मुक्तिबोध जयंती पर विशेष
स्त्री स्वाधीनता और उस स्वाधीनता की अभिव्यक्ति के प्रश्न को जितनी गहनता और विस्तार मुक्तिबोध-साहित्य में मिला वैसा हिन्दी साहित्य के पुरुष रचनाकारों में अन्यत्र दुर्लभ है. मुक्तिबोध ‘ अस्मिता-विमर्श ’ के दायरे में इस प्रश्न को संबोधित नहीं करते या कहें कि उनके लिए ऐसा करना संभव न था, लेकिन स्त्री-अस्मिता को उन्होंने कहीं भी अन्य किसी महाख्यान का अधीनस्थ भी नहीं बनने दिया.
हिन्दी समाज और साहित्य में स्त्री को न केवल पारम्परिक रिश्तों और आदर्शों के खांचों में खुद को ढाल कर जीना पड़ता है, बल्कि आधुनिक युग में निरंतर गठित और पुनर्गठित पितृसत्ता उस पर नयी से नयी जिम्मेदारियों को लादती चलती है. कुल की मर्यादा, परिवार की इज्ज़त, संयुक्त परिवार के तमाम दबावों और तनावों को खुद पर झेल कर उसे बिखरने से बचानेवाली, बच्चों के स्वास्थ्य, चरित्र और संस्कार के लिए उत्तरदायी जननी के रूप में उसकी भूमिका परम्परा से तय है. राष्ट्रवादी उत्थान के दौर में वह औपनिवेशिक दखलन्दाजी से मुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक अस्मिता, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता और भीतरी पवित्रता की वाहिका और प्रतीक बना दी गयी. धार्मिक-सामुदायिक अस्मिता के विमर्श में वीर योद्धा भगिनी, अपने समुदाय के पुरुषों को आलस्यपूर्ण कायरता से जगानेवाली वीर पत्नी तथा दुश्मन कौमों से निपटने में सक्षम संतति की जन्मदात्री के रूप में उसकी भूमिकाएं तय की गयीं.
कुल मिलाकर उसकी अस्मिता, अस्तित्व और मनोलोक भी बाहर से इतना अति-निर्धारित है कि कई बार उसे अपने स्वतंत्र अस्तित्व को महसूस कर पाना भी कठिन संघर्ष से ही संभव हो पाता है, उसकी अभिव्यक्ति का संघर्ष और भी पेचीदा है. छायावाद में स्त्री का प्रेयसी रूप प्रायः पुरुष के प्रेमालंबन की कल्पना-मूर्ति से अधिक नहीं है. भले ही छायावाद की ‘ प्रेयसी ’ की छवि रीतिकालीन नायिकाओं के भोग्या रूप से बहुत अलग है, लेकिन जीवन के वास्तविक प्रसंगों के बीच उसका प्रामाणिक व्यक्तित्व नहीं उभरता. संभवतः प्रेमचंद पहले रचनाकार हैं जिनके कथा-संसार की स्त्रियाँ न तो जातीय, धार्मिक-सांस्कृतिक अस्मिताओं की प्रतीक हैं, न देवी या दासी जैसा सामान्यीकरण हैं और न ही भावोच्छ्वासमय कल्प-सृष्टियाँ. वे समकालीन भारतीय समाज की जीती-जागती स्त्री-चरित्र हैं.
मुक्तिबोध प्रेमचंद को इस लिहाज से भी एक आदर्श की तरह देखते हैं. ‘ प्रगतिशीलता और मानव सत्य ’ शीर्षक लेख में लिखते हैं , “ इस गरीब मध्यवर्गीय कविता का प्रधान ‘सेंटीमेंट’ जनतांत्रिक ही रहेगा, चाहे उसका विषय शृंगार ही क्यों न हो. उसका शृंगार गीतगोविन्द, ह्यूल रोमांस आदि का श्रृंगार नहीं होगा, वरन होरी और धनिया तथा सिलिया का श्रृंगार होगा.”[1]
अपने एक अन्य बहुचर्चित लेख, “ मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया” में माँ के माध्यम से स्त्री-जीवन की कारुणिक सच्चाई को व्यक्त करनेवाले मराठी उपन्यासकार हरिनारायण आप्टे और प्रेमचंद को उन्होंने साथ-साथ खडा किया है. वे लिखते हैं, “ उसकी दृष्टि से, यानी उनके जीवन में महत्त्व रखनेवाले, सिर्फ दो ही कादंबरीकार( उपन्यास-लेखक) हुए हैं- एक हरिनारायण आप्टे; दूसरे प्रेमचंद. आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, उनके लेखे, ‘पण लक्षांत कोण घेतो’ है, जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करुण कथा कही गयी है. वह क्रांतिकारी करुणा है. उस करुणा ने महाराष्ट्रीय परिवार को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया.मेरी माँ जब प्रेमचंद की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आंसू छलछलाते से मालुम होते.”[2]
स्त्री-जीवन की अभिव्यक्ति को लेकर उन्होंने हरिनारायण आप्टे (मराठी) और शरतचन्द्र (बांग्ला) के उपन्यासों की चर्चा करते हुए दोनों के अलग लगा सामाजिक अभिप्राय और प्रभाव का विश्लेषण इन शब्दों में किया, “मराठी के प्रसिद्ध उपन्यासकार हरिनारायण आप्टे ने ‘पण लक्षांत कोण घेतो’ आदि सामाजिक उपन्यासों के द्वारा मध्यवर्गीय परिवार में सामंती उत्पीड़न के विरुद्ध नारी के जो करुण-दृश्य सामने रखे, उन्होंने महाराष्ट्रीय मध्यम-वर्गीय स्त्री-पुरुष समुदाय की चेतना हे बदल दी. आगे चलाकर स्वयं स्त्री-साहित्यकारों ने ही अपने पीड़ित जीवन का चित्रण, उनके प्रति की गयी वंचनाओं का अंकन किया, तथा अपनी मुक्ति की खोज की. फलतः, आज तुलनात्मक दृष्टि से महाराष्ट्रीय स्त्री अन्य-प्रांतीय स्त्रियों की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र है, चाहे वह निरक्षर ही क्यों न हो. …. शरत का पाठक नारी के चरित्र का गंभीर सौन्दर्य देखता है, उस गंभीरता के पीछे की मजबूरी और उसके कारणों की ओर नहीं खिंचता. आखिर इसका कारण क्या है? कारण है बंगाल की ज़मींदारी प्रथा से आक्रांत मध्यम-वर्ग की सामन्ती लौह-श्रृंखलाएं.”[3]
भारतीय नारियां : अतृप्त संपन्न भावानुभूतियों का अक्षय कोष
मुक्तिबोध अर्द्ध सामंती और अर्द्ध औपनिवेशिक विशेषताओं वाले भारतीय पूंजीवादी समाज में व्यक्ति के अलगाव और आत्म-निर्वासन के सबसे बड़े व्याख्याता है. लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में स्त्री के अलगाव और आत्म-निर्वासन की प्रकृति सापेक्षतः अलग है. मुक्तिबोध से अधिक इसे कोई नहीं जानता. १९४२ के अपने लेख “मानव जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तह में” में मुक्तिबोध ने स्त्री-पुरुष दोनों की भावानुभूतियों के दमन का चित्र उपस्थित करते हुए भी स्त्रियों के दमन को अलग से रेखांकित किया, “ यह सच है कि जीवन की कुछ ऐसी गहरी अनुभूतियाँ होतीं हैं जो कभी भी प्रकाश में नहीं आ पातीं. आ नहीं सकतीं. उन पर व्यावहारिक जगत के कुछ ऐसी बंदिश और कैद होती है कि उनका प्रकटीकरण सामाजिक अशोभनता की सीमा छू जाता है. हमारे समाज में पुरुष स्त्री से कुछ अधिक स्वतंत्र होने के कारण अपने ह्रदय को मुक्त रखने में अधिक सफल होता है, परन्तु स्त्री कौटुम्बिक- सामजिक बंधनों और संसारात्मक व्यक्तिगत रुकावटों की चट्टानों से टकराकर अपनी बेबसी के अँधेरे में बिलख पड़ती है, रो पड़ती है….. और वे अनुभूतियाँ ऐसी होती हैं जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व-साहित्य तैयार हो सकता है… व्यक्तित्व का विकास भले ही अर्तार्बाह्य संघर्ष से हो, परन्तु फिर ये अतृप्त अनुभूतियाँ, यह जीवन के स्वाभाविक रीति से बहने की प्यास जीती ही रहती है, जागती ही रहती है. ऐसी अतृप्त संपन्न भावानुभूतियों का कोष भारतीय नारियों के मन में अपने कोने में पड़ा ही रहता है, सड़ा ही करता है…. उनके अनुसार अपने जीवन का निर्माण तो क्या, उनकी अभिव्यक्ति का पता ही नहीं होता. जैसे अमावस्या की रात.”[4]
भारतीय पितृसत्ता की विशिष्ट बुनावट के बीच स्त्री-मुक्ति-अभिव्यक्ति की खोज
मुक्तिबोध की कहानियों में अपनी अभिव्यक्ति खोजती ऐसी स्त्रियाँ प्रायः दिखाई देती हैं जो लगभग सदैव ही गरीब मध्यवर्ग की हैं. उनकी गरीबी और उनका स्त्रीत्व परस्पर गुंथे हुए हैं. ‘मैत्री की मांग’ एक ऐसी कहानी है जिसमें ‘रामराव और सुशीला गरीब, अर्द्ध शिक्षित तथा अपूर्ण होते हुए भी आधुनिक वातावरण के संपर्क में आ चुके थे. उनके प्रलोभन से दब चुके थे. पर उनके प्रति वर्जना की भावना न थी.”[5]
वर्जना न होने के चलते ही सुशीला अपने पति से पड़ोस में आकर ठहरे एक युवक के बारे में जिज्ञासा प्रकट करते घबराती नहीं. “ सुशीला के कल्पना-प्रिय मन ने उस व्यक्ति के आस-पास चक्कर काटा था ” लेकिन वह सपने में भी पति रामराव का स्थानापन्न नहीं है. “ वह आकर्षण तो मात्र उस व्यक्ति की सज्जनता के चारों ओर, विद्या, सम्पन्नता और शिष्टता के तेजोवलय के प्रति था, उस स्वप्न के समान सुन्दर दिखनेवाले देश और नगर के प्रति था ( जहाँ से वह व्यक्ति आया था) जिसके बारे में सुशीला अनुभवशून्य थी.” [6] सुशीला और उस व्यक्ति( माधवराव) के बीच देखा-देखी कुँए से पानी लेते हुए हुई. फिर वह खुद “परिचय की मांग करनेवाली सहज, सरल अनायास दृष्टि” के आकर्षण में खिंचा उसके पति से मिलने के बहाने उसके घर आता है, दोनों की खिड़की से बात होती है. सुशीला जो असम्बद्ध सी बातें करती है , उससे माधवराव को लगता है कि “कितना बचपने से भरा इसका मन है.”[7] लेकिन माधवराव के बारे में सुशीला की बातें अब रामराव को नागवार लगने लगी. “इसलिए नहीं कि माधवराव के बारे में वह संशयालु है, परन्तु स्त्री के मुंह से किसी की इतनी अधिक तारीफ़ अपनी शान के खिलाफ जाती है. सुशीला समझी कि रामराव उसे माधवराव से बात करने से मना कर रहा है, जो कि समाज-मर्यादानुकूल पति का कर्तव्य है. “सुशीला का मन बुझ जाता है, रामराव से जिद करती है कि उसे मायके छोड़ दे. रामराव समझाता है कि जितना खर्च मायके आने-जाने में लगेगा, उतने में एक साड़ी आ जाएगी जो दो साल चलेगी. बहरहाल वह कुँए पर आना जाना छोड़ देती है और माधवराव से बचने लगती है. उधर माधवराव की निगाहें उसे खोजती रहीं. दीदार की उम्मीद में वह रामराव से मिलने के बहाने उसके घर भी आता, लेकिन सुशीला उसके सामने नहीं पड़ती. लेकिन एक दिन कुँए पर ही उसे अवसर मिल जाता है. वह सुशीला का हाथ अपने हाथ में लेना चाहता है, लेकिन सुशीला हाथ खींच लेती है. माधवराव को जो कादम्बरी (उपन्यास) उसने पढने को दी थी, उसके बारे में पूछती है तो माधवराव कहता है कि अच्छी लगी. सुशीला ने कहा कि “अच्छी है, पर उस स्त्री के ‘इतने’ थे, पर मित्र तो एक भी नहीं था!”[8] माधवराव को लगा मानो वह पूछ रही हो “तुम मेरे मित्र हो सकते हो?”[9] तेज़ ज़बान वाली चम्पा ने उन्हें मिलते देख लिया था. रामराव ने इतना ही कहा कि “माधवराव से इतना अधिक बोलना जन-लज्जा के कुछ प्रतिकूल है.” सुशीला ने अब अपने को और भी बंद कर लिया. माधवराव शायद उससे मिलने की उम्मीद में वापस इलाहबाद जाना टालता है, लेकिन पन्द्रह दिन बाद जाना ही पड़ता है. जाते वक्त वह रामराव के यहाँ चाय पीने आता है, लेकिन सुशीला सामने नहीं ही आती. जब वह टाँगे पर बैठ जाता है, तब “यकायक रामराव के रसोईघर की काली खिड़की खुली, और वही स्तब्ध पूर्ण मुख, आँखों में न्याय्य मैत्री की मांग करनेवाला करुण दुर्दम चेहरा, वही स्तब्ध-मूर्त भाव.”[10]
कहानी में अनबोला बहुत कुछ है, स्तब्धता गूंजती है मानो अतर्क्य जीवन स्थितियों के अंतराल भर रही हो. भाव-स्थितियों की कार्य-कारण श्रृंखला बीच बीच में लुप्त हो जाती है. कहानी में कोई ख़ास नाटकीय घटनाक्रम नहीं है. पितृसत्ता इस तरह सूक्ष्म और अदृश्य रूप से भीतरी और बाहरी परिवेश में बुनी हुई है कि उसे किसी नाटकीय घटनाक्रम में अभिव्यक्त होने की ज़रुरत ही नहीं है. सुशीला को व्यक्ति नहीं बल्कि एक रिश्ते की तलाश है जिसमें उसका ‘स्वत्व’ अभिव्यक्त हो, जहाँ उसकी व्यक्तिमत्ता की जगह हो, जहाँ पितृसत्ता से अति-निर्धारित कर्तव्य-भावना से स्वतन्त्र उसका मन पूरी तरह खुल सके. कथाकार अपनी ओर से इसे ‘मैत्री की मांग’ का नाम देता है. लेकिन कहा नहीं जा सकता कि यदि माधवराव और सुशीला का रिश्ता आगे बढ़ता, तो वह क्या रूप लेता क्योंकि स्वयं सुशीला की भावना किन आकारों में खुद उसके सामने व्यक्त होगी और किन किन अंतर्विरोधों को जन्म देगी, यह सुशीला भी पहले से नहीं जानती. यह रिश्तों और भावनाओं का ‘ग्रे एरिया’ है जिसके बारे में कोई अटकलबाजी कथाकार नहीं लगाता. उन संभावनाओं के बर-अक्स ‘मैत्री की मांग’ भावना और रिश्ते की दृष्टि से एक अपेक्षया ‘सुरक्षित इलाका’ है.
वास्तव में अंतर्निषेधों के चलते अपने ही भावों का पूरा साक्षात्कार सुशीला के लिए मुमकिन नहीं है. किसी अन्य के साथ भाव-विनिमय से अपने ही भाव अपने सामने साकार होते हैं. माधवराव से मैत्री की चाहत सुशीला के आत्म-साक्षात्कार की ही चाहत है. सुशीला की इस चाहत का कोई हिंसक विरोध पति की ओर से नहीं है, लेकिन यह चाहत जन-लज्जा के प्रतिकूल है- इस बात की प्रतीति ही उसे आत्म-दमन की ओर ले जाती है. माँ के घर जाने की जिद अपने परिवेश और अपनी भावना से उसके चरम अलगाव को व्यक्त करती है. यह अलगाव और यह आत्म-दमन ख़ास तौर पर स्त्री का ही है, इसे यह दुखांत किन्तु अनाटकीय कथा बखूबी महसूस करा ले जाती है.
मुक्तिबोध की लिखी १९३६ की एक कहानी है, जिसका शीर्षक है ‘वह’. यानी जब मुक्तिबोध महज १९ वर्ष के रहे होंगे.जिस समाज में आज भी ‘ऑनर किलिंग’ का अनुमोदन होता हो, वहां ८० साल पहले लिखी इस कहानी में एक भाई का अपनी बहन और उसके प्रेमी का अपमान करने पर ‘अपराध-भाव’ से ग्रस्त हो उठना एक भारतीय मन के दुर्लभ आत्म-साक्षात्कार का क्षण है, एक व्यक्ति के मन में सामंती संस्कारों और लोकतांत्रिक चाहतों के बीच तगड़ी भिड़ंत का क्षण है. कहानी का ‘वह’ एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला युवक-विद्यार्थी है जो लीक से हट कर सोचता है, चाहता है कि समाज में ऐसे युवक हों जो समाज के विकृत विचारों को हटाकर उसका जीर्णोद्धार करें. वह अपने मालदार बाप, जो उसे बैरिस्टर बनाना चाहते हैं, की प्रभावछाया और अपेक्षाओं से हटकर अपने विचारों के अनुकूल जीवन जीना चाहता है. कहानी का नैरेटर (‘मैं’) उसका मित्र है और उससे सर्वथा अलग विचार रखने के बावजूद उसके व्यक्तित्व पर मुग्ध है. नैरेटर और उसकी बहन शांता मातृविहीन हैं और अभी पढ़ रहे हैं.
कहानी में सिर्फ दो घटनाएं हैं. एक घटना वह है जिसमें ‘वह’ नैरेटर और उसकी बहन शांता को पुल पर धड़धड़ाती आती ट्रेन से कुचलने से बचाने में अद्भुत साहस और सूझ-बूझ का परिचय देता है. दूसरी घटना ही वह है जिसके चलते नैरेटर भीषण अपराध-बोध और आत्माभियोग से ग्रस्त हो उठता है. कॉलेज से आने पर नैरेटर बहन शांता और अपने मित्र को आलिंगनबद्ध देख लेता है. गुस्से में दोनों को ‘बेशर्म’ कहता है और मित्र को खींचकर घर से बाहर निकाल देता है. ‘वह’ बिलकुल भी प्रतिरोध नहीं करता. इसके बाद नैरेटर को अपने किए पर भीषण अपराध-बोध होता है, ”…शांता, शांता …मैंने तेरा अपराध किया है.”[11] दिवंगत माँ भी मानो दीवार पर टंगी तस्वीर के चौखटे में उसकी मूर्खता पर हंस रही हो. इस घटना का वर्णन शुरू करते हुए वह पाठकों से कहता है, “आपको मुझसे घृणा होगी जो स्वाभाविक है. मैं चाहता भी यही हूँ. मुझे प्यार नहीं चाहिए, घृणा चाहिए.”[12]
यह अपराध-बोध बहुत संश्लिष्ट है. स्त्री (यहाँ ‘बहन’) की सहज प्रेम-भावना और यौनिकता पर नियंत्रण की पितृसत्तात्मक हिंस्र भूमिका (जिसमें नैरेटर खुद को पाता है) को लेकर तो अपराध-बोध है ही, साथ ही खुद नैरेटर का उस मित्र (‘वह’) के व्यक्तित्व की विद्रोहशील मौलिकता के प्रति आकर्षण इस अपराध-बोध के दंश को बढ़ा देता है, उसे और जटिल बनाता है. जिस के प्रति वह खुद आकर्षित है, उसी के प्रति बहन के आकर्षण को उसकी अंतरात्मा कैसे गलत ठहरा सकती है? अंततः बहन के प्रेम का निषेध और उसके प्रेमी को धक्का देकर बाहर निकालने का कृत्य अपने भीतर की उस मांग का ही निषेध है जो व्यक्तित्व की साहसिक स्वतंत्रता, समाज के रूढ़िग्रस्त आचार-व्यवहार से विद्रोह के प्रति आकर्षण में व्यक्त होती है. अपराध बहन के प्रति ही नहीं, बल्कि खुद के प्रति, अपनी आत्मा की सहज मानवीय पुकार के प्रति भी हुआ है. इसीलिए इतना मार्मिक है. मुक्तिबोध की यह आरंभिक कहानी संस्कार बन चुकी पितृसत्ता का ‘आत्माभियोग’ के ज़रिए गहरा नकार है.
मुक्तिबोध की लिखी सबसे छोटी कहानी ‘दो चेहरे’ (१९५७) में प्रेम की मासूमियत के आगे बादशाह अकबर भी नतमस्तक होता है. प्रेम के रस के डूबे प्रेमी जोड़े को यह ख्याल नहीं रहता कि उन्होंने अनजाने की बादशाह अकबर को ठोकर मार दी है. अकबर पहले तो उन्हें डांटता फटकारता है, फिर उसे पश्चात्ताप होता है. प्रार्थना में ललाट ज़मीन पर टिका, वह खुदा से कहता है, “या परवरदिगार, ये दोनों इश्क में इतने डूबे हुए हैं कि वे इस दुनिया में ही नहीं रहे. लेकिन अभागा मैं, तेरी इबादत में होते हुए भी, तेरा ध्यान करते हुए भी, दुनिया में जमा रहा, मैं अपने को भूल न सका, खुदा मुझे माफ़ कर……!”[13]
मुक्तिबोध की लिखी एक अन्यतम कहानी है ‘प्रश्न’ (१९५६). १३ वर्षीय बच्चे नरेंद्र को स्कूल में दूसरे बच्चे तंग और अपमानित करते हैं. अपमानित किए जाने का कारण है उसकी माँ का उसके पिता के न रहने के बाद एक अन्य पुरुष से सबंध. मुक्तिबोध की सधी हुई कलम ने न केवल उस बच्चे की इस अपमान से पैदा तीव्र आत्मघृणा और शर्म को बेहद कोमल और संवेदनशील ढंग से उकेरा है, बल्कि उसकी माँ सुशीला के द्वारा फ्लैशबैक में स्मृत परिस्थितियों के बीच अपने प्रेम की पवित्रता, उसकी सहजता और उसपर आस्था को जिस तरह उभरा है, वह शिल्प की दृष्टि से भी बेमिसाल है. नरेंद्र का जब जन्म हुआ था तब सुशीला १६ वर्ष की और उसके पति ४० वर्ष के थे. पति सुशीला का बेहद ख्याल रखते, लेकिन बेमेल विवाह ने उनके मन में पश्चात्ताप भर दिया था. वे सुशीला के आगे खुद को अपराधी मानते थे. नरेंद्र के जन्म के बाद का एक दृश्य कहानी में उभरता है जहां सुशीला के पति उससे कहते हैं, “नहीं सुशीले, मैं अपने को धोखा नहीं दे सकता. मैंने तुम्हारे प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है……..मुझे तुमसे विवाह नहीं करना था, तुमको एक सलोना युवक चाहिए था, जिसके साथ तुम खेल सकतीं, कूद सकतीं.”[14]
कुछ दिन बाद ही वे बीमार पड़े और नहीं रहे. घर की वस्तुएं, सोना-चांदी बेचकर और स्वेटर बुनने तथा ऐसे ही छोटे मोटे काम से वह अपना और नरेंद्र का भरण-पोषण करती है. ऐसे ही एक काम के सिलसिले में अर्द्ध-शिक्षित किन्तु अत्यंत सुशील, विनम्र और सदाशय व्यक्ति से उसकी मुलाक़ात होती है जो उससके पति का दूर का रिश्तेदार भी लगता है. उसका भी एक नरेंद्र से भी छोटा बच्चा है सुधीर और एक रुग्ण पत्नी. सुशीला उसकी पत्नी की सेवा सुशुश्रा के लिए उसके पड़ोस में ही मकान ले लेती है. फिर भी पत्नी को बचाया नहीं जा सका. विधवा सुशीला और उसका बच्चा नरेंद्र तथा यह विधुर व्यक्ति और उसका अबोध बालक सुधीर सहज ही एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं. वह व्यक्ति जिसे नरेंद्र ‘काका’ कहता है, उसकी माँ और उसके जीवन की अपरिहार्य उपस्थिति बन जाता है. जब दूसरों के व्यंग्य, अपमान से पीड़ित हो वह अंततः अपने माँ से पूछता है, ,”माँ तुम पवित्र हो ? तुम पवित्र हो न ?”[15], तब सुशीला भी इसी प्रश्न के उत्तर में स्मृति की गहराइयों में डूबती चली जाती है. गहरा उद्वेग है, डूबना-उतराना है इस परिस्थिति में. कहानीकार कहता है,” आज अपवित्रा सुशीला आँखों में आंसू लेकर और ह्रदय में ज्वार लेकर सोच रही है कि उसे अपने जीवन में कहीं भी तो विसंगति मालुम नहीं हो रही है. तो उसके पति को भी विसंगति कैसे मालुम होती. एक सिरा ‘पति’ है, दूसरा सिरा ‘काका’”! पर इन दोनों सिरों में खोजते हुए भी विरोध नहीं मिल रहा है. वह इस सिरे से उस सिरे तक दौड़ती है- इस सिरे से उस सिरे तक. पर सब दूर एक स्वाभाविक चिकनाहट. फिर वह किस तरह अपवित्र हुई? वह भी कोई समझाए!”[16]
इस भीषण आत्म-आन्दोलन से गुज़रने के बाद वह नरेंद्र से कहती है कि अपने ‘काका’ को कभी दुःख मत देना. नरेंद्र रोते रोते माँ को आश्वासन देता है कि वह ऐसा नहीं करेगा, कभी भी. फिर भी प्रश्न तो प्रश्न है, रह ही जाता है. कहानी का अंत आते आते माँ बेटे के प्रश्नोत्तर को कथाकार यों शब्दांकित करता है,
“ वह तीव्र होकर बोली “तो मैं अपवित्र कैसे हुई?”नरेंद्र के सामने वे सब लड़के, दूसरे लोग आने लगे, जो उसे इस तरह छेड़ते हैं. उसने त्रस्त होकर कहा,”लोग कहते हैं.” सुशीला और भी तीव्र हो गयी. बोली, ”तो तुम उनसे जाकर क्यों नहीं कहते, बुलंद आवाज़ में, कि मेरी माँ ऐसी नहीं है!”
नरेंद्र ने कहा,“ वे मुझे छेडते हैं, मुझे तंग करते हैं. मैं स्कूल नहीं जाऊंगा.”
“तुम बुझदिल हो,”
और यह शब्द नरेंद्र के ह्रदय में तीक्ष्ण पत्थर सा जा लगा. वह बच्चा तो था लेकिन तिलमिला उठा.. उसे भूला नहीं. अमूल्य निधि की भांति उस घाव के सत्य को उसने छिपा रखा.”[17]
कहानी के अंतिम अनुच्छेद में सूचित होता है कि नरेंद्र एक गाँव में स्कूल मास्टरी करता है, एक कलाकार की हैसियत से उसकी कीर्ति चारों ओर है. कहानीकार कहानी को समाप्त करते हुए लिखता है , “सुशीला की जन्मभूमि, हमारा गाँव, धन्य है.”[18] स्त्री की पवित्रता, यौन शुचिता के बहाने आज भी हमारा समाज औरतों को, उनके बच्चों को कैसी प्रताड़ना देता है, अपमान करता है और इन्ही तरीकों से उनपर नियंत्रण रखता है, यह मुक्तिबोध को अपने समय के किसी भी अन्य कथाकार से ज्यादा मथता है और इसीलिए कहानी में इतनी भाव-सम्पन्नता और दिल को पिघला देनेवाली तासीर पैदा होती है.
आधुनिक सभ्यता-संकट की प्रतीक-रेखा
मुक्तिबोध की कहानियों में निर्धन मध्यवर्ग की गृहस्थिनों के जीवन के भावपूर्ण और करुण चित्रों की बहुतायत है. प्रायः हर कहीं वे घर-गृहस्थी के खटराग और गरीबी की मार से संत्रस्त , किन्तु अपने ‘स्वत्व’ के अभिव्यक्ति की चाहत से भरी हुई हैं. यह छवि उनकी कविताओं में भी कई बार उभरती है. यहाँ तक कि एक जगह वे अपनी कविता को भी बेघर, बे-छत गृहस्थिन की संज्ञा देते हैं-
यों मेरी कविता है बिना-घर
बिना-छत गिरस्तिन
जिसमें कि मेरा भाव
ज्वलंत जागता
जिसे लिए हुए मैं
देख रहा ज़माने की नयी परिपाटियाँ,
चम्बल की घाटियाँ[19]
“एक अंतर्कथा’ नाम की कविता में सभ्यता के जंगल में सूखे डंठल, रुखी डालें, सूखी टहनी अर्थात अग्नि के अधिष्ठान खोजती माँ का चित्र है जो स्वयं ‘गतिमती व्यक्तिमत्ता’ है जो अन्यत्र ‘कालयात्री’ और ‘विश्वशास्त्री’ बनकर प्रकट होती है. कवि उसका पुत्र है. लेकिन यह माँ भी एक ‘गिरस्तिन आत्मा’ ही है-
वह एक गिरस्तिन आत्मा
मेरी माँ
मैं चिल्लाकर पूछता-
कि यह सब क्या
कि कौन सी माया यह !
मुड़कर के मेरी ओर सहज मुस्का
वह कहती है-
“आधुनिक सभ्यता के वन में
व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी.
कोमल कोमल टहनियां मर गयीं अनुभव-मर्मों की
यह निरुपयोग के फलस्वरूप हो गया.
अंतर्जीवन के मूल्यवान जो संवेदन
उनका विवेकसंगत प्रयोग हो सका नहीं
कल्याणमयी करुणाएं फेंकी गयीं
रास्ते पर कचरे-जैसी, मैं चीन्ह रही उनको.[20]
मुक्तिबोध ने गरीब और संघर्षशील स्त्री मन पर जितना भरोसा किया है, उतना शायद किसी भी अन्य कवि ने नहीं. उनकी कहानियों और कविताओं में आनेवाली निर्धन गृहस्थिने काल-पीड़ित सत्य को शिक्षित, सुसंस्कृत, बुद्धिमानों, दृष्टिमानों से ज़्यादा पहचानती और समझती हैं-
गिरस्तिन मौन माँ बहनें
सड़क पर देखती हैं
भाव-मंथर, काल-पीड़ित ठठरियों की श्याम गो-यात्रा
उदासी से रंगे गंभीर मुरझाए हुए प्यारे
गऊ चेहरे.
निरखकर
पिघल उठता मन !!
रुलाई गुप्त कमरे में ह्रदय में उमड़ती सी है.
नहीं आए समझ में सत्य जो शिक्षित
सुसंस्कृत बुद्धिमानों दृष्टिमानों के
उन्हें वे हैं कि मन-ही-मन
सहज पहचान लेतीं !!
मग्न होकर ध्यान करती हैं कि
अपने बालकों को छातियों से और चिपकातीं.
भोले भाव की करुणा बहुत ही क्रांतिकारी सिद्ध होती है.[21]
कविता अगर गरीब गिरस्तिन है तो वह जनता भी गरीबिन ही है जिससे उस कविता का नाता है, जिसपर वह न्यौछावर है-
प्रशोषण-सभ्यता की दुष्टता के भव्य देशों में
गरीबिन जो कि जनता है
उसी में से कई मल्लाह आते हैं यहाँ पर भी
व, चोरी से उन्हीं से ही
मुझे सब सूचनाएं, ज्ञान मिलता है.[22]
स्त्रियाँ मुक्तिबोध के काव्य में भी सिर्फ प्रतीक नहीं हैं. वे कष्टपूर्ण जीवन जीते हुए भी अपनी जिजीविषा के कारण जीवन को प्रेरणा देती है. उनका कष्टपूर्ण किन्तु प्रेरणाप्रद जीवन कवि की यादों में हरदम अंकित है-
आँखों में तैरता है चित्र एक
उर में संभाले दर्द
गर्भवती नारी का
कि जो पानी भरती है वज़नदार घड़ों से
कपड़ों को धोती है भाड़ –भाड़,
घर के काम बाहर के काम सब करती है,
अपनी सारी थकान के बावजूद.
मजदूरी करती है,
घर की गिरस्ती के लिए ही
पुत्रों के भविष्य के लिए सब.
उसके पीले अवसाद भरे कृष मुख पर
जाने किस (धोखेभारी?) आशा की दृढ़ता है.
करती वह इतना काम क्यों किस आशा पर?
प्रश्न पूछता हूँ मैं;
आखों के कोनों पर उत्तर के पारम्भिक
कडुए- से आंसू में मिठास छू ही लेते हैं.
………………………………………………
यदि उस श्रमशील नारी की आत्मा सब
अभावों को सहकर
कष्टों को लात मार, निराशाएं ठुकराकर
किसी ध्रुव-लक्ष्य पर
खींचती सी जीती है,
जीवित रह सकता हूँ मैं भी तो वैसे ही.[23]
मुक्तिबोध ने पूंजी की सभ्यता के सबसे भीषण परिणामों को स्त्री-रूपकों में व्यक्त किया है. शोषण की सभ्यता से सामंजस्य की खातिर ‘परा-अहम्’ (मुक्तिबोध का शब्द “अधिचेतन”) व्यक्ति पर दबाव डालता है और इस सभ्यता से बगावत करनेवाले सभी भावों, विचारों को दबाकर अचेतन में डाल देने के लिए अहम् को मजबूर कर देता है. व्यक्ति अपनी सारभूत मनुष्यता, मानवीय सामाजिक स्वत्व और उसकी सृजनात्मक संभावनाएं या कहें कि अपनी आत्मा के एक हिस्से को ही त्याग देने को मजबूर होता है. सारभूत मनुष्यता पूंजीवादी समाज के जड़ीभूत ढांचों से विद्रोह करती है, अतः अवैध ठहराई जाती है. आत्मज विद्रोही भाव अवैध करार दिए गए नवजातों की तरह त्यागे जाते हैं. ये अवैध करार दिए गए नवजात विद्रोही भाव उस आत्मा की संतानें हैं जो अनब्याही, बलात्कृत या विधवा माँ की तरह है. हर वो आत्मा जो शोषण की सभ्यता द्वारा निर्मित मानव संबंधों को चुनौती देती है, उसे यातना दी जाती है, वह पागल कर दिए जाने को अभिशप्त है क्योंकि उसके पास सत्य है. इस सत्य के आखेटक – पूंजी की सभ्यता के कारिंदे- यातना के ही अस्त्र के रूप में उससे व्यभिचार करते हैं और उस पागल कर दी गयी आत्मा में जो गर्भ ठहरता है, वह मृत पैदा होता है. सत्य का वहन करनेवाली आत्मा बलात्कृत माँ है जिसका सत्य मरा हुआ पैदा होता है (जीने से पहले मरे समस्याओं के हल). मनुष्यता के गर्भ में सत्य की संभावना को ही खत्म करने के लिए उसे पागलपन और व्यभिचार की यातना से गुज़ारा जाता है. अकारण नहीं कि ‘सभ्यता’ के इस अपराध और उसके परिणाम के लिए मुक्तिबोध ने स्त्री-रूपकों का सहारा लिया, आधुनिक सभ्यता-संकट की प्रतीक-रेखा के रूप में एक पागल बलात्कृत स्त्री का चित्र खींचा –
वह पागल युवती सोई है
मैली दरिद्र स्त्री अस्त-व्यस्त-
उसके बिखरे हैं बाल व स्तन है लटका सा
अनगिनत वासना–ग्रस्तों का मन अटका था !
उनमें जो उच्छ्शृंखल था, विशृंखल भी था,
उसने काले पल में इस स्त्री को गर्भ दिया !
शोषिता और व्यभिचारिता आत्मा को पुत्र हुआ
स्तन मुंह में डाल, मरा बालक ! उसकी झांई,
अब तक लेटी है पास उसी की परछाई !!
आधुनिक सभ्यता-संकट की प्रतीक-रेखा,
उसको मैंने सपनों में कई बार देखा !!
जीने से पहले मरे समस्याओं के हल !
ओ नागराज, चुपचाप यहाँ से चल !![24]
पागल स्त्री तिरस्कृता नव-मानवता ही है जो मुक्तिबोध की कविता में कई जगह प्रकट होती है-
मटक-मटक मुंह बिचकाती है पथ पर पागल
बूढ़े स्तन लटकाए नंगी भाग्य-देवता,
फूटे बर्तन- सी तिरस्कृता नव-मानवता.[25]
सामंती अथवा अर्द्ध-सामंती समाज में औरतें, मेहनतकश और नौकर सामान रूप से अपने ही विद्रोही भावों को बहिर्मुख नहीं कर पाते. उनका रोष-क्रोध और घृणा सामंती ताकतों और सबंधों पर बरसने की जगह अंतर्मुख हो खुद उन्हें ही लील जाता है-
अजीब संयुक्त परिवार है-
औरतें और नौकर और मेहनतकश
अपने ही वक्ष को
खुरदुरा वृक्ष-धड़
मानकर घिसती है, घिसते हैं
अपनी ही छाती पर ज़बरदस्ती
विष-दंती भावों का सर्प-मुख.
विद्रोही भावों का नाग-मुख
रक्त-प्लुत होता है!
नाग जकड़ लेता है बांहों को,
किन्तु वे रेखाएं मस्तक पर
स्वयं नाग होती हैं!
चहरे के स्वयं भाव सरी-सृप होते हैं.आखों में ज़हर का नशा रंग लाता है.
बहुएँ मुंडेरों से कूद अरे!
आत्महत्या करती हैं!![26]
बहुओं की आत्महत्या के दृश्य उनकी कहानियों में भी आते हैं.
मुक्तिबोध ने अपने आलोचना-कर्म में भी स्त्री-जीवन की साहित्यिक अभिव्यक्ति के प्रति जो समझ विकसित की है, वह हिंदी आलोचना-साहित्य में दुर्लभ है. उन्होंने साहित्य में स्त्री-जीवन की अभिव्यक्ति को सदैव ही सामाजिक विकास की ऐतिहासिक अवस्था से जोड़कर देखा. ‘समाज और साहित्य’ शीर्षक निबंध में उन्होंने लिखा, “ जो लोग रोमांस को सामाजिक संबंधों से हटाकर उसे मात्र व्यक्तिगत करार देते हैं, वे यह नहीं जानते कि रोमांस का अर्थ मातृ-प्रधान समाज में कुछ भी नहीं था….. रोमांस का आधुनिक विकास पितृ-प्रधान समाज के बिना असंभव ही माना जाएगा. इस समाज के भीतर स्त्री पुरुष की आजीवन दासी बनायी गयी. पुरुष स्त्री के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उससे विवाह कर सकता था, किन्तु वही विवाहिता स्त्री किसी दूसरे पुरुष पर मुग्ध होकर उससे प्रेम-विवाह नहीं कर सकती थी. एक पुरुष –यदि उसकी आर्थिक दशा अच्छी है तो-कई स्त्रियाँ रख सकता था; किन्तु वही स्त्री किसी दूसरे की ओर आंख उठा कर भी नहीं देख सकती थी. स्त्री को क्रमशः वेदाध्ययन आदि प्रधान धार्मिक अधिकारों से भी वंचित बना दिया गया था.”[27]
आगे वे इसी लेख में कालिदास आदि प्राचीन संस्कृत कवियों से लेकर मध्य-युगीन व आधुनिक हिंदी कवियों के स्त्री-सौन्दर्य वर्णन और स्त्री-पुरुष संबंधों की अभिव्यक्ति के कुछ नमूने प्रस्तुत करते हैं. नारी के उपभोग्या रूप, हज़ार धार्मिक-सामाजिक बन्धनों के बावजूद उसे नायिका बनाने, उसकी व्यक्तिगत आत्म-सत्ता के लोप (शास्त्रीय संस्कृत काव्य के कुछ अंशों से लेकर रीति-काव्य तक), आदि को तो रेखांकित करते ही हैं, साथ ही साथ नारी के आदर्शीकरण में व्यक्त सामाजिक सबंधों को स्पष्ट करते हैं. ‘पद्मावत’ में नागमती के वियोग वर्णन से प्रभावित पाठकों- आलोचकों के सम्मुख वे एक उलझन खड़ी करते हैं-“ पतिप्राण नागमती रत्नसेन को छोड़कर न किसी दूसरे से प्रेम कर सकती थी, न अपने पति को इस बात के लिए मजबूर कर सकती थी कि वह पद्मावती से विवाह न करे.”[28] वे ‘भारतीय महामानवी’ सीता के अग्नि-परीक्षा से गुज़रने का उल्लेख करते हुए सीता की जीवन-गाथा के प्रति भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ में व्यक्त करुणा को वे सीता को दुःख देनेवाले व्यक्ति के प्रति मानवता के विरोध-भाव के रूप के रेखांकित करते हुए कहना नहीं भूलते कि तुलसीदास जी इस प्रकरण को साफ़ बचा गए. तुलसी और कबीर की नारी सबंधी उक्तियों को भी लक्ष्य करते हुए लिखते हैं, “स्त्रियों के सम्बन्ध में तुलसीदास जी की उक्तियाँ तो प्रसिद्द हैं हीं. कबीर ने भी नारी को माया कहा है.”[29]
सूरदास का काव्य उनकी निगाह में “अपने सर्वोच्च सौन्दर्य-क्षणों में अत्यंत मानवीय है”.[30] मैथिलीकरण गुप्त की ‘आंचल में है दूध, आखों में पानी’ जैसी पंक्तियों का उदाहरण देते हुए वे उस अभिव्यक्ति में निहित प्रेम की मनोवृत्ति पर वर्गीय और सामाजिक दबावों के कारण “दासीत्व के आदर्शीकरण पर प्राप्त विवाहिता स्त्री के कष्ट भोगने” और ऐसे समाज में ‘अधिकारी पुरुष के जीवन-मूल्य के भी अस्वस्थ और रुग्ण’ हो उठने को रेखांकित करते हैं. प्रसाद जी की “नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ जैसी अभिव्यक्तियाँ भी मुक्तिबोध की नज़र में पुरुष द्वारा नारी के आदर्शीकरण से अधिक महत्त्व नहीं रखतीं. वर्ग- समाज में स्त्री की स्वाधीनता की ह्त्या कर उसे देवी, दासी और वेश्या बनाने से अलग स्त्री-पुरुष के सह्चरत्व भाव की साहित्य में अभिव्यक्ति को वे प्रशंसा की दृष्टि से देखते हैं आधुनिक हिन्दी काव्य में गुप्त जी के ‘साकेत’ में उर्मिला और लक्ष्मण के सह्चरत्व भाव का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं, “मैथिलीशरण गुप्त जैसे बुज़ुर्ग कवि ने प्रत्येक स्त्री के मन की बात कही है.”[31]
‘अभिज्ञान-शाकुंतलम’ में कृष्ण-मृगों का चित्र खड़ा कर शकुन्तला के सबंध में दुष्यंत की भावना प्रकट करने वाली पंक्तियों को उद्धृत करते हुए वे उसे मूर्त वास्तव यथार्थ पर आधारित बताते हुए लिखते हैं, “कालिदास का दुष्यंत बहु-विवाह प्रणाली से ग्रस्त है. किन्तु जहां तक शकुंतला से उसके प्रेम का प्रश्न है, वह अत्यंत सरल, स्वाभाविक तथा स्वस्थ है.”[32]
मुक्तिबोध ने समाजशास्त्रीय-ऐतिहासिक पद्धति से भारतीय साहित्य में स्त्री-जीवन के प्रतिनिधित्व की अनेक स्थानों पर गहरी आलोचना की है, जो स्वर साहित्येतिहास और आलोचना में उनसे पहले नहीं मिलता. यह अकारण नहीं है कि सुभद्रा कुमारी चौहान के महत्त्व को उन्होंने उसी समय के प्रसिद्द छायावादी कवियों के बर-अक्स रेखांकित किया. उन्हें उनकी कविता में प्रेम-भावना अनेक दूसरे छायावादियों से अधिक वास्तविक लगी. वे पूछते हैं कि, “क्या कारण है कि किसी भी आधुनिक कवि के प्रणय-गीतों में गार्हस्थिकता का सन्दर्भ और पारिवारिकता की भूमिका नहीं रही?…. जीवन के साक्षात विविध प्रसंगों की भूमिकाओं और उसके सन्दर्भों का त्याग आखिर क्यों? इतने बड़े हिन्दी काव्य-साहित्य में माँ के ऊपर, पिता के ऊपर, भाई के ऊपर, एक भी कविता देखने में नहीं आती है- राखी के प्रसंग में बहन अथवा भाई पर लिखी गयी कुछ कविताओं को छोड़कर…. इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे कवियों का जीवन अनुभव-संपन्न और भाव-संपन्न होते हुए भी, उनकी आत्मबद्ध पिपासाओं ने अभिव्यक्ति के क्षेत्र से उन अनुभवों को हटा दिया.”[33]
(उपरोक्त पंक्तियों से पहले वे इसी लेख में मैथिलीशरण गुप्त को अपवाद मान चुके हैं, अतः ये पंक्तियाँ उनपर और उन जैसों पर लागू नहीं होतीं.) ऐसा नहीं कि मुक्तिबोध का ‘गार्हस्थिकता का सन्दर्भ और पारिवारिकता की भूमिका’ को लेकर कोई विशेष आग्रह है. वे अनेक लेखों और कहानियों में स्वयं परिवार और गृहस्थी के दबावों और दमन-चक्रों में पिसती-घुटती नारियों का दृश्य खड़ा कर चुके हैं. वे सुभद्रा जी के गार्हस्थिक-पारिवारिक सबंधों के चित्रण की सबसे बड़ी विशेषता उस राष्ट्रीय- सामाजिक सन्दर्भ की अभिव्यक्ति को मानते हैं जिसकी परिधि में आकर ये सम्बन्ध अलग ढंग से आलोकित हो उठे हैं. वे लिखते हैं,” सुभद्रा जी की पारिवारिक भावनाएं कर्तव्याभिमुख हैं. ’परिवार’ शब्द यहाँ नागरिकशास्त्र के ‘कुटुंब’ का पर्यायवाची नहीं है. जो अपना सा हो जाय, वही अपने परिवार का व्यक्ति. परिवार के व्यक्ति के प्रति अपनी भावनाओं को प्रकट करते हुए वे उनके द्वारा उसकी विवेक-चेतना को सुषुप्त नहीं करतीं, वरन उसे जाग्रत करके एक आदर्श की ओर उन्मुख कर देती हैं”[34]
इसे और भी स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं, “… प्रणय-भाव, दाम्पत्य-भाव, भाव-जीवन का अंग मात्र है.वह सम्पूर्ण जीवन कभी नहीं हो सकता है. भाई है, बहन है,परिवार है,समाज है,राष्ट्र है. एक संक्रांति काल है. सबको कर्तव्य करना है. प्रणय-भाव यदि अंध नहीं है तो उसे सारे भावों को जगह देनी चाहिए…..इन मानव-सबंधों को सुभद्रा जी ने एक राष्ट्रीय परिस्थिति के अन्दर ही देखा है,अतः उनका प्रेम अपने आलंबन को कर्तव्य की ओर प्रेरित करता है. यह कर्तव्य वह महान राष्ट्रीय कार्य है जिससे भारत एक स्वतंत्र और महान देश होगा. वे अपने पति, भाई, बहन, स्त्रियों आदि सबको इसी ओर प्रेरित करती हैं”[35] कुल मिलाकर वे जीवन के वास्तविक भाव-प्रसंगों से अलग आत्मसम्पूर्ण राष्ट्रीय भावना के काव्य से अधिक महत्वपूर्ण सुभद्रा जी के उस राष्ट्रीय काव्य को पाते हैं जिसमें जन-साधारण मानवीयता समाई हुई है.
मुक्तिबोध ने “कामायनी: एक पुनर्विचार” में स्त्री-प्रश्न को लेकर गंभीर विवेचन किया. मुक्तिबोध ने रेखांकित किया कि “मध्यवर्ग की सांस्कृतिक चेतना, भारतीय प्राचीनता की गौरव-भावना के नाम पर, सामंती संस्कार लिए हुए थी. उन संस्कारों को विभिन्न प्रकार से गौरव भी प्रदान किया गया, अर्थात उन संस्कारों के नए संस्करण भी हुए.”[36]इसका परिणाम यह निकला कि नवीन व्यक्तिवाद भी उत्तर-प्रदेश आदि हिन्दी-क्षेत्र में सामाजिक पारिवारिक क्षेत्र में कोई परिवर्तन न ला सका. इन क्षेत्रों में सामंती परिवेश से मुक्ति के सामाजिक आन्दोलन शक्ति नहीं ग्रहण कर सके. मुक्तिबोध ने लिखा, “हमने नारी को देवी बनाया, अप्सरा बनाया, उसके सौन्दर्य का, कोमलता का आदर्शीकरण किया; किन्तु सामंती सामाजिक बेड़ियों से उसकी मुक्ति का कोई समाजव्यापी विशाल, निर्णयकारी आन्दोलन हमारे यहाँ खड़ा न हो सका. नारी को हमने श्रद्धा बनाया, नारी की दुखभरीकष्ट स्थिति तो हमने देखी (नारी– सियारामशरण गुप्त, कल्याणी-जैनेन्द्र, त्यागपत्र-जैनेन्द्र,यशोधरा-मैथिलीशरण गुप्त), किन्तु उसके उद्धार-निर्णय के बीच सामंती-प्रभावग्रस्त हमारी सारी उच्च मध्यवर्गीय ‘भारतीय संस्कृति’ आड़े आ गयी.”[37]
इसीलिए मनु द्वारा श्रद्धा के परित्याग पर प्रसाद जी का मौन और सिर्फ मनु की आत्म-निंदा द्वारा ही कवि के मत का पता चलना, मनु द्वारा इड़ा पर बल-प्रयोग के खिलाफ इड़ा के मन में तीव्र घृणा का भाव न दर्शाना, श्रद्धा से पुनर्मिलन के बाद मनु को पश्चात्ताप न होना आदि इसी सामंती-प्रभावग्रस्त उच्च मध्यवर्गीय ‘भारतीय संस्कृति’ का कवि पर प्रभाव का नतीजा है.‘कामायनी’ में निराश मनु के मन में आशा का संचार करनेवाली श्रद्धा के चरित्रांकन की मुक्तिबोध ने जो प्रशंसा की , वह उनके व्यापक सामाजिक तजुर्बे और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के चलते ही. उन्होंने लिखा,“जीवन के प्रत्येक क्षण को जो व्यक्ति आशावादी दृष्टि से अनुभव करता है, अपने जीवन में वह जिस संगति का अनुभव करता है, वह निश्चय ही विवेकजन्य कार्यों से प्रसूत होती है.
श्रद्धा ऐसी ही स्वाभाविक नारी है. जिस व्यक्ति को स्त्री-पुरुष संबंधों का स्वरूप ज्ञान है, वह जान सकता है कि कतिपय स्त्रियाँ, पुरुष के कमजोर अन्धकारपूर्ण क्षणों में आशामयी विद्युत् की भाँति चमककर, उससे कठिन कार्यों के प्रति उत्साह,माधुर्यभाव और दुर्गम घाटियों को पार करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं. यह आवश्यक नहीं है कि इस प्रकार की स्त्री शिक्षिता हो. स्त्री की उपर्युक्त शक्ति उसकी भीतरी मनुष्यता है, जो अपने आराम, सुविधा, वासना के टुच्चे,ओछे, टटपून्जिएपन से ग्रस्त नहीं होते. हमारे गरीब भारतीय जनों में (जैसे कि सभी देश के लोगों में) ऐसी स्त्रियाँ अनगिनत हैं. काश! हमारी गरीब स्त्रियाँ आज मुक्त हो पातीं, शिक्षित होकर प्रभावकारी हो पातीं. अतएव श्रद्धा का जो ‘टाइप’ है, वह भारतीय जनों में ( जैसे कि अन्य देशों की जनता में) प्रचुर संख्या में वर्तमान हैं.”[38] लेकिन श्रद्धा का आदर्शीकरण किन सामाजिक-सांस्कृतिक मजबूरियों का नतीजा है और उसके पीछे कौन से संस्कार काम कर रहे हैं , इसे वे बखूबी रेखांकित करते हैं, “ ..जिस समाज में नारी की वास्तविक सहचरता तथा वास्तविक स्वतंत्रता की यथार्थ भावना के आधार पर, रोमांस की सामाजिक संभावना नहीं हो,वहां अंतर्मुख रूप-सम्मोह के अतिरिक्त, आत्मग्रस्त वासना के अतिरिक्त, और हो ही क्या सकता है ? अधिक से अधिक हम इस स्थिति में देवसेना और श्रद्धा जैसी आदर्शमती नारियां ही तो खड़ा कर सकते हैं.”[39]
संक्षेप में मुक्तिबोध ने अपने समूचे साहित्य में नारी शोषण को एक बहुत ही बड़े फलक पर उपस्थित कर दिया है. आगे के स्त्री प्रश्न पर गैर-स्त्रियों के लेखन तथा स्त्री-लेखन को अपनी परम्परा का रूपायन करने के सन्दर्भ में अवश्य ही पलटकर मुक्तिबोध साहित्य का अवगाहन करना ही होगा.
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[1]मुक्तिबोध: प्रगतिशीलता और मानव सत्य, १९५५, मुक्तिबोध रचनावली,खंड पांच, पृष्ठ ८१, संस्करण १९९८, राजकमल, दिल्ली
[2]मुक्तिबोध: “ मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया”, १९५३-५७ के बीच , मुक्तिबोध रचनावली,खंड पांच, पृष्ठ ४२९, संस्करण १९९८, राजकमल, दिल्ली
[3]मुक्तिबोध: “समाज और साहित्य”, १९५०-५१ के बीच , मुक्तिबोध रचनावली,खंड पांच, पृष्ठ ७०, संस्करण १९९८, राजकमल, दिल्ली
[4]मुक्तिबोध: “मानव जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तह में”, १९४२ , मुक्तिबोध रचनावली,खंड पांच, पृष्ठ २६-२७, संस्करण १९९८, राजकमल, दिल्ली
[5]मुक्तिबोध: “मैत्री की मांग”, १९४२-४७, मुक्तिबोध रचनावली,खंड तीन ,पृष्ठ ४४, संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[6]उपरोक्त, पृष्ठ ४५
[7]उपरोक्त, पृष्ठ ४८
[8]उपरोक्त, पृष्ठ ५०
[9]उपरोक्त, पृष्ठ ५१
[10]उपरोक्त, पृष्ठ ५२
[11]मुक्तिबोध:‘वह’, १९३६ मुक्तिबोध रचनावली, खंड ३, पृष्ठ २७, संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[12] उपरोक्त,पृष्ठ २५
[13] मुक्तिबोध: ‘दो चेहरे”, मुक्तिबोध रचनावली, भाग ३, पृष्ठ १२२, राजकमल, २०११
[14] मुक्तिबोध :”प्रश्न” (१९५६) मुक्तिबोध रचनावली, भाग ३, पृष्ठ ११०, राजकमल, २०११
[15] मुक्तिबोध :”प्रश्न” (१९५६) मुक्तिबोध रचनावली, भाग ३, पृष्ठ १०९, राजकमल, २०११
[16] मुक्तिबोध :”प्रश्न” (१९५६),मुक्तिबोध रचनावली, भाग ३, पृष्ठ ११२, राजकमल, २०११
[17] मुक्तिबोध :”प्रश्न” (१९५६),मुक्तिबोध रचनावली, भाग ३, पृष्ठ ११४, राजकमल, २०११
[18] मुक्तिबोध :”प्रश्न” (१९५६),मुक्तिबोध: मुक्तिबोध रचनावली, भाग ३, पृष्ठ ११४, राजकमल, २०११
[19]मुक्तिबोध: चम्बल की घाटी में, १९६४, मुक्तिबोध रचनावली, खंड २, पृष्ठ ४०७ संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[20]मुक्तिबोध: एक अंतर्कथा, १९५९, मुक्तिबोध रचनावली, खंड २, पृष्ठ १४२संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[21]मुक्तिबोध: मेरे लोग, १९६०-६१, मुक्तिबोध रचनावली, खंड २, पृष्ठ २२१-२२२,संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[22]मुक्तिबोध: चकमक की चिंगारियां १९५७-१९६१, मुक्तिबोध रचनावली, खंड २, पृष्ठ २३९,संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[23]मुक्तिबोध: मुझे याद आते हैं, १९४९-५०, मुक्तिबोध रचनावली, खंड १, पृष्ठ २४०,संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[24]मुक्तिबोध: ‘ओ काव्यात्मन फणिधर’, १९५९-६०, मुक्तिबोध रचनावली, खंड २, पृष्ठ १७९-८०,संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[25]मुक्तिबोध: ‘मध्य-वित्त’, १९४७, मुक्तिबोध रचनावली, खंड १, पृष्ठ २०५, संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[26]मुक्तिबोध: ‘एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन’ , १९५९, मुक्तिबोध रचनावली, खंड २ , पृष्ठ १३७ ,संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[27]मुक्तिबोध: “‘समाज और साहित्य’”, १९५०-५१, मुक्तिबोध रचनावली,खंड पांच, पृष्ठ ४६-४७, संस्करण १९९८, राजकमल, दिल्ली
[28]उपरोक्त, पृष्ठ ४७
[29]उपरोक्त, पृष्ठ ४७
[30]उपरोक्त, पृष्ठ ६०
[31]उपरोक्त, पृष्ठ ६१
[32]उपरोक्त, पृष्ठ ६१
[33]मुक्तिबोध: “सुभद्रा जी की सफलता का रहस्य”, १९४८, मुक्तिबोध रचनावली,खंड पांच, पृष्ठ ३८८-३८९, संस्करण १९९८, राजकमल, दिल्ली
[34]उपरोक्त पृष्ठ-३९०-९१
[35]उपरोक्त पृष्ठ- ३९३
[36]मुक्तिबोध: “कामायनी: एक पुनर्विचार”,मुक्तिबोध रचनावली खंड ४, पृष्ठ २२७, संस्करण २०११, राजकमल, दिल्ली
[37]उपरोक्त, पृष्ठ-२२७
[38]उपरोक्त, पृष्ठ-२३७-३८
[39]उपरोक्त, पृष्ठ-२२८