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अमेरिका में एफर्मेटिव एक्शन की वापसी: कोटा, विविधता और विपन्नता

अरुंधति काटजू 

समानता बनाम विविधता

इस निर्णय का प्रभाव केवल विश्वविद्यालयों तक सीमित नहीं रह गया है। अश्वेत लोगों और महिलाओं को नियुक्तियों में लाभ देने के लिए दूसरे बहुत से कार्यस्थलों ने भी एफर्मेटिव एक्शन (सकारात्मक कदम) को अंगीकार किया था। ये नीतियाँ भी अब जांच के घेरे में आ गईं हैं।


(वॉशिंगटन में उच्चतम न्यायालय के सामने प्रदर्शन करते लोग। वृहस्पतिवार जून 29, 2023 (एक्स्प्रेस फोटो)

पिछले महीने अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने कालेजों में प्रवेश के समय हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय को एफेर्मेटिव एक्शन लेने से रोक दिया। स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन्स ईंकॉर्पोरटेड (एसएफ़एफ़ए) बनाम प्रेसीडेंट एंड फ़ेलोज ऑफ हार्वर्ड कॉलेज के मुकदमे ने अमेरिकी उच्च शिक्षा में 50 सालों से जारी एफेर्मेटिव एक्शन नीति को एक झटके में खत्म कर दिया। अमेरिकी राजनीति में विशिष्ट विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका होती है- 46 अमेरिकी राष्ट्रपतियों में से 10 हार्वर्ड से और 5 येल विश्वविद्यालय से रहे हैं। स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन्स ईंकॉर्पोरटेड (एसएफ़एफ़ए) अमेरिकी समाज के लिए उसी प्रकार प्रभावी सिद्ध होगा जैसे कि 2022 में रोए बनाम वेड के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अमेरिकी महिलाओं के पिछले लगभग 50 सालों से प्राप्त गर्भपात के अधिकार को खत्म करना सिद्ध हुआ था।

अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने 1978 में रेजेंट्स ऑफ द यूनिवरसिटी ऑफ कैलिफोर्निया बनाम बाकी मामले में एफेर्मेटिव एक्शन नीति को ‘विविधता’ के नाम पर उचित ठहराया था। बाकी ने पाया था कि एफेर्मेटिव एक्शन नीति का केवल यही औचित्य है कि विभिन्न जातीय पृष्ठभूमि से आए हुए लोगों से विश्वविद्यालय की जीवंतता बढ़ जाती है। तब से विविधतता का प्रसार कक्षाओं से लेकर कंपनियों के मीटिंग हाल तक हो गया है। अमेरिकी कंपनियों के दफ्तरों में “विविधता, समानता एवं समावेश” का नारा सर्वव्यापी हो गया है।

अमेरिकी क़ानूनों में विविधता का औचित्य भारतीय समाज में आरक्षण से सर्वथा भिन्न है, यहाँ आरक्षण अधिकारों के मजबूत ढांचे में जड़ा है। वहाँ विविधता के लाभार्थी नियोजक या विश्वविद्यालय होते हैं जबकि आरक्षण नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी है। बाकी ने इस तर्क को निरस्त कर दिया था कि एफेर्मेटिव एक्शन किसी ऐतिहासिक पक्षपात का प्रायश्चित है। उसने विभिन्न नस्लों के लिए कोटा नियत करने से भी विश्वविद्यालय को रोक दिया था। इसके उलट जहां भारतीय संविधान नस्ल, जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है, वहीं राज्य को महिलाओं, बच्चों, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों और जन जातियों के कल्याण के लिए कानून बनाने की अनुमति भी देता है। वह खासतौर पर उनके लिए आरक्षण और कोटे का प्राविधान करता है।

अमेरिका में शिक्षा में समानता का मुद्दा वहाँ के श्वेतों और अश्वेतों के मध्य ऐतिहासिक अलगाव से गहरे जुड़ा है। अमेरिकी संविधान में समानता की धारा का समावेश गृहयुद्ध और उसके बाद दक्षिण में दासता की समाप्ति हो जाने पर 1868 में किया गया। समानता की धारा होने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने प्लेसी बनाम फर्ग्युसन मामले में 1896 में अलगाव को यह कहते हुए उचित ठहराया था कि यदि श्वेतों और अश्वेतों दोनों को बराबर सुविधाएं मिल रही हैं तो नस्ली अलगाव से समानता की धारा का कहीं उल्लंघन नहीं होता। “विलग परंतु समान” की यह अवधारणा 1954 के उस फैसले तक जारी रही जब ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन मामले में स्कूलों में विलगाव को गैर कानूनी करार नहीं दे दिया गया। प्लेसी मामले में न्याय मूर्ति हरलान की असहमति में लिखी गयी यह पंक्ति अमेरिकी राजनीति में समानता को समझने की दिशा बन गई: “हमारा संविधान वर्णांध है और वह नागरिकों के बीच किसी वर्गीकरण को न तो मानता है और उसे सहन करता है।“

इसी वर्णांधता ने कंजर्वेटिव्स को यह अवसर दिया है कि वे इस तर्क के आधार पर औपचारिक समानता को वास्तविक समानता पर तरजीह दें कि एफेर्मेटिव एक्शन श्वेतों के खिलाफ भेदभाव का कारण बनता है। उनका तर्क होता है कि उन मेरिटधारी श्वेत आवेदकों का,जो अब नस्ली भेदभाव नहीं करते, दासता और अलगाव के अपने इतिहास के कारण, कोई नुकसान नहीं होना चाहिए।
अमेरिका में जारी जनसंख्या स्थानांतरण के चलते यह बहस और भी उलझ जाती है। एसएफ़एफ़ए को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। वर्तमान में मोटे तौर पर अमेरिका की कुल आबादी में श्वेतों की संख्या 75%, अश्वेतों की संख्या 13%, स्पेनी और लातिनी अमेरिकी 19% और दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशियाई मूल के लोग मोटे तौर पर 6% है। अमेरिकी जनगणना आंकड़ों के अनुसार अनुमानतः 2060 तक श्वेतों की आबादी गिरकर 44% रह जाएगी जबकि अश्वेत, स्पेनी और एशियाई लोगों की संख्या बढ़कर क्रमशः 15%, 28% और 9% हो जाएगी। अमेरिका में पहले ही मेक्सिको के बाद विश्व के सबसे अधिक स्पेनिश बोलनेवाले लोग रहते हैं और एक अध्ययन से पता चला है कि 2010-17 से अमेरिका में तेलुगू बोलनेवाले लोगों की संख्या में सर्वाधिक तेजी आई है। इस जनसांख्यिकी संक्रमण के चलते रिपब्लिकंस में यह डर समा गया है कि वैश्वीकरण और तकनीकी को अल्पसंख्यकों के हिमायती एफेर्मेटिव एक्शन का सहयोग मिल जाने के कारण बेचारे श्वेत लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।

उच्चतम न्यायालय के सामने तर्क देते हुए याची संगठन एसएफ़एफ़ए ने कहा कि यदि अश्वेतों और स्पेनी अभ्यर्थियों के साथ एफेर्मेटिव एक्शन की नीतियाँ खड़ी न होतीं तो बड़ी संख्या में श्वेत एवं एशियाई-अमेरिकी अभ्यर्थियों को प्रवेश मिल सकता था। हार्वर्ड में प्रवेश के 2009 से 2018 तक के आंकड़ें बोलते हैं कि स्नातक कक्षाओं में अश्वेतों की भागीदारी 10-12%, स्पेनी तकरीबन 10% और एशियाई 18-20% तक होते रहे हैं। 2023 में मुकदमा दाखिल करने के बाद हार्वर्ड में 30% एशियाई-अमेरिकी अभ्यर्थियों को प्रवेश मिला जो एसएफ़एफ़ए की इस दलील को ही पुष्ट करता है कि हार्वर्ड में एशियाई-अमेरिकी और श्वेत अभ्यर्थियों के साथ भेदभाव किया जा रहा था।

इस तर्क को, कि एफेर्मेटिव एक्शन वास्तव में कुछ नस्लों के साथ भेदभाव ही था, को अमेरिकी उच्चतम न्यायालय का समर्थन मिल गया। न्यायालय द्वारा नियुक्त रिपब्लिकन्स ने 6-3 के बहुमत से विश्वविद्यालयों में प्रवेश के समय एफेर्मेटिव एक्शन के प्रविधान को नकार दिया। मुख्य न्यायाधीश रॉबर्ट्स ने बहुमत के फैसले में कहा कि न्यायालय इस बात का चयन नहीं कर सकता कि किस नस्ल का पक्ष लेना है। हालांकि न्यायमूर्ति नील गोरुश ने अपने विचार बारहा व्यक्त किए हैं जो आने वाले वर्षों में सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध होंगे। गोरुश ने पाया कि हार्वर्ड का नस्ली वर्गीकरण बहुत ही खराब तरीके से परिभाषित किया गया है, “विश्व की 60% आबादी वाले पूर्वी-एशियाई (जैसे चीनी, कोरियाई, जापानी) लोगों और दक्षिण-एशियाई (जैसे भारतीय, पाकिस्तानी और बंगलादेशी) लोगों को एक ही छड़ी से हांक दिया गया है”। उन्होंने अपने विश्लेषण का आधार समानता को नहीं बल्कि 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम के टाइटिल-छ: को बनाया है जो संघीय सरकार से सहायता पाने वाले निजी संस्थानों को नस्ल, वर्ण या देश के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है।

गोरुश का फैसला केवल एसएफ़एफ़ए के विश्वविद्यालयों में प्रवेश पर ही असर नहीं डालेगा बल्कि यह गैर सरकारी संगठनों, निगमों और राज्य प्रशासन समेत उन सभी संस्थाओं को अपने लपेटे में ले लेगा जिन्हें संघीय सरकार से धन मिलता है। टाइटिल-छ: की भाषा भी टाइटिल-सात जैसी ही है जिसमें सेवायोजन के मामलों में किसी प्रकार के भेदभाव की मनाही है। दोनों क़ानूनों की भाषा चूंकि एक है इसलिए उनकी व्याख्या भी एक ही तरह से की जाती है। कई कार्यस्थलों ने अश्वेत पुरुषों और महिलाओं को नौकरी में रखने और प्रोन्नति के मामलों में एफेर्मेटिव एक्शन का सहारा लिया है। ये नीतियाँ भी पुनर्नवीकृत जांच के दायरे में आ सकती हैं।

उच्चतम न्यायालय के आदेश के आलोक में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘विपन्नता’ के मानक को ध्यान में रखते हुए प्रवेश के मामलों में विपन्नता को सुनिश्चित करने की सलाह दी है। ज़ाहिर है कि भारतीय मूल के राजनेताओं ने पार्टी की सोच के अनुसार ही बयान दिये होंगे- डेमोक्रेट उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने इस फैसले की भर्त्सना की है जबकि रिपब्लिकन निकी हेली ने कहा है कि इससे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। अमेरिका में अगले साल होनेवाले चुनावों की रोशनी में एफेर्मेटिव एक्शन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। एक ओर जहां एशियाई- अमेरिकियों और श्वेतों को एकसाथ मिला कर एसएफ़एफ़ए का जन्म हुआ है वहीं इन एशियाई-अमेरिकियों को फूँक-फूँक कर कदम रखना होगा क्योंकि उसकी दलीलें “मॉडल अल्पसंख्यकों” का प्रतिदर्श होंगी और उन्हें अल्पसंख्यकों के बरक्स खड़ा कर देंगी।

(लेखिका भारतीय उच्च-न्यायालय की वकील हैं।)

‘द इंडियन एक्स्प्रेस’ से साभार।

अनुवाद: दिनेश अस्थाना

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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