समकालीन जनमत
इतिहास

उनसे झुकने को कहा गया वो रेंगने लग गए

मार्च 1971 में हुए चौथी लोकसभा के चुनाव अपने आप में खासे महत्वपूर्ण थे। कांग्रेस इंदिरामयी हो चुकी थी। तब मार्गदर्शक-मण्डल शब्द तो गढ़ा नहीं गया था लेकिन इंदिरा गांधी को चुनौती दे सकने वाले सभी वरिष्ठ धुरंधर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ) में सिमट गए थे। अपने तूफानी चुनावी दौरों में इंदिरा गांधी जनता को ये बताना नहीं भूलती थीं कि वे जवाहरलाल नेहरू की बेटी हैं और देश सेवा, त्याग, बलिदान उनके परिवार की परंपरा है। माहौल ऐसा बन गया था कि अमेरिका की पत्रिका ‘न्यूज़वीक’ ने लिखा रैलियों में जो भीड़ आती है उसे भाषण में रुचि नहीं है वो सिर्फ इंदिरा गांधी को देखने आती है। और इंदिरा गांधी ने भी स्पष्ट कर दिया था कि चुनाव में ‘मैं ही मुद्दा हूं।’

इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आर) लोकसभा की 518 सीटों में से 352 सीटें जीतने में कामयाब हुई। बड़ी जीत अपने साथ बड़ा अहंकार भी लाई। इंदिरा को दुर्गा भी कहा गया। अब इंदिरा ही इंडिया थीं और इंडिया ही इंदिरा था। बस एक ही छोटा सा काम था जो करने को रह गया था। वह था, ‘गरीबी हटाओ’। आगे के घटनाक्रम कुछ ऐसे घटे कि एक बड़े बहुमत के बाद भी इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल लगाना पड़ा। आपातकाल तो देश में पहले भी लगा था लेकिन जिन छद्म राजनीतिक कारणों से 25 जून 1975 को इसकी घोषणा की गई उन कारणों से इसे देश के राजनीतिक इतिहास का काला अध्याय कहा गया।

इस आपातकाल ने देश और समाज को गहरे तक प्रभावित किया। लोकतंत्र के चौथे खंभे प्रेस और मीडिया को तो टंगड़ी मार के गिरा ही दिया। नेता के अहंकार ने प्रेस को ललकारा और कहा, कहां हैं वो जो मेरे खिलाफ लिखते थे, अब कोई श्वान नहीं भौंका। आपातकाल खत्म होने के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो उस सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने इस मीडिया पर ही टिप्पणी करते हुए कहा था- ‘उनसे कहा तो गया था कि झुको लेकिन वे घुटनों के बल रेंगने लगे।’

 

आज आपातकाल को लगे 43 वर्ष हो गए, इस दौरान गंगा में बहुत सा मैला बह गया। गंगा इतनी मैली हो गई कि एक टीवी एंकर को अपनी बात सुनाने के लिए टीवी की स्क्रीन काली करनी पड़ती है। आज की सरकार का मीडिया को लेकर जो रुख है वो आपातकाल से भिन्न नहीं है। फर्क बस ये है कि तब मीडिया पर जो प्रतिबंध और दवाब थे वे प्रत्यक्ष थे। आज चूंकि मीडिया का प्रकार और स्वरूप भी पहले से भिन्न है इसलिए मीडिया पर नियंत्रण और दवाब के तरीके भी काफी भिन्न और रिफाइन्ड हैं। एक अंतर जो और दिखता है वो ये कि मीडिया ने अपनी वस्तुनिष्ठता खो दी है। उसका एक खेमा खुलकर सत्ता के मुखपत्र की तरह काम कर रहा है। आप इसे मीडिया का आपातकाल नहीं तो मीडिया का भक्ति काल भी कह सकते हैं।

 

जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके भारतीय जनता पार्टी के नेता चौधरी लाल सिंह ने कश्मीर के पत्रकारों को धमकाते हुए कहा कि कश्मीर के पत्रकार जम्मू के माहौल को गलत तरीके से पेश कर रहे हैं। उन्हें इससे दूर रहना चाहिए और एक सीमा खींचनी चाहिए। लाल सिंह ने कहा, ‘कश्मीर के पत्रकारों ने यहां गलत माहौल पैदा कर दिया था। क्या वे यहां ऐसे रहना चाहते हैं? ऐसे रहना है जैसे शुजात बुखारी के साथ हुआ है। इसलिए अपने आपको संभालें और एक लाइन ड्रा करें ताकि भाईचारा बना रहे और राज्य की तरक्की होती रहे।’ गौरतलब है कि पिछले हफ्ते कश्मीर में ‘राईज़िंग कश्मीर’ के संपादक शुजात बुखारी की उनके दफ्तर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। हत्या को लेकर पहले ही बहुत सवाल खड़े ही रहे हैं अब मंत्रीजी ने भी सवाल खड़े करने वाले भी बयान दे डाले।

 

चौधरी लाल सिंह ने जो कहा उसके निहितार्थ बहुत गंभीर हैं। वहीं मंत्रीजी के इस बयान पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर बीजेपी पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, ‘प्रिय पत्रकारों! आपके साथियों को बीजेपी ने धमकी दी है। ऐसा लगता है, शुजात की मौत अब गुंडों के लिए दूसरों को धमकाने का ज़रिया है।’ आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने भी बीजेपी पर पलटवार करते हुए कहा- बीजेपी विधायक लाल सिंह चौधरी जानते हैं कि बुखारी की हत्या किसने की, उनसे पूछताछ होनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा- हमें शुक्रगुजार होना चाहिए की हम हैदराबाद में हैं, जहां पत्रकारों को कोई खतरा नहीं है।

 

शेष भारत में जो काम सरकार बहुत ही रिफाइन्ड तरीके से कर रही है, कश्मीर में चौधरी लाल सिंह के राष्ट्रवादी उन्माद ने उसे उजागर कर दिया है।

अब ऐसी घटनाएं क्या आपको आपातकाल की याद नहीं दिलातीं। एक वेबसाइट के कार्यक्रम में बोलते हुए ईपीडब्लू के पूर्व पत्रकार ने कहा – भाजपा की सरकार आने के बाद से इन चार सालों में रिपब्लिक टीवी को छोड़कर और किसी भी निजी चैनल का लाइसेंस रिन्यू नहीं किया गया है। अब इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है। कुछ पत्रकार तो ऐसे हैं, जिनका नाम आते ही मीडिया संस्थान पीछे हट जाते हैं। अभी पिछले दिनों बरखा दत्ता ने अपना एक वीडियो शेयर किया था। इसमें उन्होंने बताया कि एक मीडिया ग्रुप के प्रमोटर का उनके पास फोन आया था लेकिन बाद में वह पीछे हट गया। बताया कि आपको लेकर बहुत पोलिटिकल प्रेशर है। पत्रकारों की हत्याएं हो रहीं हैं, उन्हें सरकार विरोधी बताया जा है। ट्रोल किया जा रहा है, गाली-गलौज हो रही है। उनके परिवारों को धमकाया जा रहा है। यह आपातकाल नहीं तो किया है।

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