मीता दास
कवि व कथाकार शुक्ला चौधुरी नहीं रहीं। उनका जाना एक ऊर्जावान रचनाकार का जाना है। कोरोना से जंग थी। उनका इसे न जीत पाना अंदर तक भेदता है, मन – मस्तिष्क को आहत करता है। हम सबकी दुआएं उनके साथ थीं, पर हमारी दुआयें उनके काम नहीं आईं।
कोरोना से जंग में भी उनकी जीवटता दिखी। लम्बा इलाज चला। जब – जब भी उन्हें अपनी बीमारी से राहत मिलती, वे झट फेसबुक पर स्टेटस लिखती …. ” कोई मुझे चाँद दिखाओ” और हम लोग, जो उन्हें उनकी मुराद पूरी कर सकते थे, आभासी ही सही चाँद की फोटो खींच कर उन्हें पोस्ट करते थे | उनका व्यक्तित्व भी चाँद की ही तरह शीतल था। उनका स्वर बहुत ही मृदुल-मधुर था | जब वे टप्पे गाती थीं, उसी में डूबकर नृत्य भी करती थीं। बिलकुल मतवाली हो जाती थीं मीरा की तरह । शुक्ला चाँद की दीवानी थी | उनके काव्य संसार में चांद की सृजनात्मक उपस्थित है।
शुक्ला चौधुरी (जन्म : 6 जनवरी 1951, महेन्द्रगढ़, छत्तीसगढ़) बहुत संवेदनशील रचनाकार रही हैं । उनका हृदय प्रेम से लबरेज रहा है। उन्होंने कविताएं , कहानी और नाटक लिखे । एक उपन्यास ‘इश्क’ भी लिखा । कविता-कहानी पाठ के लिए उन्हें लगातार आकाशवाणी से बुलाया जाता था। उन्होंने बड़ों और बच्चों के लिए कई नाटक लिखे। आकाशवाणी ने प्रसारित किए। एक वरिष्ठ कलाकार की हैसियत से कई वर्षों तक उन्हें आकाशवाणी अम्बिकापुर की समिति का सम्मानित सदस्य होने का भी गौरव मिला। उन्हें रायपुर आकाशवाणी से भी कहानी एवं कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया जाता था।
उनकी रचनाएँ वागर्थ, साक्षात्कार, पलाश, चकमक और नंदन जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रहीं। वागर्थ में प्रभाकर श्रोत्रिए एवं एकांत श्रीवास्तव जैसे मशहूर संपादकों ने उन्हें खूब छापा। देशबंधु, नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के रविवारीय अंकों में उनकी कविताएँ और कहानियाँ निरंतर प्रकाशित होती रहीं। वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ी थीं। उनमें जनवादी चेतना थी।
उनकी कविताओं में चांद आता है। वे चाँद की प्रेमिका थी और रात में ही उनका निधन हुआ। कहा जा सकता है कि चाँद में ही समा गईं । उनकी कविता है ….
रात की नदी में
जब डूबा चाँद
मेरी नींद में
आवाज़ आई
छपाक..
ये हैं शुक्ला चौधुरी, मतवाली सी उन्मुक्त अपनी मुस्कान लिए रचती अपने प्रिय चाँद के लिए कविता ….
रात भर
मुहब्बत की
रोटी पकती है
तारों भरे आकाश में
एक कर्मठ , चिंतातुर पत्नी , माँ और कथाकार व कवयित्री शुक्ला चौधुरी खुद को कैसे अपने परिवार और इन सभी चरित्रों से तालमेल बिठाती हैं, मुझे उनकी इस कविता को पढ़कर अचरज होता है ….
एक दिन
चांद ने कहा
चलो आज
रात भर
आइस-पाइस
खेलते हैं
मैंने कहा—
आइस-पाइस
क्या होता है
मैं नहीं जानती
चलो हम तुम्हें
सीखा देते हैं
नहीं चांद
तुम अभी जाओ
अभी मेरे बच्चों के
सर सहलाने होंगे
उनके नींद आने तक..
मुझे कल रसोई के लिए
तैयारी भी तो
करनी है—–
चांद चला गया
सारे काम खत्म कर मैं
गहरी नींद में
सो गई |
उन्हें जितना प्रेम चाँद से था, उतना ही प्रकृति , फूल – पौधे , तितली , जीव – जन्तु और तो और एक आम मनुष्य आदि से भी था। एक सब्जी बेचने वाला, एक फल बेचने वाली, ऑटो वाला यहां तक कि रिक्शेवाले से भी वे सहज भाव से बतियाती थीं। उनका हालचाल पूछती और यह भी कहती ” तुम कहानी सुनोगे ?” कभी उनसे पूछती ” तुम मेरी कविता सुनोगी ?” उनमें जरा सा भी दम्भ नहीं था जो आजकल आम है। वे उन लोगों को अपनी रचनाएँ , गीत खुश होकर सुनाती थीं । उन्हें माईक या स्टेज और गंभीर श्रोताओं का इंतजार नहीं रहता | वे अपनी सहजता और सरलता में ही मस्त थीं |
उनकी यह कविता मुझे बहुत ही प्रिय है। कितने अल्प शब्दों और चंद छोटी लाईन में कितनी सहजता से बड़ी बात लिख दी । यही शुक्ल चौधुरी की विशेषता है। कविता “घर खर्च” देखें ;
मेरी —
हंसी थी मीठी
तुम्हारी हंसी थी नमकीन
खर्च होता रहा
घर चलता रहा |
इनकी यह कविता देखिये इसमें पानी जो हमारी जरूरत है और वह किस तरह हमारे लिए ठांठें मारता है, इस महीन सी कविता ‘पानी’ में दृष्टिगोचर होती है ….
दुख में
सुख में
जरा सा कुछ कह
देते हो
मेरे भीतर
जो हरहराता़ है
वह पानी है |
एक बार मैंने उनके पति शितेन्द्र नाथ चौधुरी जी से पूछा था कि इतनी चंचल और प्रकृति से , चाँद से प्रेम करने वाली आपकी पत्नी हैं और आप इतने धीर – गंभीर और आपका जमाना तो पुराना ज़माने वाला था तो कभी आपको नहीं लगा कि कैसे यह गृहस्थी सम्हालेगी , कभी अटपटा नहीं लगा ? वे हँसकर बोले उसे मैं क्या कहूंगा । उसका यही नटखटपन ही तो उसे शुक्ला बनाता है और उसका शुक्ला चौधुरी बने रहना ही मुझे पसंद है | उसे मैंने किसी काम के लिए कभी नहीं टोका बल्कि हमेशा उसके पक्ष में ही रहा | हमारे बीच का रिश्ता दोस्ताना था। देखिये इस कविता में शुक्ला चौधुरी का एक प्रेमिका का हो जाना |
तुम —
फूल पर
झुके हुए हो
मेरा चेहरा
फूल सा
हुआ जाता है |
शुक्ला चौधुरी की यह कविता पढ़ कर ऐसा महसूस होता है जैसे उन्होंने अपनी मृत्यु के भार को लोगों के कन्धों से कैसे हल्का कर रही हैं ……
मैं
धीरे-धीरे
अपने कंधे से
चाँद उतार रही हूं
तुम
धीरे-धीरे
मुझे उतार रहे हो
कंधे से
हम दोनों ही
हल्के हो रहे हैं
सफर में।
और इस तरह उन्होंने अपने अंतिम सफर में अपने स्वजनों को अपने देह के बोझ को ढोने से वंचित रखा … { कोरोना की वजह से }। उनके जाने से एक संवेदनशील रचनाकार को ही नहीं हमने एक दोस्त व सखी को खोया है। उनकी याद हमारे दिल में बनी रहेगी।
(मीता दास कवयित्री, कथाकार और अनुवादक हैं।)