समकालीन जनमत
जनमत

‘ कविता की दुनिया में अदम एक अचरज की तरह ’

अदम गोंडवी 1980 के दशक में अपनी व्यवस्था विरोधी तथा आंदोलन परक कविताओं से चर्चा में आये। ‘चमारों की गली’ उन्हीं दिनों लखनऊ व इलाहाबाद से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ में छपी। यह कविता अपनी विषय वस्तु और तेवर को लेकर काफी चर्चा में रही। अदम उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले से आते हैं जो राजाओं, सामंती प्रभुओं के दबंगई व उनके अत्याचार के लिए कुख्यात रहा है। सामंतों के दबदबे वाले समाज में ‘चमारों की गली’ जैसी कविता लिखना, सीधे उन्हें चुनौती देना था। अदम की रचनाशीलत इन्हीं प्रभुओं से टक्कर लेती आगे बढ़ी।
हम पाते हैं कि उनकी इस रचनाशीलता का विकास आगे के दिनों में व्यवस्था को बदलने की चेतना तक हुआ। 1980 में ही इन्दिरा गाँधी की फिर से सत्ता में वापसी हुई थी। यह निरंकुशता और पूँजीवादी एकाधिकारवाद की वापसी थी। यह कलावादियों के लिए हर्ष व विजय का काल था। इसे ‘कविता की वापसी’ के रूप में स्थापित किया गया। कला व साहित्य को सत्ताश्रयी बनाने की चेष्टा में कलावाद और प्रगतिशीलता के बीच की विभाजन रेखा को धुँधला करने के सचेतन प्रयास किये गये। शहरी अभिजात्य संस्कृति को साहित्य की मुख्य धारा के बतौर सामने लाया गया। इसके नेतृत्व की बागडोर अशोक बाजपेई के हाथों में थी। भारत भवन और ‘पूर्वग्रह’ इसका केन्द्र बना। इस सांस्कृतिक किले से ‘जनवाद’ और जनता की संघर्षशील सांस्कृतिक परम्परा पर गोलीबारी की गई। ‘कविता की वापसी’ का यही यथार्थ था।
इस दौर का एक दूसरा पहलू भी है। 1980 इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी का ही काल नहीं था, वरन यह नई राजनीतिक शक्तियों के अभ्युदय का भी समय रहा है। नई सामाजिक व राजनीतिक शक्तियाँ सामने आती हैं। नये नारों की गूँज सुनाई पड़ती है। सामंतवाद विरोधी किसान संघर्ष इस दौर की खासियत थी। वहीं, देश पर इमरजेंसी थोपे जाने की घटना ने लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की नई जमीन तैयार कर दी थी। ‘क्रान्तिकारी जनवाद’ के इस संघर्ष के केन्द्र में ‘रोटी, जनवाद और आजादी’ का सवाल था। यह संघर्ष अपने मूल चरित्र में गैर संसदीय था परन्तु इसकी अपील लोकतांत्रिक थी। हिन्दी उर्दू की इस पट्टी में उभरे इस संघर्ष से हिन्दी साहित्य को नई ऊर्जा मिली। वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर हिन्दी कविता में बदलाव देखने को मिला। एक तरफ वह उर्दू के करीब पहुँची तो वहीं जनता की बोलियों व भाषाओं में कविताएं लिखी जाने लगीं।
यही दौर था जब एक तरफ अभिजन संस्कृति और जन संस्कृति के बीच के विभाजन को धुँधला करने की कोशिश हो रही थी और इसके माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में भ्रम की रचना हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ गोरख पाण्डेय व अदम गोण्डवी जैसे रचनाकार इस विभाजन को गहरा कर रहे थे। गोरख पाण्डेय की भोजपुरी में लिखे जनगीत चर्चा में आये और लोगों की जबान पर चढ़ गए। वस्तु और रूप दोनों धरातल पर यह कविता की नई जमीन थी। यह जमीन जन संघर्षों की जमीन थी। यह यथार्थ जनजीवन का यथार्थ था। यह सौंदर्य श्रम और संघर्ष का सौंदर्य था।
इस बात का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि अकविता के अराजक दौर जिसमें छन्दों को कविता से बाहर का रास्ता दिखाया गया तथा कहा गया कि ‘गीत हो, नवगीत हो या नव नवगीत हो, ये भावुकता से मुक्त नहीं हो सकते इसलिए ये आधुनिक संवेदना को अभिव्यक्त नहीं कर सकते।’ इस मध्यवर्गीय काव्यचेतना से अलग सामंतवाद विरोधी किसान संघर्षों से पैदा हुई काव्य चेतना थी जो गोरख से लेकर अदम तक में अभिव्यक्त हो रही थी। छन्दों, गीतों, गजलों जैसे लोकप्रिय काव्य रूपों में कविता की रचना इस जरूरत से पैदा हुई थी कि इसे जनचेतना के प्रचार प्रसार का हिस्सा बनाया जाय। हम देखते हैं और पाते हैं कि गोरख, दुष्यन्त व अदम जहां सशरीर नहीं पहुँच सकते थे, वहां भी इनकी कविताएँ पहुँची। छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों के आंदोलन में इनकी कविताएँ जनचेतना के प्रचार का हथियार बनीं। वास्तव में यह ‘कविता की वापसी’ के बरक्स कविता में  जनचेतना का विस्फोट था। अदम की काव्य यात्रा इसी विस्फोट का हिस्सा थी। इसीलिए अदम का कविकर्म उनका सामाजिक कर्म भी था।
अदम का जन्म 22 अक्टूबर 1947 को अर्थात उस साल हुआ, जब देश आजाद हुआ था। आजादी के जवान होने के साथ वे जवान हुए। उन्होंने इस आजाद हिन्दुस्तान में गरीब को गरीबी की दलदल में धंसते और अमीर को और अमीर होते देखा था। विषमतामूलक इस समाज में कैसी है आजादी और किसकी है आजादी ? अदम की कविता में यह सवाल बनकर उभरता है: ‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है’ और ‘कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिए, असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है’।
अदम की कविताएँ व गजलें इस राजनीतिक तंत्र पर पुरजोर तरीके से चोट करती हैं । इस आजादी के रामराज का भोग कौन कर रहा है ? ‘काजू भुने हैं प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में।’ यह तंत्र आमजन को तबाह-बर्बाद कर रहा है। वह विपन्नता व दरिद्रता में जीने के लिए बाध्य है। इसके लिए आजादी का कोई अर्थ बचा है क्या ? अदम इसी जनता का पक्ष लेते हैं और पैसे के बूते सत्ता पर काबिज तस्करों व डकैतो की इस व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं। जनता की जबान में जनता का दुख.दर्द बयाँ करते हैं: ‘आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह/जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में’।
अदम इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोही तेवर अपनाते हैं। इनकी कविता में जिन्दगी व समाज को बदलने की ललकार है, व्यवस्था के विरुद्ध बगावत है- ‘जनता के पास एक ही चारा है बगावत/ यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवास में’।
आजादी के क्या मायने हैं, वे समझ रहे थे। आजादी के बाद की इस व्यवस्था का विरोध इनकी कविता का मूल स्वर है। इस संदर्भ में वे अपने को धूमिल की परम्परा से जोड़ते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि धूमिल व्यवस्था विरोध तथा आजादी से पैदा हुए मोहभंग के सबसे मुखर और बड़े कवि हैं। धूमिल कहते हैं-
‘ क्या आजादी तीन थके रंगों का नाम है
जिसे एक पहिया ढ़ोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ’
अदम गोंडवी की कविताओं में धूमिल की इस समझ और विचार का विस्तार है। अदम अपनी कविता के माध्यम से आजादी के बाद की तस्वीर पेश करते हुए सवाल करते हैं कि जिस देश के ‘ सौ में सत्तर आदमी ’ नाशाद हैं, क्या उसे आजाद देश माना जाय और फिर ये आजादी का जश्न मनाये तो भी किस बूते जब ये अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिये गये या लगातार किये जा रहे हैं। अदम की ये कविताएँ अस्सी के दशक की हैं। उन्होंने आजादी और उसके बाद के शासक वर्ग के जिस वीभत्स चेहरे व चरित्र को उदघाटित किया था, आज इक्कीसवीं सदी में देश उसकी क्रूरता को भोग रहा है जहाँ एक तरफ मेहनतकश जनता जल, जंगल, जमीन और अपनी सम्पदा व श्रम से लगातार बेदखल की जा रही है। आजादी के बाद की व्यवस्था, राज्य व शासक वर्ग के बारे में अदम की समझ बिल्कुल साफ थी। इसीलिए सामंतवादी-औपनिवेशिक व्यवस्था के विरोध में वे गरीब किसानों, दलितों, शोषितों के पक्ष में खड़े होते हैं। ऐसे में ‘चमारों की गली से’ जैसी कविता ही सामने आ सकती थी। अपनी इस समझ की वजह से ही अदम नई पीढ़ी का आहवान करते हैं कि वह धूमिल की विरासत को आगे बढ़ाये। कवि जब ऐसा आहवान करता है तो यह न सिर्फ नई पीढ़ी को संबोधित होता है बल्कि वह आहवान उसके अपने के लिए भी होता है। सवाल इस व्यवस्था के विरोध का है, इसलिए नई पीढ़ी धूमिल की व्यवस्था विरोध की परम्परा से जुड़े, उससे ऊर्जा ले और इस संघर्ष को आगे बढाने में अपनी सारी ताकत लगा दे।
अदम हिन्दी कविता में जिस परम्परा जुड़ते हैं, वह है ‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठा हाथ’ वाली परम्परा। इनका जीवन उस किसान की तरह था, जो मौसम और समय की मार झेलता है। अन्न पैदाकर सबको खिलाता है, पर अपने भूखा रहता है, अभाव में जीता है। यही अभाव अदम के जीवन में रहा। उनके लिए कविता करना धन व ऐश्वर्य जुटाने, कमाई करने का साधन नहीं था बल्कि उनके लिए शायरी करना, गजलें लिखना सामाजिक प्रतिबद्धता थी, समाज को बदलने के संघर्ष में शामिल होने का माध्यम था। अदम में सच को कहने का साहस व कला दोनों है। धोती और कमीज पहने, गंवार सा दिखने वाला यह कवि जब कविता पढ़ता तो सुनने वालों को अन्दर तक हिला देता। अपनी कविता के बारे में वे कहते हैं :
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे।
हम अपने इस काल खण्ड का नया इतिहास लिखेंगे।
अदम ने अपनी कविता से यही काम लिया है। उन्होंने न सिर्फ मानवता के दर्द का बयान किया है, अपनी जमीन व माटी के ‘बू-बास’ से रू ब रू कराया है बल्कि उनका साहित्य एक ऐसा आईना है जिसमें हम अपने दौर व इसके इतिहास को देख सकते हैं। यही कारण है कि प्रसिद्ध आलोचक डाॅ0 मैनेजर पाण्डेय को भी कहना पड़ा है ‘कविता की दुनिया में अदम एक अचरज की तरह हैं।’ उन्हें अदम नजीर अकबराबादी की परम्परा के कवि लगते हैं। मैनेजर पाण्डेय के इस ‘अचरज’ को समझा जा सकता है। जहां हिन्दी की समकालीन कविता अभिजन भाषा व जटिल बिम्बों व प्रतीको में उलझी करीब करीब अपठनीय सी हो गई हो, वहां अदम की कविता जनता की भाषा में जनता के दुख दर्द की बात करती है, उसकी जड़ता को तोड़ती है और उसे नई चेतना से भर देती है। यह जहाँ खड़ी है, वह हिन्दी.उर्दू की सियामी जुड़वा जमीन है, जिसकी आत्मा जनभाषा की है।
अदम ने जिस फार्म को विकसित किया वह गजल के मूल और पारंपरिक स्वभाव से भिन्न है। ये गजलें देशज और प्रतिरोधात्मक अंतर्वस्तु लिए हुए हैं तथा राजनीतिक व्यंग्य इन्हें मारक बनता है। अदम ने यह काम ऐसे दौर में किया जब जन आंदोलन व जन प्रतिरोध शिथिल था। सोवियत समाजवादी व्यवस्था के खात्मे के बाद ‘इतिहास के अन्त’ की बात तथा विचारधारा के विलोप की वकालत की जा रही थी। कविता में यह कलावादी आग्रह के रूप में अभिव्यक्त हो रहा था। अदम ऐसे दौर में जन प्रतिरोध की मशाल को जलाया और अपनी शायरी से जिन्दगी के ताप को गहरे महसूस कराया।
आजादी के बाद की ऐसी कौन सी समस्या है जिस पर अदम ने कविताएँ नहीं लिखी। 1990 के दशक में जब साम्प्रदायिकता जैसी समस्या से देश जूझ रहा था, उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ कविताएँ की। साझी संस्कृति की रक्षा के लिए चले आंदोलन में वे न सिर्फ शामिल थे बल्कि वे जानते थे कि यह सब भूख व गरीबी के खिलाफ चल रही लड़ाई को भटकाने की साजिश है। इसलिए उन्होंने कविता में आहवान किया: ‘छेड़िए इक जंग, मिलजुल कर गरीबी के खिलाफ/ दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए’। अदम में दुष्यन्त की तरह की तल्खी व बेबाकपन है, वहीं गोरख की तरह व्यवस्था को बदलने की छटपटाहट है। इनकी कविता में जिन्दगी व समाज को बदलने की ललकार है, व्यवस्था के विरुद्ध बगावत है। वे चाहते हैं कि कविता, अदब मुफलिसों की अंजुमन तक पहुँचे, उनकी आवाज बने:
‘भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।’
वे गोण्डा के ‘पहचान सांस्कृतिक संगठन’ के संस्थापकों में रहे। आरम्भ में उनका राजनीतिक जुड़ाव इण्डियन पीपुलस फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगठन से था जिसका असर उनकी कविताओं में दिखता है। गांधीवाद पर जहाँ वे प्रहार करते है, वहीं नक्सलवाद के फलसफे पर यकीन करते हैं। बाद में वे जनवादी लेखक संघ से भी जुड़े। जिस गजल में वे ‘नक्सलवाद’ के मौजू होने की बात करते हैं, उन पर इसे जनवाद से रिप्लेस करने का दबाव भी बनाया गया था लेकिन अपनी शायरी में व्यक्त नक्सलवाद की प्रस्थानाओं को बदलने को तैयार नहीं हुए और जिन्दगी के अन्तिम समय तक शायरी में कहे विचार पर कायम रहे। उनका किसी संकीर्णता में विश्वास नहीं था और व्यापक वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के पक्षधर थे। अदम सभी मंचों पर जाते थे। सपा और मुलायम सिंह से भी उनके रिश्ते थे। उनके जीवन और रचना कर्म में जो फांक था, इसे लेकर उनकी आलोचना भी होती थी। पर एक अच्छी बात थी कि वे जहां भी जाते, बात अपनी करते थे, किसी को अच्छा लगे या बुरा इससे बेपरवाह थे।
अदम के निधन के बाद बहराईच से डा जय नारायण के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘कल के लिए’ ने उन पर केन्द्रित अंक निकाल उन्हें और उनके रचना कर्म को याद किया। अदम की दो कविता पुस्तकें प्रकाशित हुईं। उनकी गजलों और कविताओं का संग्रह ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा है। जब वे बीमार थे, उनके कविता संग्रह ‘धरती की सतह पर’ की बड़ी मांग थी। पर वह कही उपलब्ध नहीं था। ऐसे में अदम ने इसके नये संस्करण के प्रकाशन की इच्छा जाहिर की थी। किताबघर प्रकाशन ने अदम के परिवर्धित संस्करण को प्रकाशित किया। इसमें अदम की चौहत्तर कविताएं संकलित हैं। इस संग्रह में अपने जीवन के अन्तिम दिनों में लिखी उनकी आखिरी गजल भी शामिल है जिसमें वे कहते है :
‘ घूसखोरी, कालाबाज़ारी है या व्यभिचार है
कौन है जो कह रहा भारत में भ्रष्टाचार है………..
जब सियासत हो गई है पूँजीपतियों की रखैल
आम जनता को बगावत का खुला अधिकार है। ’
(यह कौशल किशोर की साहित्य भंडार, इलाहाबाद से आयी किताब ‘भगत सिंह और पाश, अंधियारे का उजाला’ में प्रकाशित आलेख का अंश है ) 

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