( वरिष्ठ पत्रकार आकार पटेल का यह लेख ‘ दकन क्रोनिकिल’ में 29 जून को प्रकाशित हुआ है। यह लेख से ‘ दकन क्रोनिकिल’ से साभार समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। हिंदी अनुवाद दिनेश अस्थाना का है। )
सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी आर्थिक प्रगति ने जनवरी 2018 के पहले से ही बड़ी तेजी से हिचकोले खाना शुरू कर दिया था. यहाँ से, कुछ कारणों से जिनका इस समय अंदाज़ा लगाना ज़रूरी नहीं है, हमारी अधोगति प्रारंभ हो गयी जिससे हम अभी तक उबर नहीं पाए हैं. 2018 की चारों तिमाहियों में, 2019 की चारों तिमाहियों में और फिर 2020 की पहली तिमाही तक हम लगातार गिरते ही रहे. यह सब कोविड-19 की महामारी से पहले से चल रहा था और उसी समय राष्ट्रव्यापी तालाबंदी की घोषणा हो गयी और सबकुछ पूरी तरह ठप हो गया.
सरकार ने हमें यह कभी नहीं बतलाया कि हमारी अर्थव्यवस्था का ऐसा बंटाधार क्यों हुआ. बस अचानक प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर बोलना ही छोड़ दिया. 14 अक्तूबर 2019 को निर्मला सीतारमण के पति परकाला प्रभाकर का एक लेख ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित हुआ. अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने लिखा, “देश की अर्थव्यवस्था में मंदी को लेकर चारों ओर चिंता व्याप्त है. एक ओर सरकार अभी भी इससे इंकार कर रही है तो दूसरी ओर जनसामान्य में अनवरत आ रहे आंकड़े बताते हैं कि एक एक करके प्रत्येक क्षेत्र के सामने गंभीर चुनौतियाँ आन खड़ी हैं. व्यक्तिगत उपभोग में कमी आयी है और इस समय यह सिकुड़ कर 3.1% पर आ गयी है, ग्रामीण भारत में उपभोग औंधे मुंह गिर गया है- शहरी क्षेत्र की अपेक्षा दूनी गति से. अतिलघु एवं लघु उद्योगों द्वारा ऋण लेने की दर स्थिर हो गयी है, शुद्ध निर्यात में वृद्धि नगण्य से लेकर शून्य तक रह गयी है, वित्तीय वर्ष 20 की सकल विकास दर केवल 5 % रह गयी है जो पिछले छह सालों में सबसे कम है. सरकार ने अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि अर्थव्यवस्था की हालत नाज़ुक है. इस बात के भी कोई सबूत नहीं मिलते कि लगे कि इन चुनौतियों से निबटने के लिए किसी तरह की तैयारी को लेकर कोई युद्धनीति बनाने की कोई मंशा भी है.”
यह थी २० महीने पहले की बात- महामारी, 2020 की मंदी और कोविड-19 की दूसरी लहर से भी पहले की. इस हफ्ते मुझे एक व्यावसायिक दैनिक से एक समाचार मिला जिसमें कुछ हफ़्तों पहले समाप्त हुए वित्तीय वर्ष के हालात का विस्तृत विवरण दिया गया था. उपभोक्ता व्यय में 9% और निवेश में 10 % की गिरावट दर्ज की गयी है. उत्पादन, सेवा एवं निर्माण के क्षेत्र में लगभग 8 % की कमी आयी है. पिछले वित्तीय वर्ष में हुआ यह कि हम पीछे खिसक गए. हमारी गति पहले कम हुई और फिर ठप पड़ गयी और फिर हम नीचे की ओर लुढकने लगे. हमें पीछे छोड़कर शेष विश्व आगे बढ़ता रहा. नतीजतन पिछले 48 महीनों में औसत भारतीय औसत बंगलादेशी की तुलना में और भी गरीब हो गया है. अप्रैल 2021 तक उत्पादन, व्यापार, परिवहन एवं दूर संचार के क्षेत्रों में हम आज भी वहीं खड़े हैं जहाँ हम 2018 में थे. अर्थात तीन साल की वृद्धि नदारद है, निर्माण क्षेत्र में 2 वर्षों का नुकसान हुआ है.
सीमेंट, रिफाइनरी, स्टील जैसे कोर उद्योगों के उत्पादों का आज भी वही हाल है जो मार्च 2017 में था. यानी भारत ने अपने चार साल बर्बाद कर दिए जबकि बाकी दुनिया ने अपने उत्पादन में वृद्धि की. कारों सहित समस्त सवारी गाड़ियों की बिक्री घटकर 2016 के स्तर पर आ गयी, यानी पांच सालों का नुकसान. यह कोई विसंगति नहीं है. पिछले कई सालों से वाहन-क्षेत्र में गिरावट का दौर है और अब यह साफ़ हो गया है कि मध्यवर्ग की वृद्धि रुक गयी है. दुपहिया वाहनों की बिक्री इस समय वैसी ही है जैसी 10 साल पहले थी. सामान ढोनेवाले वाहनों जैसे ट्रकों की आज की बिक्री उस स्तर से भी नीचे आ गयी है जहाँ वह नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के पद पर पहली बार शपथ-ग्रहण के समय थी.
क्या मैं कुछ नए आंकडों का जिक्र कर रहा हूँ ? नहीं, ये जनसुलभ आंकड़े हैं और इस क्षेत्र से जुड़े सभी लोगों को मालूम हैं. यदि हममें से कुछ लोगों को इसकी जानकारी नहीं है कि हालात इतने नाज़ुक हो गए हैं, तो ऐसा सिर्फ इसलिए है कि इसपर ‘मन की बात’ में अभी तक कुछ भी नहीं कहा गया है.
जैसा कि मनमोहन सिंह ने पिछले साल एक साक्षात्कार में अर्थव्यवस्था के बारे में कहा था, यदि आप इसे कोई समस्या मानते ही नहीं तो आप इसके समाधान की दिशा में कोई कदम नहीं उठा सकते. यही वजह है कि हम इस समस्या को हल नहीं करेंगे. भारत के नेताओं को इस बात पर बहुत अधिक गर्व होता है कि हमारी अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है. उनकी चमचा कैबिनेट में भी इसपर कुछ कहने की हिम्मत नहीं है. उनकी वित्तमंत्री के पति को भारत के सबसे प्राख्यात अख़बार में लेख लिखकर सारी दुनिया को यह बताना पड़ रहा है कि हम बर्बाद हो चुके है.
भारतियों को गरीबी में झोंकने और अर्थव्यवस्था की खटिया खड़ी करने का काम और भारत की समस्त सम्पदा को कुछ गिनेचुने लोगों के हाथ लुटा देने का काम साथ-साथ चल रहा है. एशिया के दो सबसे धनी लोग चीन के नहीं हैं जिसकी अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था की छह गुनी बड़ी है. वे दो गुजराती लोग हैं जो भारत के ‘विकास’ का प्रतिरूप माने जाते हैं.