और उसमे झांकने का अवसर दे दिया है.

हलचल कहानी निराशा के खिलाफ आशा और मानवता के विकास के वैकल्पिक रस्ते की तलाश की कहानी है. अपने पिता के इलाज के लिए फेफिहा होता हुआ नायक मनीष परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेकता वह जनता के आदिम संघर्ष को याद करता है और उसकी प्रतिरोध की मुठ्ठी तन जाती है. उसको लगता है कि जिन परिस्थितियों से वह घिरा हुआ है वे उसकी निजी नहीं हैं.

वह नागरिक होने के अपने मौलिक संवैधानिक मूल्यों को याद करता है और प्रशासन के सामने मानों फिर से अपनी नागरिकता का दावा प्रस्तुत करे हुए अपनी सात महीने की तनख्वाह को हासिल करने के लिए आन्दोलन और धरने का रास्ता अपनाता है.

लालबहादुर जी की कहानियाँ नागरिकता के अधिकारबोध की कहानियाँ हैं. अनायास नहीं है क्यों पिछले दस पंद्रह वर्षों में जितने भी सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलन हुए हैं उनमे नागरिकता को फिर से परिभाषित करने और उसका दावा प्रस्तुत करने के केन्द्रीकरण को देखा जा सकता है.

Fearlessly expressing peoples opinion