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पूंजीवादी मानदंड से आदिवासी जीवन को नहीं समझा जा सकता: रणेन्द्र

डॉ.कामिनी


( कथाकार रणेंद्र द्वारा ‘ आदिवासी जीवन तथा मुख्यधारा का समाज’ विषय पर शासकीय एम.एम. कॉलेज खडगवां, छत्तीसगढ़ में दिये गये व्याख्यान का किंचित संशोधित व संपादित रूप समकालीन जनमत पोर्टल के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। )

आदिवासी संस्कृति में प्रकृति से खास किस्म का जुड़ाव है | प्रकृति जीवन में इस तरह घुली मिली है कि वह उनका गोत्र भी है ,पूर्वज भी है और देवता भी है |

समस्त पर्व त्योहारों में प्रकृति परिवारी सदस्य के रूप में शामिल है | अब देखना यह है कि आदिवासी वनस्पतियों की पूजा करते हैं, तो क्यों करते हैं ? दरअसल जब वे वृक्षों की पूजा करते हैं, तो कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं कि अगर वृक्ष न होते तो जिसमें हम साँस ले रहे हैं वह प्राण वायु न होती |

विज्ञान इतना विकसित हो गया है लेकिन आज के दिन भी कोई ऐसा वैकल्पिक साधन नहीं आया है कि आक्सीजन हम कहीं और से ले रहे हों | आज भी वनस्पतियाँ ही हैं जो हमें आक्सीजन देती हैं |

आप देखेंगे कि हमारे यहाँ के मुख्य धारा की हिन्दू संस्कृति में भी पीपल की पूजा, वट की पूजा होती है | हम वनस्पतियों के प्रतिनिधि के तौर पर तुलसी को आगन में ले आए हैं तो यह कितना खूबसूरत चयन हैं |

आँगन हो या कि बालकनी हो वहाँ तुलसी विष्णु की पत्नी के तौर पर नहीं आई हैं , वनस्पतियों के प्रतिनिधि के रूप में हम उसको आगन में ले आए हैं, कि वही कृतज्ञता रोज सबेरे शाम पानी देकर ज्ञापित कर सकें जो आदिवासी अपनी पूजा पद्धति में करते हैं |

हम लाये वहीं से थे लेकिन बाद में भूल गए और उसको जाने क्या-क्या बना दिया |
तो पहली बात तो यह कि आदिवासियों का प्रकृति से जो लगाव है वह इतना अनुकरणीय , पूजनीय और अभिनंदनीय है कि उसे गहराई से समझने की आवश्यकता है|

दूसरी जो सबसे महत्वपूर्ण बात लगती है आदिवासी संस्कृति में वह हाथों से मेहनत करने का एक सहज भाव है | यह उन्हें किसी ने सिखाया नहीं है , गाँधी ने उन्हें नहीं कहा कि चरखा चलाइये |

गाँधी की जो पूरी सांस्कृतिक या सामाजिक गतिविधियाँ थीं उसकी कोशिश यही थी कि वर्ण व्यवस्था में बँटा हुआ जो यह समाज है हिंदुस्तान का, जो हाथों से मेहनत करने वालों को अछूत कहता है उसको थोडा सिखावें कि नहीं हाथों से मेहनत करके ही आपको पेट भरना चाहिए |

गाँधी का यह तय था कि जब तक इतना चरखा नहीं चलाएंगे भोजन नहीं करेंगे और उनका अनुकरण करने वाले जो लोग थे अधिकांश अपने हाथ का बुना हुआ कपडा ही पहनते थे |

मेहनत की क्या गरिमा होती है गाँधी ने अपने पूरे जीवन से इसे समझाने की कोशिश की | गाँधी गये गांधीवाद गया तो फिर वही चीज आ गई जो बैठ कर खा रहा है वही सबसे बड़ा व्यक्ति है और जो हाथ से मेहनत करता है वह छोटा आदमी है |

पूरी दुनिया का मार्क्सवादी आन्दोलन यह साबित करने के लिए विकल है कि जो हाथ से काम कर रहा व्यक्ति है वही सबसे ज्यादा सम्मान के योग्य है , सबसे ज्यादा गरिमा के योग्य है |

91 के बाद अब मार्क्सवाद आएगा लौट कर या नहीं आएगा पता नहीं , कुछ -कुछ देशों में फिर से लौट कर आ भी रहा है लेकिन आदिवासी संस्कृति में श्रम की गरिमा को कोई सिखाने नहीं गया वह सहज भाव से है |

हमारे यहाँ (झारखण्ड में ) जो मुंडा साहब लोग होते हैं , जो गाँव के प्रधान होते हैं और बीस गाँव के प्रधान मानकी कहलाते हैं तो मानकी हों, मुंडा साहब हों या पाहन (पुजारी) हों, ऐसा नहीं है कि वे हल न चलाते हों या खुरपी कुदाल न चलाते हों, हाथ से मेहनत न करते हों | सब लोग करते हैं, उनके लिए बड़ा सहज है | जैसे साँस लेना सहज है वैसे हाथ से मेहनत करना भी सहज है | सबसे आश्चर्यजनक लगा विशुनपुर में (जहाँ हम लोग थे) जहाँ की असुर वाली कहानी है (ग्लोबल गाँव का देवता)|

उस प्रखंड के बगल वाले गाँव में जब पाहन का चुनाव हो रहा था तो उन लोगों ने अपने बीच से अभिमन्यु तूरी को चुना | तूरी मतलब बाँस का काम करने वाले को पुजारी चुना जिसे हम मुख्यधारा के लोग शहर के या गाँव के बाहर बसाते हैं |

बाँस का काम करने वाला व्यक्ति सबसे ज्यादा अछूत होता है भले ही छठ में उन्हीं का बनाया हुआ सूप, दौरी हम इस्तेमाल करें | लेकिन वहां जो तूरी थे, जो बाँस का काम करने वाले थे, उस समुदाय के एक व्यक्ति को (जो ग्रैजुएट था) गाँव का पाहन (पुजारी) चुना गया तीन साल के लिए |

दूसरा जिसको मुख्यधारा कहा जाता है उसका ह्रदय कभी इतना विशाल हुआ है कि बाँस का काम करने वाले व्यक्ति को वह अपने यहाँ पाहन पुजारी बना ले ?नहीं हुआ है लेकिन वहाँ है क्योंकि वहाँ हाथ से काम करना सहज स्वभाव माना जाता है | साँस लेने जैसा एक बहुत ही सहज काम | तो श्रम रस में पगा हुआ उनका जो जीवन है इतना सहज और आनंद दायक है कि गाँधी ने उसे ही मुख्यधारा को सिखाने की कोशिश की थी , मार्क्स ने भी यही कोशिश की थी |

आदिवासियों के यहाँ श्रम का यह सहज संस्कार कितना महत्वपूर्ण है इसे समझिये |
तीसरी बात यूरोप का या हमारे यहाँ का जो नारीवादी आन्दोलन है , उसकी जो बहसें हैं या हमारे यहाँ प्राचीन काल में गार्गी याज्ञवल्क्य के संवाद में भी जो दिखाई पड़ता है कि कैसे स्त्रियाँ अपनी गरिमा के लिए विकल है ? सावित्री सत्यवान की कहानी में हम सुनते हैं कि सत्यवान के मरने के बाद सावित्री अपने पतिव्रत के बल पर उसे यमराज से छीन ले आती है लेकिन ये नहीं सुनते कि सावित्री के पिता ने सावित्री को अनुमति दी थी कि अपना वर तुम स्वयं चुनो |

इसको हम माइनस कर लेते हैं, आनर किलिंग करना है अपनी बेटियों का , तो ये काहे सुनायेंगे ? तो वहां सावित्री को उनके पिता ने अनुमति दी थी जाइये आप शास्त्रार्थ कीजिए और जो आप के लायक हो उसे चुन के ले आइये और सत्यवान कहीं राजभवन में नहीं मिले थे आश्रम में मिले थे, तो वह उनका अपना चुना हुआ वर था इसलिए वो यमराज से लड़ी |

तो हमारे यहाँ की परम्पराओं में भी स्त्री की गरिमा की बात रही है लेकिन वहाँ आदिवासी समाज में इसे किसी नारीवादी आन्दोलन से समझाने की आवश्यकता नहीं है | मैंने ग्लोबल गाँव के देवता में एक पैराग्राफ में इसे उल्लखित किया है-
“महिलाएं इस समाज में सियानी कहलाती थीं , जनानी नहीं | जनानी शब्द कहीं-न-कहीं केवल जनन , जन्म देने की प्रक्रिया तक उन्हें संकुचित करता, जबकि सियानी शब्द उनकी विशेष समझदारी – सयानेपन को इंगित करता मालूम होता है |”

मुख्यधारा में स्त्रियों के लिए दो शब्द बहुत प्रचलित हैं एक तो है जननी, दूसरा है जनानी | ये दोनों ही शब्द उसके जनन प्रक्रिया से जुड़े हुये हैं , उसके माँ बनने के गुण को रेखांकित करते हैं | इसीलिए मुख्यधारा में माँ को लेकर बड़े भावात्मक गीत, कवितायें ये वो आदि मिलता है, मतलब माँ बनना बहुत महत्वपूर्ण है |

अगर आप माँ नहीं बनी हैं तो बड़ी अशुभ हैं ,मंगल कार्यों में आप मत जाइये | तो माँ बनना और उसमें भी पुत्रवती होना ( पुत्रीवती नहीं) बड़ा महत्वपूर्ण है | वहाँ आदिवासी समाज में स्त्रियों को सियानी कहते हैं | यह उनके सियानेपन को, उनकी बुद्धिमत्ता को उनके मस्तिष्क के सौन्दर्य को रेखांकित करता है, और सोचिये पूरे नारीवादी आन्दोलन, यूरोप का हो या आपके यहाँ का, क्या कहा रहा है ? यही न कि आप हमें देह के तौर पर मत देखिये, हमारे देह के सौन्दर्य को मत निहारिये, हमारे मस्तिष्क के सौन्दर्य को रेखांकित कीजिये |

हम भी इन्सान हैं, हम मादा नहीं हैं कि आप केवल हमारी जनन प्रक्रिया को रेखांकित करते रहें | तो जो बातें चौथे दौर के नारीवादी आन्दोलन ने स्थापित करने में अभी सफलता नहीं हासिल की है आदिवासी समाज में वह सहज रूप में है | वहां स्त्रियों को घर में बंद होकर या लक्ष्मण रेखा के अन्दर नहीं रहना पड़ता कि इसके बाहर नहीं निकलिएगा, नहीं तो रावण हर के ले जायेगा | यह सब चींजें आपको आदिवासी समाज में नहीं मिलेंगी और न ही उनकी लोककथाओं में मिलेंगी |

चूंकि वह श्रम पर आधारित जीवन हैं दोनों को जीना है, दोनों को साथ साथ कंधे से कन्धा लगा के श्रम करना है ,जंगल जाना हो तो, खेत में खटना हो तो, या पढने जाना हो तो |

चौथी चीज है सामुदायिक जीवन की सुन्दरता , आदिवासी समाज में ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के पड़ोस में लोग भूखे सो जायेगा और वह हलुआ –पूड़ी खायेगा |

ये जो सामुदायिकता का बोध है वह शायद यहाँ कोरिया में नहीं समझ आ रहा है लेकिन जो लोग मुंबई में आईटी सेक्टर में काम कर रहें है या हैदराबाद, बंगलोर, चेन्नई, सिलिकन वैली में हैं उनसे पूछिये कि अकेलापन क्या होता है ? अवसाद ( डिप्रेशन ) क्या होता है? उनसे पूछिए कि मानसिक रोग क्या होता है ?उनसे पूछिये कि अकेलेपन के कारण सिगरेट, अल्कोहल और ड्रग की ओर आदमी कैसे जाता है ? तो पूंजीवाद ने हमें व्यक्तिवादी बनाया, जिस दिन हम लोग कृषि क्षेत्र से हटकर औद्दोगिक क्षेत्र में गए, सर्विस सेक्टर में गए तो जो क्वार्टर हम लोगों के लिए बना था वह दो कमरों का ही था |

यानी हम दो हमारे दो, न हमारे माँ- पिता होंगे न हमारी भाई बहन होंगे न कोई संयुक्त परिवार होगा | अगर नौकरी करने आये हैं तो पति-पत्नी और बच्चे रहें , परिवार को लेकर आने की आवश्यकता नहीं है | मतलब वो मानकर चल रहा था कि आपको संयुक्त परिवार तोड़कर ही रहना है |

आईटी सेक्टर में ऐसा नहीं है कि आपको १० से ५ नौकरी करनी है , आपको प्रोजेक्ट मिलेगा आप उसे ७६ घंटा में पूरा कीजिये या ८४ घंटे में | वहां सब कुछ रहेगा खाने को, खेलने को लेकिन आपको प्रोजेक्ट पूरा करके ही जाना है | वहां समय ही नहीं है, वहां परिवार ही नहीं है | वहां लिविंग टुगेदर की बात आ गई है | यह दिखता है कि संयुक्त परिवार कैसे कैसे तथाकथित विकास के चरण में टूटता गया है |

जब कृषि मुख्य थी, खेती करनी थी बहुत ज्यादा मजदूर आप रख नहीं सकते थे तो संयुक्त परिवार था | औद्दोगिक क्षेत्र में और सर्विस क्षेत्र में आये तो वहां न्यूक्लियर परिवार है |

आईटी सेक्टर में आप और आगे बढ़ जाते हैं तो वहां परिवार ही नहीं है, तो ये जो विकास है, जो आपको अकेले करता है आपको ड्रग और अल्कोहल की और ले जाता है आपको डिप्रेशन की और ले जाता है उसका एकमात्र इलाज है सामुदायिकता |

आज जो तमाम नकली संगठन श्री श्री रविशंकर या आशाराम बापू के आपको दीखते है ये उसी संयुक्त परिवार की तलाश है, उसी सामुदायिकता की तलाश है | आभासी दुनिया में जो हम किसी समूह से जुड़ते हैं यह उसी सेल्टर की, थोडा सुरक्षा भाव की, उसी सामुदायिकता की तलाश है कि कोई हो जो आपके अकेलेपन को दूर करे, आपके अकेलेपन को बाँटे.

आदिवासी जीवन में और गाँव में आज भी यह सामुदायिकता बची हुई है , वहां कोई पर्व आप अकेले नहीं मना सकते , सारा पर्व समुदाय के साथ ही मनाना है|

तो ये कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें है जो तथाकथित सभ्य समाज को महसूस करना चाहिए कि आदिवासी समाज की अच्छाइयां क्या हैं , बुराइयां तो हमने बहुत देख लीं |
पांचवी बात है कि भारोपीय भाषा परिवार जिसको हम कहते हैं उस पर तो बहुत सी किताबें हैं लेकिन जो आस्ट्रोएशियाटिक भाषा परिवार है जो हमारे यहाँ मुंडा, संथाल, खड़िया, असुर, बिरहोर आदि बोलते हैं , जो उरांव गोंड आदि बोलते हैं , जो द्रविड़ भाषा परिवार है, इन भाषा परिवारों पर आप किताब खोजकर देखिये नहीं मिलेगी |

भाषा विज्ञान की किताब में आस्ट्रोएशियाटिक भाषा या द्रविड़ भाषा पर आपको एक पैराग्राफ से ज्यादा नहीं मिलेगा लेकिन इन भाषाओं की सांस्कृतिक विरासत और समृद्धि अद्भुत है इसका उदहारण देखिये कि फादर हाकमैन जो रांची में थे १८९८ या १९०० के आस पास | वह अपने धर्म का प्रचार करने आये थे लेकिन जब मुंडा लोगों से, मुंडारी गीतों से उनकी मुलाक़ात हुई तो बड़ा अभिभूत हो गये |

उन्होंने अपना चर्च का काम छोड़ दिया , मुंडारी भाषा सीखने लगे | १९१४ में जब प्रथम विश्व युद्ध हुआ तो जर्मनी का होने के कारण उनको निकाल दिया गया लेकिन सात- आठ साल की अवधि में उन्होंने मुंडारी पर जो पकड़ बनाई उसकी मिशाल मिलना मुश्किल है | वेनस कोरिया करके एक शिक्षक जो हाकमैन के मित्र थे उन्होंने सोलह खण्डों में इनसाईक्लोपीडिया मुंडारिका लिखी है यानी मुंडारी शब्दों की व्याख्या सोलह खण्डों में|

मैंने आज तक संस्कृत या अंगरेजी के शब्दकोशों के इतने खंड नहीं देखे | जो समाज सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न होता है उसी की भाषा इतनी समृद्ध होती है | अगर मुंडारी भाषा के शब्दों की व्याख्या सोलह खण्डों में की जा रही है तो उस भाषा की सांस्कृतिक सम्पन्नता को आप समझिये कि कितनी संपन्न भाषा है जिसको हम नहीं जान रहे हैं, केवल सुनते हैं कि ऐसी एक आदिवासी भाषा है| इसी ढंग से बोर्डिंग साहब ने संथाली भाषा के शब्दों की व्याख्या १० खण्डों में की है |

जैसे भारोपीय भाषा परिवार का इंग्लैण्ड, यूरोप, इण्डिया अरब वगैरा से होते हुए जर्मन आदि पूरे क्षेत्र में विस्तार है उसी तरह जब आस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार कह रहे हैं तो आस्ट्रेलिया के आदिवासी समुदाय और पूर्वी एशिया के आदिवासी समुदाय तक इसका विस्तार है | इस पर काम कम हुआ है या नहीं के बराबर हुआ है |

मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं चाह रहा हूँ उसपर काम हो | भाषा विज्ञान में यदि आप एम. ए. या पी. एचडी. करें तो यह आपके लिए एक बड़ा क्षेत्र है | आदिवासी भाषाओं का जो परिवार है उस पर काम करने की बहुत आवश्यकता है है |

भाषा के माध्यम से मैं यह भी बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि आदिवासी समाज जिसको हम दूर से बड़ा गरीब और करुणा योग्य मानते रहें हैं सांस्कृतिक दृष्टि से इतना संपन्न है कि उसकी एक भाषा के शब्दों कि व्याख्या १६ खण्डों में की गई है | इससे उसकी समृद्धि का अंदाज लगाइए |

केवल आर्थिक या भौतिक विकास ही सब कुछ होता है यह मॉडल हम लोगों ने ब्रिटेन और अमेरिका से लिया है | हम जो हर विकास को आर्थिक विकास से नापने लगे हैं उसी फीता से आदिवासी समाज हमको गरीब लगता है | दिक्कत सिर्फ यही है अगर हम अपना मानदंड बदल लें तो आदिवासी समाज से ज्यादा आनंदित समाज हमें दुनिया में नहीं मिलेगा |

ये जो वस्तुओं के संग्रह से ख़ुशी हासिल करने का पूंजीवादी या बाजारवादी तरीका है उसे आनंद तो कतई नहीं कहा जा सकता बल्कि ख़ुशी पाने का यह तरीका कब मनोरोग में बदल जाये कहना मुश्किल है | तो ये कुछ बातें हैं जिसे महसूस करना चाहिए और आदिवासी समाज को समझने की कोशिश करनी चाहिए ताकि आपकी अंतर्दृष्टि विकसित हो और जो पूर्वाग्रह हैं वो ख़त्म हों |

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