(समकालीन जनमत के लिए महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर साप्ताहिक टिप्पणी लिख रहे मुकेश आनंद याद कर रहे हैं सुप्रसिद्ध हिंदी सिने निर्देशक बसु चटर्जी को.-सं)
बीते 4 जून को सुप्रसिद्ध हिंदी सिनेमा निर्देशक बसु चटर्जी का निधन हो गया। बसु चटर्जी का जन्म 10 जनवरी 1930 को मेवाड़, राजस्थान में हुआ था। उन्होंने अपनी जीवन यात्रा बतौर कार्टूनिस्ट शुरू की किन्तु शीघ्र ही वे सिनेमा की तरफ आ गए। रेेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ उर्फ ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी प्रसिद्ध हिंदी फिल्म से वे निर्देशक बसु भट्टाचार्य के सहायक के रूप में जुड़े थे।
बसु भट्टाचार्य स्वयं महान फ़िल्म निर्देशक विमल रॉय के सहायक रह चुके थे। बसु चटर्जी मशहूर फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी के साथ भी जुड़े। यह वह पृष्ठभूमि है जिसके असर में बसु चटर्जी ने सिनेमा की उस धारा से जुड़ते हैं जिसे ‘मिडिल सिनेमा’ या ‘मिडिल ऑफ द रोड सिनेमा’ कहा जाता है। हिंदी सिनेमा में इस धारा के प्रमुख हस्ताक्षर विमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुरुदत्त और बसु भट्टाचार्य के साथ बसु चटर्जी हैं।
वर्ष 1969 हिंदी सिनेमा के इतिहास में इसलिए महत्त्वपूर्ण क्योंकि इसी वर्ष हिंदी सिनेमा में एक आंदोलन के रूप में उस धारा का जन्म हुआ जिसे ‘समानांतर सिनेमा’, ‘न्यू वेब सिनेमा’, ‘आर्ट सिनेमा’ आदि नामों से पुकारा जाता रहा है।सार्थकता और यथार्थवाद को तरजीह देकर चलने वाली इस सिने धारा का जन्म बंगाली सिनेमा में ऋत्विक घटक की फ़िल्म नागरिक (1952) और सत्यजित रॉय की फ़िल्म ‘पाथेर पंचाली'(1955) के साथ पहले ही हो चुका था।एन. लक्ष्मीनारायण की फ़िल्म ‘नन्दी’ के साथ यह आंदोलन कन्नड़ सिनेमा में 1964 में फूटा। हिंदी सिनेमा में मणि कौल की ‘उसकी रोटी’, ऋत्विक घटक की ‘भुवनसोम’ और बसु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ -यह तीन फिल्में 1969 में आईं। इस तरह बसु चटर्जी के हिंदी सिनेमा को दिए गए इस ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित किया जाना चाहिए। वे हिंदी में उस सिने धारा के प्रवर्तकों में रहे जिसने हिंदी सिनेमा से भारतीयता और हिंदी समाज के सामाजिक मुद्दों जो जोड़ा।
बसु चटर्जी की उन फिल्मों की फेहरिस्त काफी लंबी है जिससे उनकी पहचान ‘मिडिल सिनेमा’ के एक सफल निर्देशक की बनी है। इनमें उस पार, छोटी सी बात, चितचोर, रजनीगंधा, हमारी बहू अलका, शौकीन, चमेली की शादी आदि हैं। इन फिल्मों में मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के जीवन और नगरीय पृष्ठभूमि को आधार बनाया गया। विषय सबमें प्रेम ही है लेकिन जीवन की वास्तविक समस्याओं के साथ। जिंदगी की मामूली बातों और घटनाओं में निहित सुंदरता को बसु चटर्जी ने बहुत खूबसूरती के साथ पर्दे पर उतारा है। अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा से लेकर मिथुन, जितेंद्र, अनिल कपूर और नीतू सिंह जैसे स्टार उनकी इन फिल्मों से जुड़े।
उपरोक्त संदर्भ में यह तथ्य अनिवार्य रूप से उल्लेखनीय है कि विमल रॉय सरीखे मिडिल सिनेमा के अन्य सभी निर्देशकों की ही तरह बसु भट्टाचार्य ने भी साहित्यिक रचनाओं के आधार पर फ़िल्म बनाने की कोशिश की। ‘छोटी सी बात’ हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार शरद जोशी की कहानी पर आधारित है। यह फ़िल्म आज भी हिंदी सिनेमा प्रेमियों के जेहन में अपनी जगह बनाये हुए है। उनकी फिल्म ‘रजनीगंधा’ कथाकार मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित है। इस फ़िल्म को बसु चटर्जी के महत्त्वपूर्ण योगदानों में से एक माना जाना चाहिए। फ़िल्म की नायिका दीपा (विद्या सिन्हा) संजय (अमोल पालेकर) से प्रेम करती है जो एक सरल किन्तु लापरवाह युवा है। एक साक्षात्कार के सिलसिले में वह मुंबई जाती है और नवीन (दिनेश अंकुर) से मिलती है जो कि उसका अतीत है। नवीन के निष्कपट सहयोग और जिम्मेदार स्वभाव का उस पर असर होता है। उसे महसूस होता है कि नवीन ही उसकी वास्तविक पसन्द है; वही उसका प्रेम है। लौटकर दिल्ली वापस आने पर घटनाओं के क्रम में उसे पुनः एहसास होता है कि वह संजय को ही चाहती है। इस तरह स्त्री मन ‘मन की सीमा रेखा’ को बार-बार तोड़ता है। यह सीमा रेखा मन की ही नहीं, समाज की भी है। और यह सच महज स्त्री मन का नहीं, मानव मन का है।
इस तरह इस फ़िल्म के जरिये कहानीकार और फ़िल्म निर्देशक ने ऐसे विषय को उठाया है जो जटिल और सूक्ष्म होने के साथ साहसिक भी है।लेकिन आधुनिक सामाजिक और पारिवारिक जीवन के समक्ष उपस्थित हो रही समस्याएं ऐसे प्रश्नों से रचनात्मक मुठभेड़ करने से दूर होंगी, पलायन करने से नहीं।
बसु चटर्जी निर्देशित पहली फ़िल्म ‘सारा आकाश’, जिसके ऐतिहासिक महत्व पर हम बात कर चुके हैं, राजेन्द्र यादव के इसी नाम के उपन्यास के प्रथम भाग पर आधारित है। पटकथा मशहूर कहानीकार कमलेश्वर ने लिखी है। हर लिहाज से यह बसु चटर्जी की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति है भले ही यह उनकी पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म के केंद्र में प्रभा (मधु चक्रवर्ती) है। हिन्दू समाज का संयुक्त परिवार स्त्री के लिए कैसे एक यातना गृह की तरह काम करता है, दर्शक के समक्ष सजीव हो उठता है। इस व्यवस्था की कोई ऐसी बात नहीं जो स्त्री के विरूद्ध जाती हो।
प्रभा पढ़ी-लिखी, सुंदर और हुनरमंद है। किंतु दहेज नहीं लाई है।भाभी (उसकी जेठानी) कहती है-“किताबें ले आई घर से और तो कुछ लाई नहीं।” सास (दीना पाठक) घर में सारी सड़ी गली परंपराओं की संरक्षक हैं। पुरुष सदस्य मालिकों की तरह रहते हैं और महिलाएं दासों की तरह।इसके बावजूद महिलाओं में अपनी स्थिति को लेकर ऐसा सन्देह है कि वे एक-दूसरे की दुश्मन हैं। प्रभा की समस्या इसलिए और बढ़ जाती है क्योंकि उसका पति समर (राकेश पांडेय) उसे प्रेम नहीं करता। समर को फ़िल्म में आदर्शवादी युवक बताया गया है जो विवाह बंधन में न पड़कर पढ़ना चाहता था। किन्तु उसे पिता के दबाव में विवाह करना पड़ा। जाहिर है कि उसमें संयुक्त परिवार के मुखिया के विरुद्ध जाने का साहस नहीं। लेकिन पत्नी का उत्पीड़न वह पूरी ताकत से करता है, यहाँ तक कि हाथ भी उठाता है। उसके कान भरने का काम उसकी भाभीजी बखूबी करती हैं-“औरत को जब तक दबा के नहीं रखा जाता हाथ नहीं आती।” परिवार में एक और औरत प्रभा की ननद मुन्नी है। वह ससुराल से प्रताड़ित हो मायके में रह रही है। वह भी भाभी की तरह अनपढ़ है। किंतु जिंदगी की तकलीफों ने उसे जो सबक दिया, उसके चलते वह समर और प्रभा के सम्बंध को सुधारना चाहती है। किंतु कथित आदर्शवादी समर उसकी बात पर ध्यान नहीं देता।
सारा आकाश फ़िल्म की खास बात उसकी डिटेलिंग में है। आगरा को उसके वास्तविक रूप में उभारा गया है। सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका दक्षता से निभाई है। रोचक है कि समर के बड़े भाई का एक मामूली सा रोल फ़िल्म निर्देशक मणि कौल ने भी निभाया है। संगीत सलिल चौधरी का है। वे मेलोडी के लिए जाने जाते हैं। किंतु इस फ़िल्म में उनका संगीत निर्देशक के यथार्थवादी दृष्टि को मजबूती ही देता है। समर प्रभा के विवाह के समय ‘राजा और रंक’ फ़िल्म के गीत ‘वो फिरकी वाली तू कल फिर आना’ की ध्वनि बैंड पर बजती है। यह चलन आज तक हिंदी समाज में बदस्तूर जारी है।
सारा आकाश के बाद बसु चटर्जी लंबे समय तक सामाजिक विषयों पर फ़िल्म निर्माण से दूर रहे।1986 में उन्होंने हॉलीवुड की फ़िल्म “12 एंग्री मैन” की रिमेक बनाई ‘एक रुका हुआ फैसला’ नाम से। फ़िल्म की कहानी को उन्होंने बखूबी भारतीय सन्दर्भ में ढाल दिया है। पूरी फिल्म एक बड़े कमरे में शुरू होकर खत्म हो जाती है। किंतु कौशल से फ़िल्म की नाटकीयता को न केवल बनाये रखा गया है, बल्कि चरम तक पहुंचाया गया है।
फ़िल्म की केंद्रीय समस्या है वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक गरीब आदमी को न्याय कैसे मिले। 19 वर्ष के एक युवक पर उसके बाप की हत्या का मुकदमा चलता है। उसे सरकार की तरफ से जो वकील मिलता है, उसकी केस में कोई रुचि नहीं। अंततः अदालत 12 सदस्यीय ज्यूरी को मामला इस निर्देश के साथ सौंप देती है कि वे आम सहमति से फैसला ले। अदालत के इस फैसले के जरिये ही फिल्मकार यह दिखाने का रास्ता बनाता है कि न्यायपालिका से इतर हमारा समाज वास्तव में न्याय को लेकर कितना जागरूक और प्रतिबद्ध है।
बैठक के शुरू में 11 सदस्य युवक को दोषी मान फाँसी देने के पक्ष में है। एक सदस्य को इसलिए जल्दी है क्योंकि उसने फ़िल्म की टिकट ले रखी है। उसकी इच्छा है कि तत्काल युवक के फाँसी का फैसला हो जाय। आखिर जब शो टाइम निकल जाता है तो वह युवक को बेकसूर मान लेता है। हमारे मध्य वर्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा न्याय को लेकर इतना ही गम्भीर है। एक ज्युरर युवक को इसलिए फांसी पर चढ़ाना चाहता है क्योंकि वह मानता है कि गन्दी बस्तियों में रहने वाले लोग नीच और हत्यारे होते ही हैं।उसकी असली साम्प्रदायिक नफ़रत तब फट कर सामने आती जब अधिकांश सदस्य वादी के पक्ष में हो जाते हैं। ‘ये लोग इसलिए इतने बच्चे पैदा करते हैं ताकि हम पर राज कायम कर सकें’, “वो साले करते हैं कानून की परवाह”, “कम से कम एक तो कम होगा” -यह वाक्य स्पष्ट बताते हैं कि अभियुक्त मुसलमान है।इतना ही इस सदस्य के लिए युवक को अपराधी मान लेने के लिए काफी है। शुक्र है कि उस समय के समाज में वह 12 में एक था।आज शायद स्थितियां ज्यादा भयानक हो गईं। ज्यूरी के सदस्यों में एक (पंकज कपूर) आखिर तक युवक को इसलिए कसूरवार मानता है क्योंकि वह खुद अपने बेटे से बेहद दुखी है। पंकज कपूर ने बेहद शानदार अभिनय किया है।सामाजिक समस्या को लेकर बसु चटर्जी ने 1989 में पुनः ‘कमला की मौत’ नाम से एक और फ़िल्म बनाई।
इस तरह देखें तो बसु चटर्जी का फ़िल्म संसार विविधता से भरा है। अनाम अभिनेता-अभिनेत्रियों से लेकर स्टार तक, गम्भीर सरोकार से युक्त फिल्मों से लेकर मनोरंजक फिल्मों तक, अंतर्मन की समस्या से लेकर व्यापक सामाजिक विषय तक उनके फ़िल्म संसार में सम्मिलित हैं।महान फिल्मकारों की पंक्ति में उनका नाम सदैव लिखा जाता रहेगा।