समकालीन जनमत
कविता

अमरेन्‍द्र कुमार की कविताओं में काव्‍य परंपरा का बोध अभिव्यक्त होता है

कुमार मुकुल


 

अमरेन्‍द्र कुमार की कविताएँ पढ़ते लगता है कि अरसा बाद कोई सचमुच का कवि मिला है, अपनी सच्‍ची जिद, उमंग, उल्‍लास और समय प्रदत्‍त संत्रासों के साथ। काव्‍य परंपरा का बोध जो हाल की कविता पीढ़ी में सिरे से गायब मिलता है, अमरेन्‍द्र की कविताओं में उजागर होता दिखता है। इन कविताओं से गुजरते निराला-पंत-शमशेर साथ-साथ याद आते हैं। चित्रों की कौंध को इस तरह देखना अद्भुत है –

आसमान से
बरसती चांदनी में
अनावृत सो रही थी श्‍यामला धरती
शाप से कौन डरे ?

रामधारी सिंह दिनकर की कविता पंक्तियां हैं –

झड़ गयी पूंछ, रोमांत झड़े
पशुता का झड़ना बाकी है
बाहर-बाहर तन संवर चुका
मन अभी संवरना बाकी है।

अपनी कुछ कविताओं में अमरेन्‍द्र पशुता के उन चिह्नों की ना केवल शिनाख़्त करते हैं बल्कि उसके मनोवैज्ञानिक कारकों और फलाफलों पर भी विचार करते चलते हैं –

खेल-खेल में …
सीख लो यह
कि तुम्‍हें घोड़ा बनकर जीना है !
यह जान लो कि
तुमसे बराबर कहा जाता रहेगा
कि तुम कभी आदमी थे ही नहीं !

अपने समय की सा‍जिशों की पहचान है कवि को और उस पर उसकी सख्‍त निगाह है। बहुत ही बंजर और विध्‍वंसकारी दौर है यह फिर ऐसे में कोई कवि इस सबसे ग़ाफ़िल कैसे रह सकता है सो अमरेन्‍द्र के यहाँ भी मुठभेड़ की कवियोचित मुद्राएँ बारहा रूपाकार पाती दिखती हैं –

खेत बंजर होते जा रहे हैं
लेकिन, भूख बंजर नहीं हो सकती …
और भड़कती भूख की आग
कुछ भी चबा सकती है …।

 

अमरेन्‍द्र कुमार की कविताएँ

 

1. उम्मीद

इन नश्वर क्षणों में
नींद से लिपटा, ऐसे
सोया था मैं
जैसे, यह मुँदी आँख कभी खुलेगी ही नहीं
अब, परवाह कौन करे?

बादलों के झूले में डाले बाँह
झूल रहा था चाँद
अमरता की चाह कौन करे?

आसमान से
बरसती चाँदनी में
अनावृत सो रही थी श्यामला धरती
शाप से कौन डरे?

अमरता से दूर
नश्वरता से उपजे शून्य को
प्यास नदी की, भरती जा रही थी
ज्यों, अकंपित एक दृढ़ विश्वास की लौ
विजय का रथ क्यों रुके?

 

2. खेल-खेल में 

मखमली घास पर

दो बच्चे खेल रहे हैं
खेल-खेल में
एक घोड़ा बन गया
और दूसरा घोड़े का सवार!
एक बेतहाशा भाग दौड़ रहा है
जबकि दूसरा तनकर बैठा है
और जोर-जोर से हँसे जा रहा है
मैंने कहा-
चलो, अच्छा है
खेल-खेल में
जीवन का सबसे जरूरी सबक सीख लो,
यह जरूरत है सीख लो यह
कि तुम्हें घोड़ा बनकर जीना है!
या सवार बनकर जीना है!
यह जान लो कि
तुमसे बराबर कहा जाता रहेगा
कि तुम कभी आदमी थे ही नहीं
कि तुम घोड़ा बनकर
पैदा ही हुए हो
यह प्रश्न तुम्हारे सामने
तब तक दुहराया जाएगा
जब तक तुम भूल नहीं जाते कि
तुम सिर्फ और सिर्फ आदमी हो।
और अंत में कहा जाएगा
तुम मनुष्य होने का
ले आओ एक झूठा-सा प्रमाण-पत्र!

तुम नहीं जानते कि
दुनिया की सारी किताबें
घोड़े के विरुद्ध रची जा रही हैं
और दुनिया की सारी ताकतें
आदमी को घोड़ा बनाने में जुटी हैं।

 

3. कंगाल होती धरती 

खेत बंजर होते जा रहे हैं
लेकिन भूख बंजर नहीं हो सकती
बंजर होती भूख भड़कती है
और भड़कती भूख की आग
कुछ भी चबा सकती है
कुछ भी!

जल-स्रोत सूखते जा रहे हैं
लेकिन प्यास नहीं सूख सकती
सूखती प्यास भड़कती है
भड़कती प्यास की चाह-
कुछ भी जला सकती है
कुछ भी!

धरती कंगाल होती जा रही है
लेकिन इच्छाएँ कंगाल नहीं हो सकतीं
कंगाल होती इच्छाएँ भड़कती हैं
भड़कती इच्छाएँ सब कुछ मिटा सकती हैं
सब कुछ!

 

4. सुविधा की लड़ाई 

जो सुविधा मे हैं
और लड़ाई से बाहर हैं
उनकी चाँदी है

जो असुविधा मे हैं
और लड़ाई मे हैं
उनकी हालत पतली है

जो सुविधा मे हैं
लेकिन, असुविधा की लड़ाई लड़ रहे हैं
वे सत्ता में हैं

जो असुविधा मे हैं
पर, सुविधा की दुकान चला रहे हैं
वे सत्ता की संभावना के करीब हैं

सारी लड़ाई का एक ही
अंत है-
असुविधा की लड़ाई का अंत

दुनिया का हर
तानाशाह यही कहता है
दुनिया का हर
लोकतंत्र का समर्थक यही चाहता है

पर, सुविधा मिलती नहीं
और असुविधा खत्म नहीं होती
लड़ाई, हर अगले दिन

विकट होती जाती है

पता नहीं
यह लड़ाई है भी
या, गुड़िया-पुतली का खेल है

मुझे भी, ठीक-ठीक
यह नहीं पता कि
कब असुविधा की लड़ाई
लड़ाई की सुविधा में बदल जाए

 

4. प्रेम की आस में

मैंने बार-बार

प्रेम ही चाहा

उसे जब-जब चाहा

मुझे प्रार्थना में ढकेल दिया जाता रहा

 

मैंने बार-बार

प्रेम ही ढूँढ़ा

उसे जब-जब ढूँढ़ा

मुझे मृगतृष्णा के बीहड़ में उछाल दिया गया

 

मैंने जब-जब लिखा

प्रेम

वहाँ मुझे तब-तब लिखी दिखी

प्रार्थना

 

मैंने जब-जब लिखा

प्रेम

वहाँ मुझे तब-तब लिखी दिखी

मृगतृष्णा

 

मैं बचा रहना चाहता हूँ

अपने भीतर संजोकर रखे गये

प्रेम के टूटकर बिखर गये सारे धागों के साथ

लेकिन, यह तभी हो सकता है

जब प्रेम

प्रार्थना की डोली से भाग

मृगतृष्णा के ओहार के बाहर

ले सके

अपनी ही शिराओं में दौड़ रही रुद्ध साँस की खबर।

 

 

5. रोटी की लहलहाती बेल 

आदमी और उसके हिस्से की रोटी के बीच

एक फासला रहता आया है

कब यह फासला होना चाहिए

कब यह नहीं होना चाहिए

किसके साथ होना चाहिए

और किसके साथ नहीं होना चाहिए

आदमी और उसकी रोटी के बीच

कितना फासला होना चाहिए

इसे तय करने का काम

न तो रोटी के पास होता है

न तो आदमी के पास

 

इसे तय करने का काम

व्यवस्था के पास होता है

जब यह व्यवस्था दुरुस्त हो जाती है, तब

यह जरूरी हो जाता है कि

दोनों के मिलन/मुलाकात का समय

तय कर दिया जाय

और यह तभी संभव हो जब

भूख आदमी को मार डाले

या आदमी भूख को मार डाले

 

इस काम की निगरानी के लिए

पहरेदार का होना आवश्यक होता है

जो कानून के अनुसार तय करे कि

पृथ्वी के एक छोर पर रोटी रहे

और दूसरे छोर पर पर भूखा आदमी

फिर इन दोनों के बीच

दुनिया भर के सारे खतरनाक चढ़ाईवाले पहाड़

दुनिया भर के मगरमच्छों से भरी उफनती सारी नदियां

दुनिया भर के भूखे खूंखार भेड़ियों वाले जंगल

दुनिया भर के जहरीले साँप-बिच्छू से भरे रेगिस्तान

 

यानी, जब आदमी मरता-जीता वहाँ तक पहुँचे

तो उसे लगे कि

उसे रोटी नहीं, उम्मीद की एक कविता मिली है

जैसे-

जर्जर, बीमार और टूटे हुए कवि को

जीवन की अंतिम घड़ी मे मिलती है

उसकी कविता की आखिरी लहलहाती बेल।

 

6. गारंटी

दुनिया
पत्थर में बदलती है तो
बदले
किसने रोका है

जिसे-
हँसना है-
मुँह फाड़कर ,हँसे
जिसे-
चुप रहना है
चुप रहे
चाहे तो होंठ सिल ले

जिसे-
जेब भरना है
ठूँस-ठूँस कर
भर ले

दुनिया
खामोशी में बदलती है
तो बदले

लेकिन, इतनी सी
गारंटी तो दे कि
किसी के दुख के आँसू
किसी बदमिजाज के सेहरा के
झिलमिल तारोँ में तो
न सजे…

दुनिया
अगर दहशत में
बदलती है तो
जरूर बदले।

 

7. नाखून से जुड़े सवाल

अपना नाखून
काटते-काटते
याद आया कि
उनके लहू में डूबे नाखून
कब
काटे जाएंगे

जिनके पास
मेरी
आती -जाती
एक-एक
लड़खड़ाती साँस
गिरवी है

जिनके पास
मेरे –
हाथ की
उगती-मिटती
छोटी – बड़ी
एक -एक लकीर
रेहन है

जिनकी बुनी
रस्सी की फाँस
गले पर कसती जाती है
कब
काटी जाएगी?

अपने निजाम से

 

8. हे, भाग्यविधाता!

तुमने-
मुझे बहुत प्यार दिया है
उम्मीद से बहुत ज्यादा
इसके लिए
मैं तुम्हारा ऋणी हूँ
जन्म-जन्मांतर तक
तुम्हारा यह कर्ज चुकता नहीं कर सकता

मुझे-
तुमसे कोई शिकायत नहीं है
और हो भी नहीं सकती

बस, सोचता हूं कि काश
प्यार के साथ
मुझे दे सकते –
जरा-सा साहस
नाममात्र का सामर्थ्य

ताकि मैं बता पाता कि
यह जो कातिल प्यार है
एक जबर्दस्त मूसल की तरह है
जो निरन्तर कूटता चला जाता है

जब भी इसके पास से गुजरना
धीरे-धीरे गुजरना
और कच्ची मिट्टी से बने अपने तन के
भूलुंठित होकर ढह जाने के पहले
आँखें मूँद मत लेना

हे, भाग्यविधाता!
अगली बार
जब प्यार देना तो
साहस भी देना
किसी और के रहम पर
छोड़ मत देना ।

 

9. समर्पण के विरुद्ध

हमारा
ईश्वर भी बहुत लाचार है
उसे
एक अदद नींद की टीकिया की
दरकार है

भूख
प्यास
गरीबी
बीमारी

सबका बोझ
हमने अपनी छाती से उतार
उसकी छाती पर लाद दिया है

दुखों के इस पहाड़ के नीचे
वह टूटकर
बिखर गया है
बढ़ते दवाब और ताप से हताश
घरबार छोड़
भाग चला है

अरे! कोई तो रोको उसे-
अरे! कोई तो बताओ उसे-
जीना है तो मरना होगा
छोड़ समर्पण लड़ना होगा।

 


कवि अमरेंद्र कुमार, जन्म तिथि:10 फरवरी ,1967. जन्म स्थान: हाजीपुर, जहानाबाद (बिहार)।

शिक्षाः आरंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में।
बाद की शिक्षा-बी. ए. स्वामी सहजानंद महाविद्यालय, जहानाबाद तथा स्नातकोत्तर शिक्षा पटना विश्वविद्यालय, पटना से।

सन् 2011 में निराला-साहित्य और कृषक चेतना विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। पेशे से अध्यापक। वर्तमान में जगदम महाविद्यालय,छपरा (सारण) में कार्यरत।

विविध क्रियाकलाप, फ्रीलांस पत्रकारिता और आकाशवाणी पटना के कार्यक्रमों में सम्मिलित। कई पत्र-पत्रिकाओं में शोधपरक आलेख प्रकाशित।

 

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं.  सम्पर्क: ईमेल: kumarmukul07@gmail.com

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