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December 8, 2023
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अखिल भारतीय आदिवासी सम्मेलन में ‘आदिवासी पहचान’ और ‘बिना विस्थापन के विकास’ के लिए लड़ने का आह्वान

विशाखापत्तनम में एक दिवसीय अखिल भारतीय आदिवासी सम्मेलन ‘आदिवासी पहचान’ और ‘बिना विस्थापन के विकास’ के लिए लड़ने के आह्वान के साथ संपन्न हुआ। सम्मेलन में आदिवासियों पर दमन, जबरन बेदख़ली, जबरन हिंदू धर्म में विलय और आरएसएस की राजनीति द्वारा सांप्रदायिक विभाजन की निंदा की गयी। साथ ही आदिवासी भाषाओं, संस्कृति के विकास को सुनिश्चित करने और जनजातीय इतिहास अकादमी बनाने के लिए एक नई जनजातीय नीति के गठन का आह्वान किया गया।

अखिल भारतीय आदिवासी सम्मेलन की शुरुआत मुख्य अतिथि, प्रसिद्ध आदिवासी लेखक और कार्यकर्ता, झारखंड की डॉ. वासवी किरो ने एक नई आदिवासी नीति तैयार करने के लिए लड़ने की अपील के साथ की, जो आदिवासी भाषाओं और संस्कृति के विकास को सुनिश्चित करेगी और एक आदिवासी इतिहास अकादमी का निर्माण कराएगी। उन्होंने पारंपरिक जनजातीय चिकित्सा, व्यंजनों और अन्य ज्ञान के पहलुओं पर प्रकाश डाला।

जब उन्होंने ‘सोनोट जूआर’ (प्रकृति जिंदाबाद) के साथ प्रतिनिधियों का स्वागत किया, ऊटी अबुवा – (यह ज़मीन हमारी है) बीर आबुवा (जंगल हमारे हैं) और दिसुम आबुवा (देश हमारा है) तो जवाब में जोरदार तालियां और ‘जय जौहर’ के नारों से पूरा हॉल गूंज उठा।

उन्होंने ज़ोर दिया कि आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए संगठित लड़ाई लड़नी चाहिए और कई गैर आदिवासियों, जो आदिवासियों के सच्चे मित्र हैं, ने उनके संघर्ष में बहुत योगदान दिया है। उन्होंने समझाया कि जहां आरएसएस के नेतृत्व वाली ताक़तें आदिवासियों को विभाजित कर रही हैं और उनकी एकता में दरारें पैदा कर रही हैं, तो वह जानती हैं कि ‘लाल सलाम’ की शपथ लेने वालों ने आदिवासी संघर्षों के लिए बहुत बलिदान दिया है।

अपने 42 मिनट के संबोधन में डॉ. किरो ने कहा कि दुनिया में 70 करोड़ से अधिक स्वदेशी लोग, यानी इंडीजिनस पीपल, हैं, जिनमें से 20 करोड़ भारत में रहते हैं। औपनिवेशिक शासन के 75 साल बाद भी उनकी 7000 स्वदेशी संस्कृतियों की उपेक्षा और दमन किया गया है। भारत में 750 से अधिक आदिवासी जनजातियाँ हैं जिनमें से 75 सबसे अधिक असुरक्षित हैं। उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति बहुत गंभीर है।

डॉ कीरो ने कहा कि भारत में राज्य की आदिवासी नीति,  ‘विकास के नाम पर विस्थापन’ पर आधारित है, ने आदिवासियों को बहुत पीड़ित किया हुआ है। यह जंगलों और प्राकृतिक संपदा की लूट, भूमि अलगाव, प्रकृति का क्षरण, सरना जैसे उनके अपने धर्मों को पहचानने का विरोध और उन्हें जबरन हिंदू में आत्मसात करने का प्रयास, उनके संवैधानिक और कानूनी अधिकारों को लागू करने में अरुचि इसका कारण है। उन्होंने कहा कि भारत में विस्थापित हुए 10 करोड़ लोगों में से 80 फीसदी आदिवासी और स्वदेशी लोग हैं।

डॉ. किरो ने बताया कि आदिवासी लोग सरल और अज्ञानी होते हैं और वे अशिक्षा, पिछड़ेपन, कुपोषण और बीमारी से पीड़ित होते हैं, अगर सरकार चाहे तो इन सभी से आसानी से इल कर सकती है। लेकिन उन्होंने कहा कि आदिवासी महिलाएं एनीमिया और निरक्षरता से अधिक पीड़ित हैं।

आदिवासियों के संसाधनों को निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की कांग्रेस शासन काल की पुरानी नीतियों का पालन करने के लिए वह भाजपा सरकार पर भारी पड़ीं। उन्होंने कहा कि वन आदिवासियों की संपत्ति हैं, केवल उन्हें ही इसका उपयोग करने या देने का अधिकार होना चाहिए। विकास का मतलब यह होना चाहिए कि आदिवासी न कि निगम अपने संसाधनों का विकास करें और उनसे कमाई करें।

उन्होंने यह कहकर अपना संबोधन समाप्त किया कि यह अच्छा है कि एक आदिवासी महिला को भारत का राष्ट्रपति बनने का अवसर मिला है, पर वन अधिकार अभी भी लागू नहीं हुए हैं और आदिवासियों पर दमन जारी है। उन्होंने वन अधिकार अधिनियम के तहत सभी अधिकारों के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि कार्यान्वयन धीमा और कागज पर है।

स्वागत समिति के मानद अध्यक्ष, ईएएस सरमा, भारत सरकार के सेवानिवृत्त सचिव, ने कहा कि सरकार आदिवासियों पर बुलडोजर चला रही है, उनके अधिकारों पर हमला कर रही है। उन्होंने कहा कि यह अनिवार्य होना चाहिए कि उनसे संबंधित सभी मामलों में ग्राम सभाओं, जनजातीय परिषदों की अनुमति ली जाए। लेकिन यह सरकार इतनी जनविरोधी है कि यह राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग से भी परामर्श नहीं करती है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास आदिवासियों के पक्ष में और उनकी मदद करने वाले कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन वे इस शक्ति का उपयोग नहीं करते हैं।

स्वागत समिति के अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार रामनमूर्ति ने सम्मेलन में बताया कि कैसे लंबे समय से संघर्ष जारी है लेकिन इन मुद्दों पर लड़ने वाली सभी ताक़तों को एकजुट करने में सक्षम होने में एक अंतर है। उन्होंने कहा कि विशेष रूप से केंद्र सरकार आदिवासियों की ज़मीन विशाल निगमों को देने के लिए सभी लोकतांत्रिक मानदंडों से इनकार कर रही है। उन्होंने आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के मुद्दे को उठाने और पूरे देश में आदिवासी आंदोलनों को एकजुट करने की कोशिश करने के लिए सम्मेलन की सराहना की।

अतिथि वक्ता, वरिष्ठ अधिवक्ता और आदिवासी मुद्दों पर लेखक, पाला त्रिनाध राव ने अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों के लिए कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे सरकार निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पक्ष लेने के लिए उन्हें कमज़ोर कर रही है। खनन, पुनर्वनीकरण, बाघ अभयारण्यों, पोलावरम और अन्य परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की भूमि के हस्तांतरण और इस उद्देश्य के लिए कानून और नियमों में किए जा रहे परिवर्तनों द्वारा सरकार ने हमले तेज किये हैं। उन्होंने कहा कि एकताबद्ध दृढ़ संकल्प संघर्ष कानूनी रूप से भी अधिकारों का दावा करने में मदद करता है।

एआईकेएमएस अध्यक्ष कॉम. वी वेंकटरमैया ने मंच से डॉ. वासवी किरो द्वारा लिखित पुस्तक ‘भारत की क्रांतिकारी आदिवासी औरतें ’ का विमोचन किया। इसके बाद सम्मेलन को संबोधित करते हुए, कॉमरेड वेंकटरमैया ने आदिवासी अधिकारों के लिए दृढ़ संघर्ष करने के लिए सभी आदिवासी समूहों की व्यापक संभव एकता बनाने की अपील की। उन्होंने शासक वर्गीय दलों की तीखी निंदा की, जो अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले आदिवासी समूहों के बीच विभिन्न मतभेदों को बो रहे हैं और उनकी एकता को तोड़ने के लिए कलह को बढ़ावा दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के अधिकार को भी लागू नहीं किया जाता है और इसे आपसी विरोध का मुद्दा बना दिया जाता है। उन्होंने एक अखिल भारतीय आदिवासी मंच के गठन का आह्वान किया जो सभी संघर्षरत आदिवासी ताकतों को एकजुट कर सके और उनके मुद्दों को एक केंद्रित तरीके से मुखर बना सके।

उन्होंने सभी से संयुक्त किसान मोर्चा के गठन और किसान विरोधी तीन काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ संघर्ष से सीख लेने की अपील की। उन्होंने कहा कि हमें मुद्दों के आधार पर संयुक्त संघर्षों का निर्माण करना चाहिए। श्रीकाकुलम जिले में गिरिजन संघम बनाने के पहले के अनुभव ने आंदोलन को सशस्त्र संघर्ष के मंच तक विकसित करने में सक्षम बनाया था।

अधिवेशन की शुरुआत सुबह तीन सदस्यीय प्रेसीडियम (आंध्र प्रदेश से धर्मुला सुरेश, ओडिशा से केदार सबारा और तेलंगाना से मुक्ति सत्यम) के चुनाव के साथ हुई। शहीद संकल्प का वाचन राममोहन ने किया और सदन ने शहीदों की याद में एक मिनट का मौन रखा।

मुक्ति सत्यम ने अखिल भारतीय आदिवसी फोरम के गठन की अपील करने वाले मसौदे के आह्वान की व्याख्या की। सभी 11 राज्यों के विभिन्न प्रतिनिधियों को मंच पर आमंत्रित किया गया और उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए। बधाई देने वालों में एआईकेएमएस तेलंगाना के अध्यक्ष भिक्षपति, एआईकेएमकेएस के श्रीकांत मोहंती, तेलंगाना के रयतु समिति के अध्यक्ष जक्कला वेंकटैया, तमिलनाडु के चन्नापन, अखिल भारतीय जनजातीय कर्मचारियों के सत्यनारायण, एपी टीचर्स फेडरेशन के आर जगनमोहन राव और डॉ. राम किशन शामिल हैं। श्री जॉन हाओकिप और मणिपुर के 2 अन्य प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया।

राज्यों से आए विभिन्न प्रतिनिधियों ने अपने सुझाव रखे। सभी सकारात्मक सुझावों को शामिल करने के बाद संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए नारों के साथ आह्वान पारित किया गया।

अधिवेशन ने भूमि और आजीविका के लिए आदिवासियों के अधिकारों, बिना विस्थापन के विकास’ के अधिकार और ‘वनों और पर्यावरण को बचाने के लिए लड़ने हेतु ‘अखिल भारतीय आदिवासी फोरम’ बनाने के आह्वान को एक स्वर में स्वीकार कर लिया। इस बात पर ज़ोर दिया कि इसी से जलवायु परिवर्तन और ‘प्राकृतिक’ आपदाओं को रोका जा सकता है।

अधिवेशन ने चार प्रस्ताव पारित किए। मप्र के बुरहानपुर, छत्तीसगढ़ सहित भारत के अन्य हिस्सों में आदिवासियों पर दमन और दंडकारण्य में हवाई हमलों की निंदा की गयी। महिला पहलवानों का समर्थन और भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह की गिरफ्तारी की मांग की गयी। मणिपुर में आरएसएस द्वारा प्रायोजित साम्प्रदायिक आगजनी और हिंसा की निंदा करते हुए मौजूदा जनजातीय समूहों के अधिकारों का उल्लंघन न करने की मांग की गयी। और आंध्र प्रदेश के वाकापल्ली में अर्धसैनिक बलों द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की निंदा की गयी।

 

आदिवासी सम्मेलन में 11 राज्यों के 600 से अधिक प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। सम्मेलन में सर्वसम्मति से 15 सदस्यीय फोरम कमेटी के गठन को मंजूरी दी, जिसे फोरम के विस्तार और संघर्ष की जिम्मेदारी दी गई। इसमें चार संयोजक – तेलंगाना के मुक्ति सत्यम, ओडिशा के केदार सबारा, झारखंड के रामसाई सोरेन और आंध्र प्रदेश के एक अन्य शामिल हैं। सदस्यों में पश्चिम बंगाल से स्वपन हांसदा और सुशील लखरा, बिहार से धंजय उरांव, यूपी से भीमलाल, दिल्ली से चंदन सोरेन, ओडिशा से कनिंद्र जलिका, तेलंगाना से सकरू और सुवर्णपाक नागेश्वर राव और आंध्र प्रदेश से मल्लेश और दुर्गा शामिल थे।

अरुणोदय कल्चरल फ्रंट के सदस्य निर्मला, दुर्गा, वेंकट लक्ष्मी, बाल नागम्मा, सुजाता, येरु कोंडलू ने अपने क्रांतिकारी गीतों और नृत्य प्रदर्शन से प्रतिनिधियों को प्रेरित किया।

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